डीएनए हिन्दी: गुजरात (Gujarat) का चुनावी संग्राम अपने मुकाम की तरफ तेजी से आगे बढ़ रहा है. 1 दिसंबर को पहले फेज में 89 सीटों के लिए वोट भी डाले जा चुके हैं. लेकिन, वोटिंग के बाद के आंकड़ों को देखकर सभी पार्टियों के होश फाख्ता हैं. दलों के बीच की बेचैनी लाजमी भी है. पहले चरण में 5.49 फीसदी वोट कम पड़े हैं. यह पिछले 10 सालों में सबसे कम है.
बीजेपी (BJP) राज्य में 27 सालों से सत्ता में है. स्वाभाविक है उसे एंटी-इन्कंबेंसी का सामना करना पड़ रहा है. पहले फेज के 89 सीटों के लिए 62.89 फीसदी लोगों ने वोट डाले हैं. 788 कैंडिडेट की किस्मत ईवीएम में कैद हो चुकी है. 8 दिसंबर को पता चलेगा कि किसे जीत मिलती है, किसे हार.
हालांकि, ऐसा माना जाता है कि कम वोटिंग पर्सेंटेज सत्ताधारी दल के हित में होता है. लेकिन, यह स्टैब्लिश सत्य नहीं है. कई बार ऐसा देखने में आया है कि कम वोटिंग पर्सेंटेज में भी सरकारें सत्ता से बाहर हो जाती हैं. यही डर इस बार बीजेपी को भी सता रहा है.
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बीजेपी के लिए क्यों खास गुजरात
देश के गृहमंत्री और प्रधानमंत्री, दोनों गुजरात से हैं. गुजरात को बीजेपी के हिन्दुत्वादी राजनीति का प्रयोगशाला भी कहा जाता है. बीजेपी के लिए गुजरात के गढ़ को बचाए रखना बेहद जरूरी है. गुजरात में बीजेपी की हार का मतलब देश में इसके विरोध की हवा चल पड़ेगी. नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) इसे अच्छी तरह समझ भी रहे हैं. बताया जा रहा है कि पहले फेज में वोटिंग के ट्रेंड को देखकर बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी है.
पहले फेज में जिन सीटों पर वोट डाले गए वे 11 जिलों की हैं. इसमें तापी और नर्मदा जिले अपवाद रहे. इन दो जिलों में 70 फीसदी से ज्यादा वोट पड़े हैं. शेष 9 जिलों में 50 से 60 फीसदी के बीच वोट डाले गए. इनमें से 32 सीटें ऐसी हैं जिसमें पाटीदार वोटरों की बड़ी संख्या है. 16 सीटें आदिवासी बहुल हैं.
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कम वोटिंग से क्यों डर रही हैं पार्टियां
अब सवाल उठता है कि बीजेपी क्यों डरी है? इसके कारण भी है. आमतौर माना जाता है कि कम वोटिंग पर्सेंटेज सत्ताधारी दल के पक्ष में जाता है. लेकिन, पिछले चुनाव में 2012 की तुलना में करीब 3 फीसदी वोटिंग कम हुई थी. सिर्फ 3 फीसदी कम वोटिंग से बीजेपी को 15 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था. इस बार तो करीब साढ़े पांच फीसदी कम वोट पड़े हैं.
शहरी इलाकों में ज्यादा कम वोट पड़े
बीजेपी के लिए चिंता का एक और कारण है. आमतौर पर भाजपा शहरी इलाकों में अच्छी पकड़ रखती है. इस बार शहरी इलाकों में सबसे ज्यादा कम वोट पड़े हैं. 2017 की तुलना में इस बार शहरों में करीब 11 फीसदी वोटिंग कम हुई है. इससे बीजेपी काफी डरी हुई है. पहले फेज के चुनाव के बाद बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने पूरी ताकत झोंक दी है. देशभर से कार्यकर्ता गुजरात बुलाए गए हैं. स्टार प्रचारकों के कार्यक्रम बढ़ा दिए गए हैं. गृहमंत्री अमित शाह ने खुद मोर्चा संभाल रखा है. कई जगहों पर बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं से वे सीधे मीटिंग कर रहे हैं. कार्यकर्ताओं को सख्त संदेश दिया गया है कि दूसरे फेज में कोई रिस्क नहीं लेना है. ज्यादा से ज्यादा लोगों को पोलिंग बूथ तक पहुंचाना है. इसके लिए सभी कार्यकर्ता वोटिंग के दिन एक-एक घर जाएंगे.
...फिर भी बीजेपी मजबूत
गुजरात का चुनाव इस बार थोड़ा अलग है. पिछले 25 वर्षों से गुजरात बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होता रहा है. इस बार यहां त्रिकोणिय संघर्ष देखने को मिल रहा है. यहां अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने मजबूत दावेदारी पेश की है. कुछ सीटों पर तो चतुष्कोणिय मुकाबले हैं. प्रदेश में 12 सीटों असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी चुनाव लड़ रही है. इन सीटों पर ओवैसी कांग्रेस और आप के लिए चिंता के विषय हैं. ओवैसी की मौजूदगी की सीधा फायदा बीजेपी को मिलना तय माना जा रहा है.
गुजरात के सियासी पंडितों का मानना है कि अगर इस बार भी सीधा मुकाबला हुआ रहता तो बीजेपी के लिए मुश्किल होता लेकिन केजरीवाल की पार्टी की मौजूदगी ने बीजेपी को काफी राहत दे दी है. 27 सालों से सत्ता में रहने की वजह से बीजेपी को एंटी-इन्कंबेंसी का सामना करना पड़ रहा था. चुनाव में उसका असर भी दिख रहा है. दावा किया जा रहा है कि इस बार बीजेपी के वोट तो घटेंगे लेकिन सीटें नहीं. हालाकि, असल परिणाम तो 8 दिसंबर को ही पता चलेगा.
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