Fantastic Fathers: वे पापा जिन्होंने बेटी के आगे बढ़ने की नींव रखी

डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated:May 03, 2022, 11:30 PM IST

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद पापा का जवाब था, उसका पहला टूर्नामेंट है और वह बहुत खुश थी, मैं सिर्फ इसलिए उसको नही रोक सकता कि कोई और लड़की नही जा रही.

श्वेता यादव

साल ठीक से याद नही पर शायद 2002 की बात है. मैं ताइक्वांडो की प्लेयर थी. मौका था सब जूनियर स्टेट चैंपियनशिप खेलने का, पूरे जिले में उस वक्त सिर्फ हम दो लड़कियां प्रैक्टिक्स कर रही थी. एक मेरी सीनियर थी. खैर खेलने के लिए बलरामपुर जाना था. पहले तो बात तय हुई थी कि हम दोनों जाएंगे. लेकिन जब स्टेशन पहुंचे तो मोहतरमा के भाई साहब जो कि हमारे सीनियर थे ताइक्वांडो में , उन्होंने बताया कि उनके पापा ने बहन को ले जाने से मना कर दिया है सो वह नही जा रही. अब बची लगभग 20-25 की टीम में मैं अकेली लड़की, एक तो टीनएज लड़की ऊपर से अकेली तिस पर पहली बार अकेले बाहर जा रही थी. कोच दुविधा में कि अब करें तो क्या करें?

पापा ने कहा, “सिर्फ इसलिए उसको नही रोक सकता कि कोई और लड़की नही जा रही”

भाई मुझे स्टेशन छोड़ कर वापस जा चुके थे और कोच की चिंता भी जायज़. ट्रेन आने में थोड़ा टाइम था या मेरी किस्मत कह लीजिए ट्रेन लेट थी, सो कोच ने निर्णय किया कि मेरे घर पर फोन किया जाए. घरवाले जैसा कहेंगे उसी के हिसाब से निर्णय लिया जाएगा. इत्तेफाक ही कहिये तड़के सुबह फोन की घण्टी बजने पर (तब लैंड लाइन हुआ करता था) फोन पापा ने उठाया. उनको सारी बात बताई कोच ने पापा सुनते रहे , थोड़ी देर की चुप्पी के बाद पापा का जवाब था, उसका पहला टूर्नामेंट है और वह बहुत खुश थी, मैं सिर्फ इसलिए उसको नही रोक सकता कि कोई और लड़की नही जा रही. ले जाओ समझ लो तुम सब जितने भी उसके सीनियर हो इस वक्त तुम लोग ही उसके गार्जियन हो, शर्त बस इतनी है कि जब भी समय मिले बात कराते रहना फोन पर. वह दिन था और उसके बाद का दिन पापा पूरी टीम के फेवरेट हो गए थे. वादे के मुताबिक वाकई सब ने मेरा बहुत खयाल रखा .

हारने पर भी खुश रहना सिखाया पापा ने

खैर टूर्नामेंट हुआ और फाइनल फाइट मैं अपनी बेवकूफी से हार गई, वो भी वह फाइट जिसे मैं सेकेंड राउंड में ही लगभग जीत गई थी. थर्ड राउंड में सिर्फ खुद को डिफेंड करते हुए टाइम निकालना था. लेकिन पता नही क्या हुआ हम देखते रह गए और हाथ आई हुई जीत निकल गई. पूरे रास्ते हमने कोच की गालियां सुनी. वापस पहुंचे तो स्टेशन पर पापा आये थे लेने. बता दिया हार गए फिर भी अजबे खुश. कहने लगे खेल है हार जीत लगी रहती है, तुम्हें अंदाज़ा ही नही अभी की तुमने क्या जीता है. तुम अकेले चलना सीख गई हो, आगे बहुत काम आएगा.

घर पहुंचे सबको मिठाई खिलाई और पार्टी का न्योता भी दे दिया. जब भी कोई पूछता की बिटिया जीत गई क्या यादव जी, तो कहते अरे वहां तक पहुंची क्या कम है? लड़की छोड़िए पूरे गांव में मुझे कोई लड़का बता दीजिए जो यहां तक पहुंचा हो? और हम सब पापा को ऐसे घूरते जैसे अजायबघर से अभी-अभी उठाकर लाये गए हों पिता के अलावा बाकी सबने, जी हां घर में भाई- बहनों ने भी खूब मजाक उड़ाया था. गई थी खेलने आ गई हार के.. लड़कों वाले गेम खेलेंगी.

Life Everyday: जीवन के कुछ कठिन सवालों में से एक सवाल यह भी है कि "आखिर खुशी है क्या?"

 

मुझे इस खेल ने धीरज सिखाया

इसका एक साकारात्मक असर ये भी रहा कि इसके बाद मैं फील्ड पर अकेली लड़की बची पूरे जिले में.. और फील्ड पर रिंग में सबको समान भाव से धोती थी. एक अच्छी बात ये भी रही की गेम से मैंने जो सबसे खास चीज सीखी वह है पेशेंस और अंत तक डटे रहना.

खैर तब समझ में नही आया था अब समझ में आता है उनकी खुशी का कारण. वाकई इन चीजों ने, इन छोटे-छोटे पिता के सपोर्ट ने मुझे इतना मजबूत किया है कि आज मैं इतनी मुश्किलों के बावजूद खड़ी हूं.

आज यह किस्सा क्यों याद आया

किस्से और भी हैं उन्हें भी लिखूंगी पार्ट-पार्ट में.... पुरानी पोस्ट है लिखने का वादा किया था लेकिन अधूरा रह गया. किस्सा आज इसलिए याद आ गया क्योंकि आज बेटी को पार्क में झूला झूलाते वक्त एक साइड बेटी बैठी थी और दूसरी तरफ एक और बच्चा हम बहुत देर से दोनों बच्चों को झूला रहे थे... बच्चे की मां से रहा नहीं गया तो उसने पूछ ही लिया आप जिम करती हैं क्या? इस झूले को झुलाने में बहुत मेहनत लगती है, मैं तो अपने बेटे को भी अकेले नहीं झुला पाती आप दोनों को बैठा कर इतनी देर से झुलाए जा रहीं वो भी बिना किसी शिकन के तो सोचा पूछ लूं.

“मैं जवाब में बस मुस्कुरा कर रह गई.”

 

(श्वेता यादव पत्रकार और समाज सेविका है. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से है. उनकी खूबसूरत यादगारी का एक हिस्सा है. )

 

 

Father daughter story feminist father supportive father best family best father best daughter sports women india