विपक्ष के '26' पर BJP के '38' कितने पड़ेंगे भारी, समझिये देश की राजनीति में क्यों आया हुआ भूचाल

Written By कुलदीप पंवार | Updated: Jul 18, 2023, 01:35 PM IST

NDA Meeting पर सभी की निगाहे हैं (File Photo)

NDA Meeting 2023: देश में लोकसभा चुनाव होने में एक साल से भी कम समय रह गया है. ऐसे में अब भाजपा और विपक्षी दल अपना-अपना खेमा मजबूत करने में जुट गए हैं.

डीएनए हिंदी: Mission 2024- देश में अब लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections 2024) का असर पूरी राजनीति पर साफ दिख रहा है. राजनीतिक नजरिये से देखें तो 18 जुलाई यानी मंगलवार का दिन बेहद अहम हो गया है, क्योंकि बेंगलूरु में विपक्षी दल अपना शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं तो दिल्ली में भाजपा नेतृत्व वाला NDA अपना बाहुबल दिखा रहा है. विपक्ष की बैठक में 26 दल पहुंच चुके हैं, जबकि NDA मीटिंग (NDA Meeting) में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 38 दलों के पहुंचने का दावा किया है. दोनों ही पक्ष एक-दूसरे गुट के साथ खड़े दलों को कमतर जताने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में यह सवाल उठने लगा है कि वास्तव में NDA और उसके विपक्ष में बन रहे महाएकता गठबंधन (नाम पर फैसला आज की मीटिंग में होगा) के बीच में असल में कौन ज्यादा प्रभावी साबित होगा.

आइए 8 पॉइंट्स में जानते हैं इस सवाल का जवाब कि विपक्ष के 26 पर NDA के 38 भारी पड़ सकते हैं या नहीं और यदि वे भारी पड़े तो इसका कितना प्रभाव चुनाव पर होगा.

1. सांसद-विधायक की संख्या छोटी, पर प्रभाव में छोटे दल भारी

भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है कि यहां महज कुछ जिलों तक सिमटे दल भी अपने साथ जुड़े खास वोटबैंक के सहारे बड़ी-बड़ी पार्टियों को पानी पिलाते रहे हैं. भाजपा के साथ आए 38 दलों में से यदि अधिकतर नाम देखें जाएं तो ऐसे ही दलों के मिलेंगे. इन दलों के पास अभी भले ही बहुत ज्यादा विधायक या सांसद ना हों, लेकिन अपने-अपने खास कोर एरिया में उनकी मतदाताओं पर पकड़ एक पूरे प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने वाली है. 

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2. बिहार में 30 फीसदी वोट पर है NDA के छोटे दलों की पकड़

बिहार में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), उनके चाचा पशुपति नाथ पारस की लोक जनशक्ति पार्टी, जीतनराम मांझी की हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और मुकेश सहनी की VIP अब NDA के साथ खड़े हैं. इन दलों की बिहार के कुल वोट बैंक में करीब 30 फीसदी पर पकड़ है. दरअसल बिहार में 16 फीसदी दलित वोट हैं, जिनमें से करीब 6 फीसदी पासवान वोट और 6 फीसदी ही मुसहर वोट हैं. पासवान वोट पर चिराग और पारस तो मुसहर वोट पर मांझी की मजबूत पकड़ है. मांझी इसके अलावा भी महादलित वोट में और सेंध लगा सकते हैं. इसी तरह कुशवाहा समाज के 8 फीसदी वोट और मल्लाह समुदाय के करीब 10 फीसदी वोट बिहार में माने जाते हैं. ये दोनों उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी के कोर वोटबैंक हैं. इससे भाजपा उन सीटों पर भरपाई कर सकती है, जो नीतीश कुमार की JDU के बिहार में भाजपा का साथ छोड़कर RJD का दामन थामने से नुकसान में आ सकती हैं.

