Exam Fear: पढ़ने के आनंद में परीक्षा के भूत का दखल!

Written By डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated: Nov 14, 2022, 07:12 PM IST

पढ़ने के आनंद में परीक्षा के भूत का दखल

Exam Phobia: भारत में पढ़ने का मकसद परीक्षा में 100 हासिल करना होता है. शिक्षा के बारे में महेश चन्द्र पुनेठा का जरूरी लेख...

Exam Pressure on Students: ऐसा नहीं है कि बच्चे पढ़ना नहीं चाहते हैं या उन्हें किताबों से दोस्ती अच्छी नहीं लगती है. अतिशय परीक्षाएं ही हैं जो बच्चों को अपने मनपसंद और पाठ्यक्रम से बाहर की पुस्तकें पढ़ने से रोकती हैं. जैसे ही बच्चा अपने मनपसंद की कोई पुस्तक (Favorite Books to Read) पढ़ने लगता है, वैसे ही परीक्षा का भूत उसे सताने लगता है. वह भूत उसे खींचकर फिर से पाठ्यपुस्तकों की कैद में ला पटकता है. पाठयपुस्तकों के दबाव तले उनकी पढ़ने की इच्छा सिसकती रह जाती है. माता-पिता और शिक्षक  भी इस भूत के प्रभाव में कम नहीं रहते हैं. बच्चा नहीं भी डरता है तो वे उसे परीक्षा के नाम से खूब डराया करते हैं. अक्सर यह वाक्य सुनने को मिल जाता है-ये फालतू की किताबें पढ़ने से अच्छा होता, कुछ अपने स्कूल की किताबें पढ़ लेते.

पढ़ाने में भी परीक्षा के भूत का दिखाया जाता है डर
 
परीक्षा का भूत शिक्षकों के मन-मस्तिष्क पर भी कितना गहरा असर करता है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अपने शिक्षण के दौरान वे कितनी बार यह कहते हुए बच्चों का ध्यान खींचते हैं कि इसके बारे में बहुत बार परीक्षा में पूछा गया है या परीक्षा की दृष्टि से यह बहुत महत्वपूर्ण है. साथ ही शिक्षक उन प्रकरणों को सिखाने में अधिक बल देते हैं जिसके बारे में उन्हें लगता है कि इनसे परीक्षा में प्रश्न पूछे जा सकते हैं. उन प्रकरणों को अक्सर छोड़ देते हैं, जिनसे परीक्षा में प्रश्न पूछे जाने की संभावना नहीं होती है या कम होती है. इसका कारण होता है परीक्षा में बच्चों के प्रदर्शन के आधार पर शिक्षक का मूल्यांकन किया जाना. यह शिक्षक को नवाचारी गतिविधियों और पुस्तकालय से जोड़ने से भी रोकता है. 

परीक्षा के नाम पर शारीरिक दंड देने की है परंपरा

ऐसे बहुत कम शिक्षक होते हैं, जो बच्चों को किसी संदर्भ पुस्तक को पुस्तकालय से लेकर पढ़ने के लिए प्रेरित करते हों. उनको चिंता सताती है कि ऐसा करने से कहीं बच्चे अपनी मूल पाठ्यवस्तु से भटक न जाएं और उनका पाठ्यक्रम अधूरा न छूट जाए जिसके चलते वह अवधारणाओं को समझाने की बजाय रटाने में अधिक बल देता है. इसके लिए बच्चे को बार-बार परीक्षा का भय दिखाकर भयग्रस्त भी किया जाता है. शारीरिक दंड का प्रयोग भी होता है. पढ़ने की आदतों को विकसित करने की दृष्टि से यह सब बहुत घातक स्थिति है. यह ध्यातव्य है कि जब तक बच्चों को किसी भी तरह का भय दिखाकर पढ़ाने की कोशिश की जाती रहेगी तब तक बच्चों में किताबों के प्रति प्रेम पैदा नहीं हो सकता है. ऐसे में रचनात्मकता और कल्पनाशीलता की उम्मीद नहीं की जा सकती है. सृजनशीलता वहीं फलती-फूलती है, जहां बच्चों की क्षमता पर विश्वास किया जाता है,उनसे निरंतर जीवन्त संवाद होता है और उन्हें स्वतंत्र रूप से अपने मन पसंद की किताबें पढ़ने दी जाती हैं. परीक्षा सहित किसी भी तरह का भय दिखाकर अनुयाई तो तैयार किए जा सकते हैं अन्वेषक नहीं.

