इन दिनों अजीब सी बेरुखी है,मार्च महीने की हवा चुभ रही है. ख़ुद से लड़ाई बढ़ती चली जा रही है. वह कहता है- जब लड़ाई ख़ुद से हो तो जीतने का कोई रस नहीं रहता,क्योंकि जो हार रहा होता है उसमें भी हमारा होना बचा होता है.
लिखना जैसे छूट रहा है,अब सब कुछ लिखना जैसे एक खाना पूर्ति हो,जैसे बन्द पड़े मशीन में कोई कारीगर आदतानुसार तेल डाल रहा हो.
हर बार की तरह मैंने कोना पकड़ लिया है,जिसका पहरेदार भी मैं ही हूं . उसे कई बार लगता है बहुत ज्यादा दिखना एक किस्म का भौंडापन है.
वह अपने जीवन को सबकुछ कह देने और बहुत कुछ छिपा लेने के मध्य रखना चाहता था. ठीक रस्सी पर चलते उस कलाकार की तरह जो जमीन से ऊपर खुद को मध्य में टिकाए हुए है. वह किसी एक तरफ भी झुकता है तो वह धरधरा कर गिर जाता है,और ख़ुद को समेटने लगता है.
वह धीरे धीरे आश्वस्त हो रहा है कि उसने जिसको भी खो दिया वे अब नहीं लौटेंगे,कभी नहीं लौटेंगे.वह अपने हर भ्रम को दूर धकेल दिया है,जैसे एक बांझ स्त्री अपने सौतेले बच्चें को दूर धकेल देती है.
उसे अपनी सारी सफलताएं खोखली मालूम पड़ रही है,जैसे वह इतने सालों से कोई झूठ ढो रहा था.वह अपने हर झूठ को नदी में बहा देना चाहता है जैसे मृत्यु पश्चात अस्थियां बहा दी जाती है मुक्ति की आशा में.
वह अब ख़ुद को किसी लुका छिपी के खेल की तरह नहीं छिपा लेना चाहता है,जिसमें यह निश्चित है कोई न कोई ढूंढ लेगा या उसे ख़ुद ही बाहर आकर जीत दर्ज करनी पड़ेगी.
वह अब किसी संगीन अपराधी की तरह छिपे रहना चाहता है, जिसे आसानी से खोजा न जा सके.
उसने दरवाजें पर एक नोट चिपका दिया है- I Don’t Live Here Anymore
(गौरव युवा कवि हैं. मुद्दों पर लिखते हैं. कई बार अपने फेसबुक पोस्ट्स में मन के भाव दर्ज करते हैं. )
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)