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3. यूपी में पूर्वांचल और मध्यांचल की सीटों पर मजबूत होगा NDA

उत्तर प्रदेश में NDA के साथ ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, डॉ. संजय निषाद की निषाद पार्टी और अनप्रिया पटेल की अपना दल (एस) खड़े हैं. इन दलों के वोटबैंक का प्रभाव यूपी के पूर्वांचल और मध्यांचल की सीटों पर है. पूर्वांचल में पिछली बार भाजपा को 26 में से 6 सीट पर हार मिली थी. भाजपा इस बार राजभर, निषाद और पटेल यानी कुर्मी वोट से इन सीटों को कब्जाना चाहती है. राजभर अकेले दम पर चुनाव जीतने की हैसियत नहीं रखते, लेकिन उनका कोर वोटबैंक यानी राजभर समुदाय पूर्वांचल की 12 से ज्यादा सीटों पर प्रभावी संख्या में है. 

3. तमिलनाडु में द्रमुक तो आंध्र में जनसेना का है साथ

भाजपा के मिशन साउथ की झंडाबरदार जयललिता के समय से ही अन्नाद्रमुक रही है. भाजपा को तमिलनाडु की जनता ने अब तक स्वीकार नहीं किया है. इसके चलते भाजपा को वहां अन्नाद्रमुक (AIADMK) और तमिल मनीला कांग्रेस के जरिये ही अपना झंडा बुलंद करना होगा. आंध्र प्रदेश में भी भाजपा लगातार कोशिश के बावजूद ज्यादा पैठ नहीं बना पाई है. हालांकि आंध्र से अलग हुए तेलंगाना में भाजपा अपना वोट बैंक तैयार करने में सफल रही है. ऐसे में आंध्र में उसने अपने साथ फिल्म स्टार पवन कल्याण की जनसेना को जोड़ा है. 

4. महाराष्ट्र में NCP के साथ आने से मजबूत हुआ NDA

महाराष्ट्र की राजनीति में लोकसभा के लिहाज से भाजपा बड़ा उलटफेर कर ही चुकी है. भाजपा शिवसेना गठबंधन के पास यहां की 48 में से 43 सीट थीं, लेकिन उद्धव ठाकरे की शिवसेना बाद में अलग हो गई. भले ही भाजपा शिवसेना में दो फाड़ करके एकनाथ शिंदे गुट के साथ राज्य में सरकार बना ले गई हो, लेकिन शिवसेना का कोर वोटर अभी भी उद्धव ठाकरे के साथ दिख रहा है. इस कारण भाजपा ने अजित पवार के नेतृत्व में शरद पवार की NCP में सेंध लगाई है. अजित पवार के साथ NCP के अधिकतर जमीनी नेता भी आए हैं, जिनकी मराठवाड़ा में मजबूत पकड़ है. NCP के पास 4 लोकसभा सीट थी. भाजपा को उम्मीद है कि शिवसेना के छिटकने से हुए नुकसान की भरपाई इससे हो जाएगी. हालांकि इसके लिए उसे अपनी सीटों में कटौती करनी होगी. महाराष्ट्र में रामदास अठावले की रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया पहले ही भाजपा के साथ है.

5. नॉर्थईस्ट में भी छोटे दलों के सहारे फैल रहा भगवा

नॉर्थईस्ट राज्यों की बात करें तो पिछले कुछ साल में भाजपा यहां अधिकतर जगह सत्ता में आ गई है. इसके लिए वहां के छोटे-छोटे दलों से गठबंधन बहुत हद तक जिम्मेदार है. इन दलों की स्थानीय निवासियों में मजबूत पकड़ है, जिसका लाभ भाजपा को भी मिल रहा है. भाजपा यहां NPP, NDPP, SKM, MNF, BPP और AGP के साथ अलग-अलग राज्य में गठबंधन में है. इसी तरह हरियाणा में भी भाजपा के पास दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी का साथ है, जिसकी जाट वोट पर अच्छी पकड़ मानी जाती है. 

