Gujarat Elections 2022: गुजरात में आप और कांग्रेस मिलकर भी क्यों नहीं तोड़ पा रहे PM मोदी की 'अभेद्य दीवार', ये हैं बड़े फैक्टर

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डीएनए हिंदी: गुजरात (Gujarat) में बीते 27 साल से भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) की संयुक्त रणनीति यहां इतनी असरदार है कि दूसरी सियासी पार्टियां चुनावी रेस तक में नजर नहीं आती हैं. दो दशक से ज्यादा की सत्ता में सत्ता विरोधी लहर (Anti Incumbency) फैक्टर का भी असर शून्य नजर आता है. 

2001 के बाद से नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) गुजरात में ऐसे विनिंग फैक्टर बनकर आए हैं, जिनसे पार पाना, राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस (Congress) के लिए आसान नहीं है. आम आदमी पार्टी (AAP) विधानसभा चुनाव 2022 में तीसरी फ्रंट बनने की कोशिश कर रही है लेकिन ऐसी सकारात्मक संभावनाएं कम नजर आ रही हैं. आइए जानते हैं गुजरात में मोदी फैक्टर के आगे दूसरे फैक्टर इतने कमजोर क्यों हैं.

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1. पीएम नरेंद्र मोदी का गुजराती कनेक्शन

गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है. उनकी राजनीतिक प्रतिभाओं को विस्तार यहीं से मिला है. चेहरा कोई भी हो, साल 2001 से चुनाव सिर्फ नरेंद्र मोदी लड़ते हैं. उनके साथ उनके सहोयोगी अमित शाह का मजबूत प्रबंधन है. गुजरात से लेकर केंद्र तक की राजनीति में अमित शाह उनके साथ-साथ हर कदम पर खड़े हैं. गुजरात में पीएम मोदी के इस्तीफे के बाद तीन मुख्यमंत्री देखे हैं. आनंदीबेन पटेल, विजय रूपाणी और भूपेंद्र पटेल. तीनों नेताओं की अपनी पहचान, नरेंद्र मोदी के आगे दबी-दबी सी है क्योंकि नरेंद्र मोदी के नाम पर सारे जातीय समीकरण ध्वस्त हो जाते हैं. सबसे प्रभावित समुदाय पटेल है. पाटीदार नेताओं का भी फुल सपोर्ट नरेंद्र मोदी को है. 

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गुजरात विधानसभा में कुल 182 सीटे हैं. गुजरात में करीब 18 फीसदी पाटीदार समुदाय के लोग रहते हैं. 40 से ज्यादा सीटों पर इनकी भूमिका बेहद निर्णायक होती है. दूसरी पिछड़ी जातियों का भी समर्थन नरेंद्र मोदी को मिलता रहा है. गुजरात ने नरेंद्र मोदी की पॉलिटिकल विल देखी है. पहली बार यहां वे बीजेपी के चुनावी प्रभारी बने थे. उन्होंने जीत दर्ज की थी. वह मुख्यमंत्री बने तो गुजरात मॉडल पर देशभर में चर्चा होने लगी. उन्होंने निवेश आकर्षित किया और पहले से विकसित गुजरात को और विकसित करने में सफल रहे. देखते-देखते वह गुजरातियों के सबसे बड़े नेता बन गए. विरोधी पार्टियां उनकी इसी छवि को तोड़ने में फेल नजर आती हैं.

2. हिंदू हृदय 'सम्राट' बन गए हैं मोदी

नरेंद्र मोदी की छवि सोशल मीडिया पर हिंदू हृदय सम्राट की हो गई है. उनके हिंदुत्व को जनस्वीकृति मिल गई है. जैसी उनकी राजनीतिक छवि गढ़ी गई है, वैसी दूसरी पार्टियों के किसी नेता की नहीं बन पाई है. बीजेपी पहले भी हिंदुत्व की सबसे बड़ी पार्टी कही जाती रही है. साल 2002 से लेकर 2013 आते-आते नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के पोस्ट बॉय हो गए थे. ऐसे पोस्टर बॉय जिनके टक्कर का कोई नेता नहीं हो पाया. योगी आदित्यनाथ के तेवर बताते हैं कि भविष्य में नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी वही बनने जा रहे हैं फिलहाल यह टैग विरोधी पार्टियों के पास नहीं है. जो धार्मिक तौर पर बेहद संवेदनशील राज्य गुजरात में बीजेपी को फायदा पहुंचाता है. नरेंद्र मोदी अपनी छवि को कैश कराने में सफल रहे हैं.

3. बीजेपी नहीं, नरेंद्र मोदी को वोट देते हैं लोग

जैसे देश में चुनाव कहीं भी हो, वोट नरेंद्र मोदी के नाम पर पड़ता है, वैसा ही हाल गुजरात का भी है. अमित शाह भी इसी मिट्टी के हैं, उनकी छवि भी कठोर प्रशासक की है, वे भी जननेता हैं लेकिन भीड़ उन्हें वो टैग देने से हिचकती है जो नरेंद्र मोदी के पास है. यह सच है कि फिलहाल वोट लोग बीजेपी के स्थानीय नेताओं के नाम पर नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी के नाम पर देते हैं. गुजरात में साल 2017 का विधानसभा चुनाव यही इशारा करता है.

