डीएनए हिंदी: पांच राज्यों में विधानसभा के नतीजे से लोकसभा के नतीजों का अंदाजा लगाना गलत है. विधानसभा में किसी भी दल की हार पर उसे आगामी लोकसभा चुनावों के लिए खारिज कर देना एक बड़ी गलती होगी. आइए देखते हैं कि पिछले कुछ सालों में कैसे विधानसभा चुनावों के नतीजे लोकसभा में प्रतिबिंबित नहीं होते हैं.
साल 2012 : उत्तर प्रदेश
2012 में सपा सरकार को स्पष्ट बहुमत मिला था. 224 सीटों के साथ अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने थे लेकिन 2 साल बाद हुई लोकसभा चुनावों में मोदी लहर में बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 80 में से 71 सीटें जीती थी.
साल 2015 : बिहार
2014 में लोकसभा चुनावों में बिहार में एनडीए को 40 सीटों में 28 सीटें मिली थी.मोदी लहर के एक साल के भीतर हुए चुनाव में नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन कर एनडीए को पटखनी दी थी.
साल 2018: राजस्थान,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ तीनों राज्यों में भाजपा सत्ता से बेदखल हुई थी. 2019 में हिंदी बेल्ट में इन नतीजों के दूरगामी प्रभाव होने की कयास लगाए जाने लगे थे. इसके छह महीने बाद हुए 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा और सहयोगी दलों ने तीनों राज्यों में मुख्य विरोधी दल को धूल चटा दी थी. NDA को राजस्थान में 25 में से 25, मध्यप्रदेश में 29 से 28, छत्तीसगढ 11 में से 9 सीटें मिली थी.
2019: ओडिशा
राज्य में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ होते हैं. साल 2019 में ओडिशा राज्य की कुल 146 विधानसभा सीटों में से नवीन पटनायक की प्रचंड बहुमत लाते हुए बीजू जनता दल ने 112 सीटें मिली थी, वहीं भाजपा ने कुल 23 सीटें जीती थी. वही लोकसभा के चुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन बहुत बेहतर था. बीजेपी को 21 में से 8 सीटें मिली थी और कांग्रेस को सिर्फ़ एक सीट से संतोष करना पड़ा था.
रिपोर्ट: अभिषेक सांख्यायन
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