पिछले कई बरसों से बुरांश खिलने के मौसम में पहाड़ पर जाना चाह रही थी. लेकिन हर बार कुछ न कुछ अड़चन आ जाती और मैं नहीं जा पाती.
हर साल की तरह इस साल भी मन बनाया बुरांश के लाल ,गुलाबी फूलों से सजे रास्तों पर कुछ देर चलने का , उन्हें देर तक निहारने का और उन्हें छूने का. और इस बार शायद मेरी पुकार में कोई बात रही होगी जो इन फूलों ने मुझे बुला लिया.
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जाने क्या था कि जब पहली झलक इस दहकते पेड़ की मिली तो आंखें चमक गईं . लेकिन जब बुरांश के पेड़ से गले लगी तो मन भर आया. लगा कि यह पढ़ रहा है मेरा मन.
ए बुरांश...क्या सचमुच तुम पढ़ पाए थे मेरा मन ?
(पल्लवी त्रिवेदी मध्य प्रदेश सरकार में पुलिस अधिकारी हैं. उनके चुटीले व्यंग्य की जनता मुरीद है. )
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)