नारायणराम मास्साब की उस्तादी देखकर ब्रिगेडियर हैनरी भी कायल हुए

Written By पुष्पेंद्र शर्मा | Updated: Jan 11, 2022, 05:31 PM IST

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वह अंग्रेजों के ज़माने के टेलर थे और 1947 से पहले रानीखेत छावनी के बड़े और गोरे अफसरों की वर्दियां और सूट सिया करते थे. 

अशोक पांडे 

नारायणराम मास्साब के बारे में समूचे रानीखेत और आसपास के इलाकों में विख्यात था कि वे नब्बे की उमर में भी दिन भर में एक थ्री-पीस काट और सिल लेते थे. वह अंग्रेजों के ज़माने के टेलर थे और 1947 से पहले रानीखेत छावनी के बड़े और गोरे अफसरों की वर्दियां और सूट सिया करते थे.

उनका बड़ा नक्शा था और वे ऊंची सिलाई वसूला करते थे. मरने के दिन तक बेहद नफीस और एलीटिस्ट लेकिन जनप्रिय बने रहे इस उस्ताद को लेकर एक फसक अर्थात गप्प बहुत चलती है. नारायणराम जब बारह-तेरह साल के हुए तो रोटी-पानी की तलाश में अपने गांव से निकट की सबसे बड़ी बसासत अर्थात गरमपानी नामक एक छोटी सी जगह जाकर वहां के इकलौते बूढ़े दर्जी दीवानीराम के यहां बतौर अप्रेन्टिस भर्ती हो गए. 

सहस्त्राब्दियों से मानवजाति को झौयेन-झुलसैण रायता और जम्बू के छौंक वाले चटपटे आलू के गुटके परोसने वाली धुंआई गुमटियों के तीर्थसदृश महात्म्य के लिए द्वापर-त्रेता युग के समय से ही विख्यात रहा गरमपानी रानीखेत से कोई तीसेक किलोमीटर दूर है. 

जन्मजात प्रतिभा के धनी बालक नारायण ने तीनेक महीने के भीतर अपने उस्ताद को पीछे छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप उसकी ख्याति तमाम गांवों में फैल गई. इससे दीवानीराम की दुकान की आमदनी बहुत कम समय में कई गुना बढ़ गई. 

वह उदारता का ज़माना था. श्रेष्ठता और प्रतिभा को पहचाने जाने और उसे समुचित सम्मान दिए जाने का रिवाज़ था. ज्यादा समय नहीं बीता जब निस्संतान और विधुर दीवानीराम मास्साब ने अपनी दुकान नारायण के नाम कर उसे अपने घर में दत्तक पुत्र की हैसियत से रहने की जगह भी दे दी और खुद को स्वैच्छिक सेवानिवृत्त कर लिया. 

साल भर बाद दीवानीराम ने जीवन से संतुष्ट होकर संसार का त्याग किया और बालक नारायण को चौदह साल की आयु में मास्साब का खिताब अता हुआ. यह किसी प्रतिभावान शास्त्रीय गायक द्वारा छोटी सी आयु में उस्ताद फलां अली खान साहब जैसी पदवी पा लिए जाने जैसा कारनामा था.
नारायणराम पाजामों और पेटीकोटों पर ऐसी महीन तुरपाई करता कि मैग्नीफ़ाइंग ग्लास लेकर भी उसे देखा नहीं जा सकता था. कैंची उसके हाथ में आते ही कपड़े पर ऐसे चलना शुरू कर देती जैसे रामलीला के समय हारमोनियम पर तारादत पन्त उर्फ़ तारी मास्साब की उंगलियां. नारायणराम के हाथ के कटे कपड़ों की धज ऐसी होती कि पहनने वाले को लगता जैसे समूचे ब्रह्माण्ड में वह वस्त्र उसी के वास्ते सृजित किया गया हो.


कालान्तर में पाजामे, फतुही और वास्कट की तमाम नई-नई डिजाइनें उनके रचनाशील मस्तिष्क ने ईजाद कीं. कहने का अभिप्राय यह है कि बहुत कम समय में नारायणराम इलाके के गुचियो गुच्ची और जॉर्जीयो अरमानी बन गए. भुजान-उपराड़ी से लेकर मजखाली- डीकोटी तक के लोग भी उनके पास आने लगे और लोधिया-क्वारब से लेकर मौना-ल्वेशाल तक के भी. नारायण हाथ में लिए गए काम को इतनी तेज़ी से अंजाम देता था कि रानीखेत तक में यह मशहूर हो गया कि गरमपानी का एक लौंडा टेलर दिन भर में सौ पाजामे तक सिल लेता है.


स्थानीय लोगों के रिश्तेदार गरमपानी आते तो मेजबानों के इसरार पर नारायणराम से एक न एक कपड़ा ज़रूर सिलवा कर ले जाते और वर्षों बाद कहते पाए जाते– “गरमपानी के नारायण मास्साब का सिला हुआ ठैरा. इस जिन्दगी में तो फटने से रहा!”


