ये महज पीली टैक्सियां नहीं, इस शहर की नसें हैं. सो इस शहर की नब्ज़ टटोलने के लिए इन वाहनों के चालकों से अधिक मुफ़ीद कौन हो सकता है? एयरपोर्ट से पार्क स्ट्रीट ले जाने वाले लगभग 50 पार के कैब ड्राइवर से पूछा, 'दुःख क्या है दादा?'
उन्होंने जवाब दिया, 'लोगों के बीच वह आत्मीयता नहीं रही जिस आत्मीयता को हमने बचपन से बड़े होते हुए महसूस किया है. खाने-पीने की चीज़ों में इतनी मिलावट है कि व्यंजनों के नाम वही रह गए पर स्वाद ग़ायब हो गया.'
हावड़ा से साल्ट लेक जाने के क्रम में एक युवा कैब ड्राइवर से पूछा, 'दुःख क्या है भाई?' उसका जवाब था, 'मैं इस शहर में पैदा हुआ और यहीं बड़ा हुआ. मेरे पास खेलने के लिए एक नहीं, खेल के कई मैदान थे. मेरे बच्चे के पास एक भी नहीं. उन जगहों पर बिल्डिंग है अब.'
फिर मैंने यही प्रश्न हमने पहले कोलकाता और फिर बर्धमान घुमाने वाले ड्राइवर से पूछा तो पता चला वह बिहार के गया जिले से है. उनका जवाब था, 'कोई दुःख नहीं है. यह शहर ही हमारा सुख है.'
मैंने फिर पूछा कि कैसे?
उसने जवाब दिया, 'हम कई जगह गाड़ी चलाए. दिल्ली, बम्बई में आप बिहारी हैं जानकर लोग नाक और भौंहे सिकोड़ने लगते हैं. यहां मदद के लिए आवाज़ लगाते ही लोग आपके साथ खड़े हो जाते और वह भी बिना किसी भेदभाव के. हम जहां रहते हैं वहां सिर्फ 75 रुपये किराया देना पड़ता है. ज़्यादा पैसों के लिए कई बार यह शहर छोड़कर हम दूसरे शहर गए पर इस शहर के सुख ने पुकारकर बुला लिया. आप किसी से रास्ता पूछिए तो वह आपको गलत पता पर नहीं बताएगा. अपना बहुमूल्य समय देकर आपकी मदद करेगा. हम गरीबों के लिए यह शहर वरदान है. कम रुपयों में परिवार चल जाता है. दो पैसा कम कमा लेंगे पर यहीं रहेंगे.'
(सुलोचना कवयित्री हैं और टाटा कम्युनिकेशन्स लिमिटेड में डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं. यह लेख उनकी फेसबुक वॉल से यहां साभार प्रकाशित किया जा रहा है.)