Books In My Life : ज्ञान का असली स्रोत मेरे लिए किताबें ही हैं

डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated:May 12, 2022, 11:45 PM IST

किताबों ने मेरी दुनिया बदली और आज भी ज्ञान का असली श्रोत मेरे लिए किताबें ही हैं. किताबों ने दोस्त दिए.

मुझे याद नहीं मैंने कब लिखना शुरू किया. शायद छुटपन से. जब अलिफ़, बे सीख रही थी , जब अक्षर पहचना शुरू किया.  जब लिखना समझ में आने लगा तो अपनी कापिया भरने लगी. शब्द के मायने बनने लगे. शब्द का जादू असर करने लगा. मुझे लिखने में मज़ा आने लगा. दिमाग था कि मशीन हर वक्त चलता रहता. लिखने लगी तो दुनिया बदलने लगी ख्यालात बदले लगे. लिखते हुए जिन्दगी को जानने लगी. लिखा तो बाज़ार समझ में आया.लिखा तो मुहब्बत रंग भरने लगे. पहला ख़त लिखा अपने प्रेमी के नाम. हर्फ़ कांपने  लगे. जैसे वो मेरे करीब बैठा हो. उसका नाम लिखते ही हलख सूखने लगा. कलम बंद  कर दिया. कई दिनों तक लिख नहीं पायी. फिर अपनी सहेली को पकड़ा.स्याही में डूबे कलम से मुहब्बत छलकने लगा.

लिखने से मुझे हमेशा पढने जैसा मज़ा आया है.

ख़त तो लिख दिया पर उसके पास जाता कैसे ? ख़त के भीतर एक पत्थर का टुकड़ा डाला. उसकी निगाहें मेरे हाथों पर टिकी थी. मैंने गेंद की तरह ख़त को हवा में उछाला वह गोला दूर जा गिरा. वह चील की तरह झपट्टा मार ख़त लेकर भाग गया. वो  ख़त आज भी मेरे लबों पर जिन्दा है.बचपन की आंखें कैसे-कैसे ख्वाब  बना  लेती है. लिखने से मुझे हमेशा पढने जैसा मज़ा आया है. मैंने अपनी जिन्दगी के सबसे हसींन  पल और सबसे मुश्किल पल लिख कर बिताये हैं. बड़ी तासीर है इसमें. मेरी कलम ने मुझे रोज़ी भी दिया और  गम और तनहाई भी. लिखने लगी तो किताबों से दोस्ती इस कदर हुयी कि हर्फ़ और मेरे दरमयान कुछ नहीं होता. जब तक पूरी किताब खंगाल नहीं लेती चैन नहीं पड़ता. उसी दौर में गोर्की की किताब  "मां" पढ़ी ,  "मेरा बचपन पढ़ा " , प्रेमचंद से लेकर रविन्द्र नाथ ठाकुर को पढ़ा. मार्क्सवाद को जानने की कोशिश की.

किताबों ने मेरी दुनिया बदली

किताबों ने मेरी दुनिया बदली और आज भी ज्ञान का असली स्रोत मेरे लिए किताबें ही हैं. किताबों ने दोस्त दिए. सारे किताबी कीड़े मेरे दोस्त हैं. कोर्स की किताबें तो कम ही हाथ लगती पर कविता , कहानियां और नज़्म तो हमारी जान हैं .किताबी के बहाने दोस्त जुटते.किताबों के बहाने मुहब्बत पिघलते.किताबों से  उसी मुहब्बत के दौर में  कैफ़ी आजमी को सुना और दम साथ कर बैठ गयी. उनके  अशआर सुनते  हुए ऐसा लग रहा था जैसे खून की आंधियां चल रही हो.

 

(निवेदिता लेखिका हैं और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. यह पोस्ट उनकी फ़ेसबुक वॉल से लिया गया है.)

(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

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