प्रवीण झा
समानतावादियों से गाहे-बगाहे मुलाक़ात हो जाती है. हर तरह के अनुभव होते हैं. एक शुक्रवार लेट दोपहर से अर्धरात्रि तक पार्टी थी, जैसी नॉर्वेजियनों की होती है. वहां भूरा व्यक्ति मैं अकेला ही था. एक अधेड़ उम्र के आधे टल्ली हो चुके मित्र ने मेरा परिचय कराया. ''यह भारत से है. इसने बचपन से खूब पढ़ाई की. करोड़ों में चुनकर टॉप कर आगे बढ़ा. अमरीका गया. इससे बेहतर प्रतिभा मैंने यहां नहीं देखी. यह देखो इसने दर्जन भर किताब भी लिख दी है.''
लगभग सभी इसपर प्रशंसा करने लगे. एक मेरी ही उम्र की सुंदर महिला ने दरवाजे से बाहर निकल कर सिगरेट जलाई और आधा दरवाजा खोल कर कहा तो क्या हुआ? दुनिया ऐसे लोगों से चलती है.
क्या हमें नॉर्मल लोगों की जरूरत नहीं, जो यह घर बना सके, नल ठीक कर सके, सड़क बना सके? क्या उनके लिए कभी तालियां बजती हैं? मैं इन भारतीयों और ईरानियों से मिलती रही हूं, जिनका एक ही लक्ष्य होता है. अच्छे अंक लाना, ऊंची शिक्षा पाना. जो असफल रह जाते हैं, वही नॉर्मल काम करते हैं. जबकि होना उल्टा चाहिए. मैं जो अब तक फूल कर बलून हो रहा था, वह इस सुई के लगते ही फुस्स हो गया. मेरे अंदर के नॉर्मल मनुष्य ने कहा, “रेसिस्ट है”
उसके बाद हम एक अंधकारमय पब गए, जहां शहर के डेढ़ टल्ली जमा थे. हर कोई एक-दूसरे से जोर-जोर से बात कर रहा था. उनमें से कुछ मुझे बोकियाने लगे या बुली करने लगे. उनका कहना था कि भारत की स्त्रियों की स्थिति बहुत बुरी है. पहले बात-चीत साधारण वाद-विवाद थी, जो बढ़ती गई. मेरे अंदर के नॉर्मल मनुष्य ने फिर से कहा, “रेसिस्ट”
उस समय वही महिला मेरे गले में हाथ रखकर जोर से उनको चुप करते हुए बोली, “क्या भारत की स्त्रियां? उनके दस हाथ और चार पैर हैं क्या? वे हमसे अलग हैं? एक-दूसरे से बेहतर सोचकर ही किसी का भला नहीं होता. दुनिया की हर स्त्री एक समान है और सभी की समस्या एक है. तुमलोग सब मतलबी एक को दूसरे से बेहतर बता कर कन्नी काटते रहते हो.” मेरे अंदर के नॉर्मल मनुष्य ने कहा, “लड़की हीरा है हीरा”
(लेखक प्रवीण झा नॉर्वे में डॉक्टर हैं.)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)