Government Free Schemes: सरकारी मुफ्त योजनाओं पर बर्बाद हो रहा टैक्सपेयर्स का पैसा? जानें एक्सपर्ट क्या कहते हैं इस पर  

Written By स्मिता मुग्धा | Updated: Jun 14, 2024, 04:18 PM IST

मुफ्त योजनाएं अर्थव्यवस्था पर बोझ?

Free Schemes: सोशल मीडिया पर एक बार फिर सरकार की मुफ्त योजनाओं के खिला 'मेरा टैक्स देश के विकास के लिए है, फ्री योजनाओं के लिए नहीं'  कैंपेन चल रहा है. जानें इस ट्रेंड पर आर्थिक विशेषज्ञों की क्या राय है. 

लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Elections 2024) के लिए बीजेपी ही नहीं विपक्षी पार्टियों ने भी अपने मैनिफेस्टो में कई लोक-लुभावन वादे किए थे. इसमें कई फ्री स्कीम्स भी शामिल हैं. सरकारों की फ्री योजनाओं के खिलाफ टैक्सपेयर्स का एक हिस्सा अक्सर ही अपना गुस्सा जाहिर करता रहता है. इसके अलावा, कई आर्थिक विश्लेषक भी इस तरह की योजनाओं का विरोध करते रहे हैं. क्या ये योजनाएं वाकई में देश की अर्थव्यवस्था के लिए बोझ हैं? जानें मुफ्त योजनाओं पर आर्थिक विश्लेषकों की राय.

'फ्रीबीज का फायदा हमेशा ज़रूरतमंदों को नहीं मिलता'
भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग कहते हैं,  फ्रीबीज यानी मुफ्त स्कीम्स का फायदा कई बार ऐसे लोगों को भी मिलता है, जो उसके लिए अपात्र होते हैं.गरीब या बेरोजगार या नरेगा में मजदूरों को जो सुविधाएं मिलती हैं उन्हें फ्रीबीज नहीं कह सकते हैं. कई बार फ्री बिजली, फ्री राशन जैसी सुविधाओं का फायदा ऐसे लोग उठाते हैं जिन्हें वाकई में इसकी जरूरत नहीं होती है. इसके लिए प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना जरूरी है. 


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उन्होंने यह भी कहा कि सरकार का कुल बजट 45 लाख करोड़ के आसपास है. इसमें से मुफ्त योजनाओं पर होने वाला खर्च करीब 4-5 लाख करोड़ रुपये ही है. देश को टैक्स से करीब करीब 25 लाख करोड़ रुपये टैक्स से आते हैं. ऐसे में टैक्स से होने वाली कुल आमदनी में से महज 15 से 20% की रकम ही फ्रीबीज या मुफ्त योजनाओं पर खर्च हो रही है. 


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'अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव हैं मुफ्त योजनाएं'
ग्लोबल टैक्सपेयर्स ट्रस्ट के चेयरमैन मनीष खेमका का मानना है कि मुफ्त योजनाओं की वजह से अर्थव्यवस्था सुदृढ़ नहीं हो पाती है. उन्होंने कहा, 'तमिलनाडु में चलने वाली बेशुमार फ्री स्कीम्स पर सुप्रीम कोर्ट को भी तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी थी. मुफ्त योजनाओं के बजाय सरकारी खर्च को संसाधनों के मुताबिक होना चाहिए. गरीबों और कमजोर लोगों को सहायता मिलनी चाहिए, लेकिन यह उत्पादकता बढ़ाने वाला होना चाहिए. विकसित देशों में 50% से ज्यादा आबादी प्रत्यक्ष कर देती है, जबकि भारत में अभी भी 98 फीसदी आबादी इससे बाहर है.' 

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