परीक्षा शिक्षा के लिए है,  शिक्षा परीक्षा के लिए नहीं

यह बात समझना जरूरी है कि परीक्षा शिक्षा के लिए है, न कि शिक्षा परीक्षा के लिए. अत्यधिक परीक्षाओं ने इसे सिर के बल खड़ा कर दिया है. इसके चलते आज सारे बच्चे हर समय परीक्षासन करते हुए दिखाई देते हैं. उनके पास सोचने-समझने और कुछ नया करने और पढ़ने का समय ही नहीं है. वे ‘आसन गुरु’ के बताये नियमों का अनुसरण करते हुए पूरी तल्लीनता से आसन करने में लगे रहते हैं. सत्ता भी कब चाहती है कि सोचने-विचारने वाले नागरिक तैयार हों. उसे तो उसके सामने शीर्षासन करने वाले ही चाहिए. परीक्षा....परीक्षा.... और परीक्षा,इतनी अधिक परीक्षाएं रख दो कि बच्चे उसके अलावा कुछ सोच ही न पाएं. ऐसा लगता है जैसे जान-बूझकर अभियान चलाया गया है- परीक्षा के क्रूर कदमों तले/कुचल डालो बच्चों की रचनात्मकता को/मसल डालो उनके बचपन को/पनपने मत दो उनकी कल्पनाओं को/उगने मत दो उनके सपनों को/फलने-फूलने मत दो उनकी रुचियों को/मत फैलाने दो पंख उनके चिंतन को/सोते-जागते बस वे एक ही बात सोचें परीक्षा-परीक्षा-परीक्षा/जकड़ डालो उन्हें परीक्षा के जाल से/मत लेने दो सांस तसल्ली से. 

शत प्रतिशत पाना प्रतिष्ठा का बन गया है सवाल

पूरा वातावरण कैसे परीक्षामय बना दिया है, इसकी पराकाष्ठा परीक्षा परिणाम आने के सीजन में देखी जा सकती है. सारे संचार माध्यम परीक्षा परिणामों की खबरों से भर जाते हैं. जैसे ही परीक्षा परिणाम आने शुरू होते हैं, लोगों की जबान से ‘शैक्षिक गुणवत्ता,’ ‘प्रतिभा,’ ‘प्रतिभावान’ जैसे शब्द खूब सुनाई देने लगते हैं. जो बच्चा जितने अधिक अंक प्राप्त करता है, वह उतना अधिक प्रतिभावान मान लिया जाता है. हर अभिभावक बच्चों से शत-प्रतिशत चाहता है. समाज में इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया गया है. एक समय था परीक्षा परिणाम आने पर पडोसी भी बधाई नहीं देते थे लेकिन आज सैकड़ों मील दूर से भी बधाई दी जाती है. बाजार ने  अभिभावकों की इस नब्ज को पकड़कर इसे जश्न में बदल दिया है. यह जश्न कुछ के लिए खुशी और मान-सम्मान पाने का अवसर बन जाता है लेकिन बहुत सारों को कुंठा और तनाव दे जाता है. टॉपर के अलावा कोई संतुष्ट नहीं दिखाई देता है. बच्चे तो संतुष्ट हो भी जाएं लेकिन अभिभावक संतुष्ट नहीं हो पाते हैं. ऐसे में स्वाभाविक है बच्चे उन्हीं किताबों को पढ़ना चाहते हैं, जो उन्हें प्रत्यक्ष रूप से ‘प्रतिभावान’ का तमगा दिलाने और अपने अभिभावकों की लेंटेनियाई अपेक्षाओं को पूरा करने में मददगार हो सकें. 
 
फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था पर गौर करें

यहां प्रश्न पैदा होते हैं कि क्या किसी परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर लेना मात्र ही शैक्षिक गुणवत्ता और प्रतिभा की एकमात्र कसौटी है? क्या उन बच्चों को गैर-प्रतिभावान मान लिया जाना चाहिए जिन्होंने कम अंक प्राप्त किए हैं? शैक्षिक गुणवत्ता या प्रतिभा को क्या अंकों द्वारा ठीक-ठीक मापा जा सकता है? फिनलैंड में तो जब तक बच्चे  किशोर नहीं हो जाते, उनकी कोई परीक्षा ही नहीं होती है. स्कूल में पहले 6 वर्ष तक उनका कोई मूल्यांकन नहीं होता है. केवल एक अनिवार्य मानकीकृत परीक्षा तब होती है,जब बच्चे 16 वर्ष के हो जाते हैं. तब क्या यह मान लिया जाय कि वहां के बच्चों में प्रतिभा ही नहीं होती या परीक्षा के बिना वे सीख नहीं रहे हैं? बल्कि आंकड़े बताते हैं कि वे अधिक बेहतर सीखते हैं या कहें वास्तविक अर्थों में सीखते हैं.

रटंत विद्या शिक्षा का आधार

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसी परीक्षा पद्धति होगी वैसी हमारी शिक्षण पद्धति होगी. परीक्षा हमारे शिक्षण को बहुत गहरे तक प्रभावित करती है. आज हमारी शिक्षा रटंत प्रणाली पर आधारित है तो उसका कारण बड़ा कारण परीक्षा पैटर्न ही है. किसी भी परीक्षा में पूछे जाने वाले अधिकांश प्रश्न ऐसे होते हैं, जो तथ्यों, सूचनाओं और जानकारियों पर आधारित होते हैं, जिनके उत्तर बच्चे पाठ्यपुस्तकों और गाइड्स में से रटकर लिख सकते हैं. समझना कोई जरूरी नहीं होता है. कल्पनाशीलता और विश्लेषण की बहुत कम आवश्यकता रहती है. दूसरे शब्दों में कहा जाए कि बच्चे की याददाश्त का ही अधिक मूल्यांकन होता है. किताबी ज्ञान ही परीक्षा के केंद्र में रहता है. फलस्वरूप बच्चों की रचनात्मकता की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, न ही पाठ्येतर गतिविधियों व पढ़ने-लिखने की आदतों और आचार-व्यवहार-सामाजिक अंतःक्रिया पर. इस बात की कहीं कोई अहमियत नहीं होती है कि कौन बच्चा पाठ्यपुस्तकों से इतर कितनी किताबें और पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता है? कौन मौलिक सोच रखता है? इसका कारण स्पष्ट है- नागरिकों के बारे में सोचना, कभी भी, किसी भी सत्ता के हित में नहीं होता है, यह सत्ता को बहुत अच्छी तरह पता होता है. इसलिए सत्ता पढ़ने की आदतों के विकास की दृष्टि से कोई गंभीर प्रयास करते हुए नहीं दिखाई देती है. यहां मैं केवल राजनीतिक सत्ता की बात नहीं कर रहा हूं बल्कि धार्मिक या सामाजिक सत्ताएं भी पढ़ने की आदतों को पसंद नहीं करती हैं. तभी तो अक्सर यह वाक्य सुनाई दे जाता है-अधिक किताबें पढ़ने से दिमाग खराब हो जाता है. कोई भी सत्ता केवल उन्हीं किताबों को पढ़ने को प्रेरित करती है,जो उसकी व्यवस्था के संचलान में मददगार होती हैं या उसकी व्यवस्था रूपी मशीन में फिट होने वाले पुर्जे गढ़ती हैं. 

