परितोष मालवीय
हम सभी खुश होना चाहते हैं, पर खुशी के मायने और पैमाने हर व्यक्ति के लिए अलग हैं. जिसके पास रोजगार नहीँ है, उसके लिए रोजगार पाना खुशी है. जिसके पास घर नहीँ, उसे एक अदद आशियाने की तलाश है. स्वयं और अपने आश्रितों को सुविधापूर्ण जीवन देना सबका लक्ष्य होता है. महाभारत में भी भीष्म और विदुर ने अलग-अलग जगहों पर संसार के छह सुखों की बात की है. दोनों ने ही "निरोगी काया" का बड़ा सुख माना है. पर मनुष्य वो विचित्र जीव है जो निरोगी काया पाकर भी दुःखी रह सकता है.
खुशी की तलाश शाश्वत है
खुशी की तलाश शाश्वत है. मज़े की बात यह है कि जिन्हें सुखमय जीवन के समस्त अवयव हासिल हैं, वे भी दुःखी हैं. साधन सम्पन्न लोगों के लिए जीवन मे कोई चुनौती न होना उन्हें उदास कर देता है अतः वे पर्वतारोहण जैसे साहसिक कार्यों पर निकल पड़ते हैं.
बहरहाल, कई दिन से मेरा पुत्र मुझसे इस फ़िल्म को देखने के लिए कह रहा था. शायद इसलिए भी कि मैं उसे गाहे बगाहे आने वाली प्रतियोगिता के लिए स्वयं को तैयार करने का लेक्चर पिलाता रहता हूँ.
इस फ़िल्म के नायक क्रिस गार्डनर (सत्य घटना पर आधारित) के जीवन संघर्षो और कठोर श्रम को देखते हुए कई बार आँखे डबडबाई कि पूंजीवादी समाज कितना निर्मम है और जीवन कितना कठिन है. हालांकि यह फ़िल्म और गार्डनर की कहानी यह संदेश अवश्य देती है कि कठोर श्रम का कोई विकल्प नहींं है.
संघर्ष से जूझता इंसान ही अपने जीवन में अनेक बार खुशियां महसूस करता है. ये अलग बात है कि हम रोजमर्रा की छोटी - छोटी खुशियों को कई बार महसूस ही नहीँ कर पाते.
P. S. - फ़िल्म के अंत में नायक को कामयाब होते हुए देख खुश हुआ ही था कि बेटे ने यह कहकर दुःखी कर दिया कि जैसे हाल इस नायक के दिखाए गए हैं, वैसे हाल 10 में से 08 भारतीयों के हैं जो चार पैसे कमाने के लिए सुबह घर से निकलते हैं.
Sublime Prose : नूर नहाए रेशम का झूला है शहतूत
(परितोष मालवीय डीआरडीओ में राज भाषा अधिकारी हैं. शौकिया अनुवादक भी हैं. )
(यहां दिये गये विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)