6. नए चेहरों की भी एंट्री की चल रही कोशिश

भाजपा NDA में 38 दलों से आगे भी कुछ नए चेहरे जोड़ने की कोशिश में जुटी हुई है. आंध्र प्रदेश में वह मुख्यमंत्री जगन की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस को साथ लाने की कोशिश में है. जगन का झुकाव भी पिछले दिनों भाजपा की तरफ रहा है और तमाम मुद्दों पर दोनों दल साथ दिखे हैं. इसी कारण भाजपा ने अपने पुराने सहयोगी दल TDP को आंध्र में अब तक खास तवज्जो नहीं दी है. केरल में भी भाजपा कांग्रेस से टूटे हिस्से केरल कांग्रेस (थॉमस) जुड़ने की तैयारी में है. केरल कांग्रेस पहले भी भाजपा के साथ थी, लेकिन 2021 के चुनाव में उसने भाजपा का साथ छोड़ दिया था. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में भी रालोद की तरफ से भाजपा खेमे में एंट्री की इच्छा के संकेत आ रहे हैं, लेकिन अब तक दोनों ही तरफ के नेताओं ने स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा है. ये दल यदि NDA में आए तो यह गुट और ज्यादा मजबूत हो जाएगा. राजस्थान में भी रूठे हुए हनुमान बेनीवाल को दोबारा मनाने की कोशिश चल रही है. पंजाब में शिरोमणि अकाली दल ने दोबारा NDA में आने की इच्छा जताई थी, लेकिन भाजपा इसके लिए तैयार नहीं है. यहां भाजपा के साथ सुखदेव ढींढसा का शिरोमणि अकाली दल संयुक्त (ढींढसा) खड़ा हुआ है, जिसका पंथक वोट बैंक पर प्रभाव है.

7. छोटे दलों के वोटबैंक होते हैं प्रभावी

यदि भारतीय राजनीति के इतिहास को देखा जाए तो छोटे दलों के वोट बेहद प्रभावी साबित होते रहे हैं. जहां मुकाबला कांटे का होता है, वहां स्थानीय स्तर के ऐसे दल का साथ मिलने वाले दल को सीधे तौर पर 4-5 फीसदी की बढ़त मिल जाती है. यही बढ़त निर्णायक साबित होती है. महज कुछ जिलों तक प्रभावी रहने वाले ऐसे दलों के वोटर आसानी से बड़े दल के उम्मीदवार को ट्रांसफर भी हो जाते हैं, जबकि बड़े दल का वोटर आसानी से दूसरे दल के उम्मीदवार को अपना नहीं मानता. इसका बहुत बड़ा उदाहरण साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन से लगाया जा सकता है, जिसमें बसपा ने बाद में सपा वोट बैंक पर अपना साथ नहीं देने का आरोप लगाया था.

8. भाजपा का गठबंधन दिख रहा है धरातल पर ज्यादा मजबूत

विपक्षी गठबंधन के मुकाबले छोटे दलों से भरा होने के बावजूद भाजपा का NDA ज्यादा मजबूत लग रहा है. इसका कारण विपक्षी गठबंधन की 'महाएकता' में अब भी कई तरह के विरोधाभास होना है, जिससे उनके एकजुट खड़े रहने पर सवाल उठ रहे हैं. दूसरी तरफ, NDA के छोटे दल जानते हैं कि भाजपा जैसे बड़े दल के साथ जुड़ने पर उन्हें कई सीटों का लाभ हो सकता है, जो उन्हें राजनीतिक तौर पर मजबूत करेगा. भाजपा को भी इन दलों को साथ लेने से लाभ होना तय है. भाजपा की इमेज अब भी सवर्ण जातियों की पार्टी वाली है. ऐसे में यूपी-बिहार जैसे जातिगत समीकरण पर वोट करने वाले प्रदेशों में उन्हें जातीय वोटबैंक वाले छोटे दल साथ लेने से पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जातियों के वोट में हिस्सेदारी करने का मौका मिलेगा. इससे भाजपा को ज्यादा मजबूती मिलेगी.

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