नो मार्क्स, नो ग्रेड

इस अधिनियम के तहत कक्षा आठ तक फेल न करने की नीति तथा सतत और व्यापक मूल्यांकन पद्धति के रूप में एक प्रगतिशील कदम उठाया गया था. ‘नो मार्क्स’ और ‘नो ग्रेड’ (No Marx, No Grade) के स्थान पर दक्षता आधारित मूल्यांकन पद्यति को अपनाया गया. इसके अंतर्गत बच्चों का मूल्यांकन उनकी याददाश्त नहीं बल्कि उसकी दक्षता के आधार पर किया जाना निश्चित किया गया. हर स्तर के लिए हर विषय में कुछ दक्षताएं निर्धारित कर दी गयी, जिसमें बच्चे को अंक या ग्रेड न देकर यह चिह्नित करने की व्यवस्था थी कि कौन सा बच्चा कौन सी दक्षता प्राप्त कर चुका है? इसमें शिक्षण के दौरान बच्चे को कुछ अवधारणाएं, परिभाषाएं, सिद्धांत, सूचनाएं या तथ्य रटाने का नहीं बल्कि उनकी समझ विकसित करने की कोशिश थी ताकि बच्चे निर्धारित दक्षता को प्राप्त कर सकें. 

Travelogue Diary: Costa Rica के निकोया को प्रकृति ने जीवेत शरद: शतम् का दिया है वरदान 


बच्चों को अवलोकन, प्रयोग,परीक्षण,कल्पना और विश्लेषण करने के अधिक अवसर प्रदान करना इसका उद्देष्य था ताकि बच्चे अपने ज्ञान का खुद निर्माण कर सकें और अंतत ज्ञान सृजन तक पहुंच सकें. इसके लिए जितना जरूरी अपने आसपास का अवलोकन करना होता है, उतना ही जरूरी पुस्तकालय का प्रयोग करना. पुस्तकालय के प्रयोग करते हुए ही बच्चों का किताबों से लगाव पैदा होना स्वाभाविक है. सच्चे अर्थों में इससे ही बच्चों की सृजनशीलता का विकास संभव है. फेल न करने की नीति के प्रति यही सोच थी. लेकिन अफसोस कि इसको न समझते हुए एक प्रगतिषील कदम को वापस ले लिया गया.

Book Review: बच्चे प्रकृति की नेमत हैं, मशीन तो बिल्कुल भी नहीं होते

मेरी बातों से यह निष्कर्ष ना निकाल लिया जाए कि मैं परीक्षा को समाप्त करने की बात कर रहा हूं. सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शिक्षक और शिक्षार्थी परीक्षा की जरूरत रहती है. परीक्षा को समाप्त करने की नहीं बल्कि उससे पैदा होने वाले भय को समाप्त करने की जरूरत है. परीक्षा का तरीका कुछ ऐसा होना चाहिए जिसमें परीक्षार्थी  को पता ही नहीं चले  कि उसकी परीक्षा ली  जा रही है क्यूंकि जब परीक्षार्थी को पता होता है कि उसकी परीक्षा ली जा रही है तो ऐसे में परीक्षार्थी में बनावटीपन आ जाता है जिसके चलते उसका वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो पाता है. साथ ही वह भय का कारण बन जाती है. इसलिए परीक्षा कम से कम, लचीली ,विकेन्द्रीकृत और लंबे अंतराल बाद होनी चाहिए. पढ़ाई को रटंत प्रणाली से बाहर निकालने के लिए परीक्षा, विशेषकर प्रतियोगी परीक्षाओं को बदलना जरुरी है. जब तक इन परीक्षाओं में क्यों और कैसे जैसे प्रश्न अधिकाधिक नहीं पूछे जाएंगे और मौलिक अभिव्यक्ति को अधिक महत्व नहीं दिया जाएगा, तब तक खोजी प्रवृत्ति, आलोचनात्मक विवेक और मौलिक चिंतन को विकसित करना संभव नहीं हो पाएगा. न ही ज्ञान को स्कूल के बाहरी जीवन से जोड़ पाएंगे और न ही पढ़ने की आदतों का विकास कर पाएंगे. 

(लेखक महेश चन्द्र पुनेठा कवि हैं और शैक्षिक दखल पत्रिका का संपादक करते हैं. ये उनके नितांज निजी विचार हैं. )

देश-दुनिया की ताज़ा खबरों Latest News पर अलग नज़रिया, अब हिंदी में Hindi News पढ़ने के लिए फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगलफ़ेसबुकट्विटर और इंस्टाग्राम पर.