रानीखेत में अंग्रेज फ़ौज की रेजीमेंट हुआ करती थी. एक रात अंग्रेज अफसरों से भरा एक ट्रक गरमपानी के पास खराब हो गया. उन्होंने वहीं टेंट लगाकर रात बिताई और सुबह नाश्ते के बाद रानीखेत को रवाना हुए. खैरना का पुल पार करते ही उनका ट्रक गहरी खाई में गिरा और सारे अफसरों की मौके पर ही दर्दनाक मौत हो गई. सिर्फ एक युवा अफसर किसी तरह बच सका.
स्थानीय लोगों के सहयोग से जैसे-तैसे इस इकलौते अफसर ने रानीखेत पहुंचकर अपने सीनियर अफसरों को पूरे वाकये से अवगत कराया.


उसी शाम को रेजीमेंट के सबसे बड़े अफसर यानी ब्रिगेडियर हैनरी, जिसका नाम स्थानीय किस्सों में अब भी लाड़ से हैनरू लाटा के रूप में आता है, को अपने दो हिन्दुस्तानी अर्दलियों के साथ गरमपानी में नारायणराम को खोजते देखा गया. जब वे नारायणराम के पास पहुंचे तो कुल सत्तरह साल के इस खलीफा टेलर मास्टर को देखकर एकबारगी तो हैनरू लाटे को यकीन नहीं हुआ कि वही नारायणराम है लेकिन स्थानीय प्रधान और असंख्य प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा तस्दीक किये जाने के बाद उसने सबसे पहले तो नारायणराम को एक अपॉइंटमेंट लेटर थमाया जिसका आशय यह था की नारायणराम को सीधे सूबेदार की ऑनरेरी पोस्ट देकर रेजीमेंट का टेलर-इन-चीफ बना दिया गया है - चार सौ रुपये की पगार पर. उन दिनों नारायणराम की महीने भर की कमाई बारह से पंद्रह रूपये की होती थी. हैनरू ने दूसरा काम यह किया कि नारायणराम से अपना सामान बांध कर एक घंटे के भीतर अपनी जीप में आने को कहा.

नारायणराम ने हाथ जोड़कर अंग्रेज़ साहब से विनती करते हुए कहा कि उसे डेढ़ घंटे का समय दिया जाए क्योंकि वह अपने सारे पेंडिंग टेलरिंग प्रोजेक्ट्स को निबटाना चाहेगा. साहब को कोई ऐतराज़ न हुआ. बोले – “टुमको दो गन्टा डीया जाओ नरेन बट अबी का अबी अमको टुमको लेके साबबाडुर के पास अल्मोरा ले के जाने का ऐ.”


नारायणराम ने हैनरू लाटे के सामने ही पौन घंटे में बिलकुल शुरू से शुरू कर दो वास्कटें तैयार कीं और सवा घंटे के भीतर वह अपने सामान समेत हैनरू पधान की जीप के सामने खड़ा हो गया. ऐसी उस्तादी देख ब्रिगेडियर हैनरी सत्रह साल के इस लौंडे का कायल हो गया था और उसी शाम से पहाड़ी लोगों के प्रति उसका रवैया सदा के लिए बदल गया. अर्दली नारायण के सामान को जीप के पीछे लगी ट्राली में डाल चुकने के बाद उससे ट्राली में ही बैठने को कह रहे थे जब हैनरू प्रधान ने उन्हें लताड़ते हुए कहा – “टुम डोनो रास्कल साला बेटो उडर ट्राली मे. और नरेन टुम इडर बेटो अमारा संग में पीचू का सीट पे.”


तो साहब पांच सौ दर्शक मुंह खोले खड़े थे और गरमपानी-गौरव को एक खुर्राट अंग्रेज साहब की बगल में बैठता देख रहे थे. यह अकल्पनीय था. वे कुछ भी रिएक्ट कर पाते उसके पहले ही धूल उड़ाती जीप चल दी.
खैरना पुल के पास पहुंचते ही हैनरू लाटे ने नारायण से पूछा – “अबी बताओ नरेन. टुम क्या किया अमारे ऑफीसर के साथ ... ओ केटा ऐ के इडर गरमपानी में टुमने उसका जान बचाया ...”
नारायण को याद आया. उस सुबह लौंडा जैसा दिखने वाला एक अंग्रेज सिपाही उसकी दुकान में आया था जिसकी कमीज़ का एक काज बिगड़ गया था. उसने बिना पैसे लिए उसके काज को पांच मिनट में दुरुस्त कर दिया था. उसने अंग्रेज बहादुर को किस्सा बयान कर दिया.


“टबी टो ... " हैनरू लाटे ने नारायण का हाथ थामकर भावुक स्वर में कहना शुरू किया - "तुम उसका बटन का काज ऐसा लगाया नरेन कि जबी अमारा ऑफीसर लोग का गाड़ी पलटा और सब खाई में गिर रा था टो जो विलियम ठा ना अमारा ऑफीसर. टो उसका बटन खुल गया और शर्ट का काज एक ट्री का फंगी से मटलब टहनी में जा करके उडर में फंस गया. बाकी सारा ऑफीसर लोग तो उपर चला गया ऑलमाइटी का पास में और ओ जो विलियम जो ऐ ना ओ अबी मेस में मटन का बोटी खाटा और विस्की पीटा ... विस्की समजता टुम मिस्टर नरेन? ...”

(अशोक पांडे प्रसिद्ध लेखक और अनुवादक हैं. यह कहानी उनकी फेसबुक वॉल से साभार यहां प्रकाशित की जा रही है.)