नरेंद्र मोदी केंद्र में गए और राज्य की कमान आनंदीबेन पटेल ने संभाली. चुनाव हुए तो बीजेपी 100 से कम के आंकड़ों में सिमट गई. पहले चरण में नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार कम किया था. पार्टी को इस बात का अंदाजा हुआ तो दूसरे चरण में पीएम मोदी ने पूरी ताकत झोंक दी. दूसरे चरण के चुनावो में बीजेपी का प्रदर्शन बेहद शानदार रहा. फिलहाल पीएम मोदी का दिया गया नारा 'मैंने यह गुजरात बनाया है' गूंज रहा है और फिर मोदी यह गढ़ने में कामयाब हो गए हैं कि उनका गुजरात से मोह छूटा नहीं है, न ही गुजरातियों का उनसे.

4. राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, हिंदुत्व, राम मंदिर और विकास, पीएम के चुनावी टूल

पीएम नरेंद्र मोदी कुछ कहते हैं फिर सियासी दलों को उस पर या तो सफाई पेश करनी पड़ती है, या काउंटर अटैक करना होता है. बीते कई साल से ऐसा ही चल रहा है. विरोधी दल, अपने नैरेटिव पर नहीं, उनके काउंटर नैरेटिव पर बयानबाजी कर रहे हैं. हाल यह हो गया है कि बीजेपी की रैलियों में भी मोदी, विरोधियों की रैली में भी मोदी. लोग अपने मेनिफेस्टो पर नहीं, मोदी और बीजेपी पर चर्चा कर रहे हैं. यहां भी मोदी दूसरों पर सियासी तौर पर भारी पड़ रहे हैं.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, हिंदुत्व, राम मंदिर जैसे मुद्दों पर विपक्ष को घेर रहे हैं. कांग्रेस को पीएम मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर सेक्युलर राजनीति तक पर घेर चुके हैं. हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर कांग्रेस को बैकफुट पर लाने में वह कामयाब हैं. AAP भी चुनावी मुद्दों पर कोई काउंटर अटैक नहीं कर पा रही है. बीजपी की राष्ट्रवादी लहर में रोजगार, आर्थिक मंदी, जीएसटी और महंगाई जैसे मुद्दे गुम हो जा रहे हैं. 

5. बहुमत रोके रखने में कामयाब है मोदी मैजिक

यह सच है कि साल 2002 के बाद से ही बीजेपी का वोट प्रतिशत इस राज्य में घटता रहा है. 2007, 2012 और 2017 में भी सीटें लगातार कम हुई है फिर भी एक चीज कॉमन है कि बीजेपी का बहुमत बरकरार रहा है. यह भी मोदी मैजिक ही है. 2017 के चुनाव में पहले चरण में ऐसा लगा था कि पीएम मोदी के केंद्र जाने की वजह से राज्य बीजेपी में स्थितियां बिगड़ गई हैं और एंटी इनकंबेंसी की स्थिति राज्य में पैदा हो गई है. चुनाव के नतीजे भी काफी हद तक बीजेपी के लिए झटके की तरह थे.

गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से 99 सीटों पर बीजेपी को 2017 में जीत मिली थी. कांग्रेस 80 सीटें हासिल करने में कामयाब हो गई थी. 2017 के नतीजे बीजेपी के लिए बहुत बड़ी जीत तो नहीं थी. एक वक्त ऐसा लगा था कि बीजेपी की विदाई होगी और कांग्रेस सत्ता में लौट सकती है. हालांकि चुनाव आते-आते नतीजे साफ थे. बीजेपी बहुतम बचाने में कामयाब हो गई थी. यह सिर्फ नरेंद्र मोदी ही थी जिन्होंने अंतिम वक्त में बाजी पलट दी थी. इस फैक्टर से भी विरोधी दल नहीं निपट पा रहे हैं.

क्यों कठिन है कांग्रेस-AAP के लिए सियासी डगर?

आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के लिए गुजरात की डर इस बार भी आसान नहीं है. राहुल गांधी, भारत जोड़ो यात्रा की वजह से गुजरात के चुनाव प्रचार में सक्रिय रूप से दम नहीं दिखा सके हैं. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे इतने लोकप्रिय नहीं है कि वे लोगों को अपनी ओर खींच सकें. राहुल के अलावा प्रियंका गांधी भी गुजरात में बहुत एक्टिव नहीं है. कांग्रेस के दूसरे नेता इतने जनप्रिय हैं जो गुजरात में भीड़ जुटा सकें.

कांग्रेस की मुस्लिम वोटबैंक पर मजबूत पकड़ है लेकिन आम आदमी पार्टी (AAP) के साथ ऐसी स्थिति नहीं है. उसकी सियासी डगर और मुश्किल है. AAP गुजरात में कांग्रेस के वोटों में सेंध तो लगा सकती है लेकिन चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं है. दिल्ली मॉडल से ज्यादा चर्चित गुजरात मॉडल हमेशा से रहा है. AAP की सरकार लोग पंजाब में देख रहे हैं. वहां की कानून व्यवस्था को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं. खनन माफियाओं की स्थिति जस की तस बनी हुई है. माफिया राज भी सिर उठा रहा है. ऐसे में अरविंद केजरीवाल अपनी विकासवादी और गुड गवर्नेंस मॉडल को भुनाने में फेल हो रहे हैं. गुजरात की राह फिलहाल न तो कांग्रेस के लिए आसान नजर आ रही है, न AAP के लिए. दोनों पार्टियां बीजेपी के खिलाफ काउंटर नैरिटिव निकालने में परेशान हो रही हैं.

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