15 अक्टूबर. दुनिया के किसी और देश का तो पता नहीं, मगर ये डेट भारत और हम भारतीयों के लिए खासी महत्वपूर्ण है. आज ही के दिन तमिलनाडु के रामेश्वरम में मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म हुआ था. अब्दुल कलाम ने क्या किया? उनकी उपलब्धियां क्या थीं? इसपर हमें कुछ कहने और बताने की जरूरत नहीं है. आज सोशल मीडिया पटा पड़ा है बर्थडे विशेज से.
क्या हिंदू क्या मुसलमान सब एक सुर में अब्दुल कलाम को देश का गौरव बताते हुए X पर ट्वीट और फेसबुक पर पोस्ट कर रहे हैं. एक ऐसे वक्त में जब हर दूसरी चीज हिंदू मुस्लिम के पलड़े में रखकर तौली जा रही हो, नफरत अपने चरम पर हो, धर्म को किनारे रखकर पूरे देश का अब्दुल कलाम के लिए एकजुट होना वाक़ई सुखद है.
अब इसे फॉर्मेलिटी कहें या ज़रूरत. भले ही आज देश का मुसलमान कलाम साहब को हैप्पी बर्थडे बोल रहा हो. लेकिन ये कलाम साहब ही हैं जिसने 'अब्दुल' और 'कलाम' जैसे देश के अन्य मुसलमानों को खासी टेंशन में डाल दिया है. सवाल होगा कैसे? तो जवाब हमारे आसपास ही मौजूद है.
ज्यादा दूर मत जाइए. मौजूदा दौर सोशल मीडिया का है तो उसी का रुख कर लीजिए. बातें शीशे की तरह साफ़ हैं. सोशल मीडिया पर अलग अलग विषयों को लेकर हज़ारों पोस्ट होंगी. उनपर लाखों कमेंट होंगे. उन पर गौर करिये तो मिलेगा की करोड़ों में 'अब्दुल' और कलाम होंगे, जो अलग अलग मुद्दों या ये कहें कि सरकार की आलोचना में वहां कमेंट कर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे होंगे.
अच्छा चूंकि मौजूदा वक्त में सोशल मीडिया पर दबदबा राइट विंग का है. तो ये बेचारे 'अब्दुल' और 'कलाम' गाली भी जम कर खाते हैं. वहीं बात राइट विंग की हो तो भले ही उसे ये साधारण 'अब्दुल' और 'कलाम' एक फूटी आंख न भाते हों लेकिन जब बात देश और देश के मिसाइल मैन अब्दुल कलाम की आएगी तो हमारा दावा है अगर जरूरत पड़े तो यही राइट विंग उनके लिए जान तक दे सकता है.
सोशल मीडिया पर एक तरफ तो राइट विंगर्स द्वारा 'अब्दुल' और 'कलाम' को कोसा जा रहा है. वहीं दूसरी तरफ पूर्व राष्ट्रपति और महान वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम के लिए जान न्योछावर करने की बात हो रही है. दोनों बातें दो धूरियों पर है दोनों में इतना विरोधाभास क्यों? जवाब बहुत आसान है और ये जवाब है शिक्षा और उस शिक्षा के बल पर देश की सेवा.
अपने को शोषित मान और ये कहकर कि सरकारों ने हमारे लिए क्या किया? बात बात पर रोना रोने वाले मुसलमानों से कई बातें की जा सकती हैं. और बहुत देर तक की जा सकती हैं. लेकिन उनके सामने हम पैगंबर मोहम्मद की एक हदीस कोट करेंगे फिर आगे कोई बात करेंगे. पैगंबर मोहम्मद ने कहा था कि 'मुल्क से मुहब्बत ईमान की निशानी है.'
सवाल ये है कि कितने 'अब्दुल' और 'कलाम' इस बात को फॉलो करते हैं? वहीं जब हम इन बातों को देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सापेक्ष रख कर देखें तो मिलता है कि उन्होंने न केवल इस कोटेशन को फॉलो किया. बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा.
राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने देश के करोड़ों 'अब्दुल' और 'कलामों' की तरह कुंए का मेंढक बनना गवारा नहीं समझा. वो नहर तक आए. उन्होंने नदी का रुख किया और ज्ञान के समुंदर में गोते लगाए और वो मुकाम हासिल कर लिया जिसकी बदौलत विश्व मानचित्र पर भारत को एक अलग पहचान मिली. रक्षा मामलों में भारत विश्व के उन मुल्कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हुआ जहां पहुंचना किसी भी मुल्क के लिए वाक़ई बड़ी बात है.
एपीजे अब्दुल कलाम हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन हमारा मुल्क भरा पड़ा है अब्दुल और कलामों से. तो हम बस इतना ही कहेंगे कि अब वो वक़्त आ गया है जब उन्हें कुरान के साथ साथ विज्ञान को भी तरजीह देनी है. गणित में जीवन तलाशना है. उर्दू को साथ लेते हुए हिंदी और अंग्रेजी से जीवन जीने का सलीका सीखना है. कुल मिलाकर अपनी शिक्षा पर काम करना है. मदरसे का त्याग कर स्कूल जाना होगा.
देश के अब्दुल और कलामों को को समझना होगा मौजूदा मदरसा एजूकेशन से क़ौम का भला ना कभी हुआ है ना कभी होगा. ये सिर्फ़ कुंद दिमाग़ कठमुल्ले पैदा कर रही है. लंभी दाढ़ी वाले, मूंछ कटे, बिलांग भर पैजामा ऊपर किये बेतरतीब कठमुल्ले. थोड़ा व्यंग्यात्मक हों तो कहा जा सकता है कि,'अरहर की दाल' में लहसुन और जीरा ही शोभा देते हैं. अब उसमें यदि कोई अजीनोमोटो और स्प्रिंग अनियन डाल के मंचूरियन बनाने की कल्पना करे तो इससे केवल समय नष्ट होगा.
जैसे हालात हैं ये कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि देश के 'अब्दुल' और 'कलाम' सिर्फ और सिर्फ अपना और कौम दोनों का नुकसान कर रहे हैं. ये अपने में शर्मनाक है कि चाल, चरित्र और चेहरे के कारण मौजदा राजनीतिक सामाजिक परिदृश्य में 'मुसलमान' 21 वीं सदी का सबसे विवादास्पद शब्द है और ये क्यों विवादास्पद बना?
देश के अब्दुल और कलाम यदि अपने अपने गिरेबां में झांककर देखें तो उन्हें जवाब मिल जाएगा. उसे ये समझना होगा कि कटोरी भर मांस खाकर सरकार विरोध में लिप्त मुसलमान बकरों, भेड़ों, भैसों, ऊंटों की पूंछ पकड़-पकड़ के मुसलमान जन्नत नहीं जाएगा. वो जन्नत जाएगा अपने किरदार से. और किरदार तभी अच्छा होगा जब वो शिक्षा को थामे. जड़ता और कट्टरपंथ जैसी चीजों को निकाले. देश से मुहब्बत और दूसरे धर्म का सम्मान करे.
बहरहाल हम 'अब्दुल' और 'कलामों' से ये कहकर विदा लेंगे कि तालिबानी सोच और पैर में मोच कभी भी इंसान को आगे नहीं बढ़ने देती.अभी भी वक़्त है भविष्य कैसा होगा इसका फैसला वर्तमान करेगा और वर्तमान यही कह रहा है कि मुसलमान सरकार विरोध करने से पहले अपनी जड़ता और कट्टरपंथ का विरोध करे और उस दिशा में जाए जहां से रास्ता स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटीज की तरफ जाता है.
लोगों विशेषकर देश के मुसलमानों को ये समझना होगा कि अब्दुल कलाम अगर आज अब्दुल कलाम हुए हैं तो उसका कारण बस ये है कि उन्होंने शिक्षा का मार्ग चुना. अब्दुल कलाम के सामने भी आपदा थी उसमें उन्होंने अवसर तलाशा मिसाइल मैन हुए और भारत का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया.
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