सुबह से हिन्दी प्रेमियों की अनेक इबारतें पढ़ चुका हूं. 'शाप' को 'श्राप' लिखे जाने से व्यथित हैं. उनके दुख की मात्रा उस क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी 'पदार्थ' के भोगे हुए यथार्थ से भी ज्यादा है जिसकी वजह से शाप दिया गया. प्रायः सभी इबारतों में श्राप लिखने के लिए उलाहना दिया गया है. वह भी तब जब, मालवी, ब्रज, अवधी जैसी लोकभाषाओं समेत हिन्दी, मराठी में श्राप, सराप, सरापना डटे हैं. मराठी में तो शाप, शापित, शापग्रस्त आदि के साथ साथ श्राप, श्रापगुण, श्रापग्रस्त, श्रापणें, श्रापित जैसे रूप भी प्रचलित हैं.
रूपभेद भाषा को समृद्ध करते हैं
▪️ ग़ौर करें, संस्कृत में भी एक ही शब्द के एकाधिक रूप प्रचलित हैं. जैसे पिछले दिनों ही ओषधी- ओषधि- औषधि- औषधी के बारे में विस्तार से लिखा था. यह भाषा और समाज का सहज स्वभाव है. ये सभी तत्सम रूप है. इनसे 'ओखद' जैसा लोकरूप बन जाता हैं. हालांकि वह मामला अलग है. लोकमानस में सदियों से अगर 'सराप' रूप प्रयुक्त हो रहा है तो पुराने दौर के संस्कारी उच्चार में 'श्राप' भी निश्चित ही रहा होगा. परिनिष्ठित भाषा का आग्रह होने से ऐसा होता है. रूपभेद से भाषा समृद्ध होती है. बस, अर्थ का अनर्थ न हो. शाप के श्राप रूप का अन्य कोई आशय तो है नहीं.
कश्मीरी में अहिसर यानी शाप
▪️ शाप के अनेक रूप प्रचलित हैं जैसे शाप, स्रापु, साप, सिराप, शापु, सिरापु वग़ैरह. सिन्धी में 'सिरापु' है तो पंजाबी, अवधी, मालवी, बुंदेली में 'सराप' है. राजस्थानी में 'सरापणों' यानी शाप देना भी है और इसका 'स्रापणो' जैसा रूपभेद भी मौजूद है. ग्रियर्सन के कोश मे कश्मीरी का दिलचस्प उदाहरण मिलता है. कश्मीरी में 'अहि-सर' का अर्थ शाप है. दरअसल यह 'अभिशाप' है. स्पष्ट तौर पर 'अहि', संस्कृत के 'अभि' उपसर्ग का रूपान्तर है और 'सर' उसी 'स्राप' का संक्षेप हो गया है जिसका ऊपर उल्लेख है. ये भाषा में 'श्राप' की उपस्थिति साबित करते हैं इसीलिए लोकमानस में हैं.
तेलुगू, मलयालम में क्या कहते हैं?
▪️ शाप की उपस्थिति द्रविड़ भाषाओं में भी नज़र आती है. मलयालम में यह 'साबम' है तो तेलुगू में 'सापमु'. आंचलिक हिन्दी में 'स्रापित' जैसे प्रयोग भी नज़र आते हैं और 'सरापना' भी. एस.डब्ल्यू फ़ैलन के हिन्दुस्तानी कोश में سراپ 'सराप' दर्ज है और इसे शाप से ही विकसित बताया गया है. प्लाट्स प्राकृत के 'स्रापु' का उल्लेख करते हैं और स्रापु से श्राप का विकास बताते हैं. मगर यह विश्वसनीय नहीं है. प्राकृत की प्रकृति में ‘स्र’ जैसे संयुक्त पद नहीं होते. इसके बावजूद शाप के श्राप रूप की उपस्थिति प्राचीनकाल से लोकस्वीकृत है.
मिसालें अनेक हैं...
▪️ अंग्रेजी के Salt के लिए हमारे पास संस्कृत में 'लवण' है और लोकभाषाओं में इससे बने लमक, नमक से लेकर लूण, लोण, नून, नोन तक मौजूद है. हमने लवण के वज़न को देखते हुए नमक पर कभी आपत्ति नहीं जताई. ऐसी सैकड़ों मिसालें शब्दों का सफ़र में मिलेंगी. भाषा और पानी का स्वाद, स्थान परिवर्तन के साथ ही बदलता है. सर्प से सप्प फिर सांप हो गया. ये अनुनासिकता कहां से आ गई और रेफ़ का लोप किस सिद्धान्त के तहत हो गया? 'परहित सरिस धरम नहीं' में जो सरिस है वह प्राकृत से आ रहा है और उसका समरूप सदृश है. सरिस और सांप का विरोध होना चाहिए. मज़े की बात यह कि ये सब बदलाव जिस समूह-समाज में हो रहे थे तब न सिद्धान्त थे, न नियम, न व्याकरण. बात स्वरतन्त्र की है.
शब्द भी फूलते हैं
▪️ स्थान परिवर्तन के साथ भाषा में बदलाव इसलिए होता है क्योंकि स्थानीय जनसमूह में ध्वनियों के उच्चार की अपनी विशेषताएं व सीमाएं होती हैं. मुखसुख में अनेक परिवर्तन होते हैं अनुनासिकता आती है, शब्दों के बीच में नए व्यंजन आते हैं. यह भाषाई समूह की वृत्तियो के हिसाब से होता है. वानर का बन्दर हो गया. ये ‘द’ कहाँ से आया ? कई लोग शव के पर्याय लाश को लहास बोलते हैं. ये ‘ह’ कहां से आया! समुद्र के समन्दर में ‘न’ कहां से आया!! अनेक उदाहरण मिलेंगे. तो श्राप के ‘श’ में घुसा हुआ ‘र’ भी वहीं से आ रहा है जहाँ से समन्दर में घुसा ‘न’ आ रहा है.
शाप भी चले और श्राप भी चले.
▪️ शब्दों के बहुरूप या रूपभेद के चौराहे पर हमेशा याद रखना चाहिए कि अगर अर्थ का अनर्थ हो रहा हो तब उस चलन का विरोध होना चाहिए. हालाँकि अनेक मामलों में यह भी सम्भव नहीं क्योंकि लोक का स्वभाव सब स्वीकारता जाता है. मिसाल के तौर पर गजानन का गजानंद रूप. दोनों का अर्थ अलग है. एक में गज आनन यानी गणेश है तो दूसरे में गज आनंद यानी गज का आनंद है. मगर गजानंद रूढ़ है और चल रहा है. चलना भी चाहिए क्योंकि गणेशजी ही नज़र आते हैं.
▪️ अलबत्ता सौहार्द्र असावधान प्रयोग है. इसमें आर्द्रता यानी नमी नहीं, हार्दिकता यानी दिल की बात है. 'हार्द' यानी हृदय का. इसमें सु उपसर्ग लगने से सौहार्द बनेगा. तो श्राप लिखने वालों को शाप न दें.... श्राप में भी बद्दुआ ही है, आशीर्वाद नहीं.
(अजित वडनेरकर वरिष्ठ पत्रकार और संपादक हैं. शब्दों का सफर इनकी महत्वपूर्ण किताब है. यह पोस्ट उनकी फेसबुक वॉल से यहां साभार प्रकाशित की जा रही है.)