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Ghalib ki Haveli : गुलज़ार ने मुझे ग़ालिब का पता दिया

जब से हवेली जाने का ख़याल आया था तभी से मन में गुलज़ार की ग़ालिब पर लिखी नज़्म किसी रिकॉर्ड की तरह चलने लगी थी.

Ghalib ki Haveli : गुलज़ार ने मुझे ग़ालिब का पता दिया
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गुलज़ार ने मुझे ग़ालिब तक पहुंचाया और गुलज़ार ने ही ग़ालिब की हवेली तक भी. कविता अन्तस को कितना समृद्ध करती है ये तो सब जानते हैं, पर कविता फिजिकल फॉर्म में कैसे काम करती है, अपने अनुभव से बताता हूं. बीते दिसम्बर दिल्ली गया था. उदिता से बोला कि चलो ग़ालिब की हवेली (Ghalib ki Haveli) चलते हैं. चांदनी चौक तक मेट्रो से पहुंचे. वहां उदिता ने जेबकतरों से सजग रहने को कहा तो मैं कुछ अधिक ही चौकन्ना होकर बाहर निकला. फ़सादियों की तरह चिल्लाते रिक्शेवालों ने घेर लिया. एक ई-रिक्शा वाला टाऊनहॉल तक छोड़ने को राज़ी हुआ. वहां से उतरकर सामने गए. जब से हवेली जाने का ख़याल आया था तभी से मन में गुलज़ार की ग़ालिब पर लिखी नज़्म किसी रिकॉर्ड की तरह चलने लगी थी. बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो...पेचीदा दलीलों की सी गलियां.

आंखे अब गली क़ासिम पर टिकी थीं

लालरंगी कमीज़ पहने भागते रिक्शेवालों की टेर, ठसाठस भीड़ की गन्ध सब कुछ उमंग भर रही थी. ये वही गलियां थीं, जहां मिर्ज़ा नौशा के पांव पड़े थे. थोड़ा पूछकर आगे बढ़ा तो बल्ली-मारां का साइनबोर्ड दिखा. नज़्म फिरसे चलने लगी. सचमुच पेचीदा दलीलों की सी गलियां. हल्ला-हुक्कड़. जैसे फ़िल्म की फास्ट चलती रील में रौशनी की तरह भागते लोग. आंखे अब गली क़ासिम पर टिकी थीं. थोड़ा चलने पर गली क़ासिम मिली. क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुला. मिर्ज़ा ग़ालिब का पता मिला.

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टोपी जो ग़ालिब पर ताज से ज़्यादा सुंदर लगती थी

शाम ढल चुकी थी. अंदर गार्ड ने बताया कि हवेली छह बजे बन्द हो जाती है. हमारे पास आधा घंटा था. अमूमन हिस्ट्री-साइट्स के गार्ड्स चिढ़े ही रहते हैं. उनका भी क्या दोष! जानेवाले इतने अजीब सवाल करते हैं किसी का माथा फिर जाय. पर ये मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली(Ghalib ki Haveli) थी. गार्ड बहुत अदब से पेश आया. फिर भी मेरा सताया मन सोचा कि ज़रूर ये निकलते वक्त पैसे मांगेगा. ख़ैर, ऐसा कुछ नहीं हुआ. हमने हवेली देखी. मिर्ज़ा का चौसर और हुक्का भी. और वो टोपी भी जो ग़ालिब पर ताज से ज़्यादा सुंदर लगती थी. हल्का अंधेर था उस हवेली में फिर भी सब उजला दिखता था. क्योंकि ये ग़ालिब की हवेली थी. ग़ालिब, जिनकी शायरी का नूर बरसों-बरस तलक इस दुनिया में उजाला करेगा.

मुझे तब नहीं पता था कि दो रोज़ बाद ग़ालिब की सालगिरह है, और मेरे पास हमेशा को याद रह जानेवाली एक बेहद हसीन शाम!

(मार्कण्डेय राय लेखन की दुनिया में नयी और बेहद संभावनाशील पौध हैं. उनके सुन्दर गद्य सोशल मीडिया पर पाठकों का मन अक्सर हर लेते हैं.)

(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)