Dadasaheb Phalke Award to Mithun Chakraborty: मिथुन को दादा साहेब फाल्के... जैसे ही घोषणा हुई, फैंस हैरत में आ गए. क्रिटिक्स सवाल जवाब करने लगे. इंडस्ट्री, दो खेमों में बंटी और गुटबाजी शुरू हो गई. इन सब के इतर सोशल मीडिया पर भी हलचल है. यहां भी लोग दो वर्गों में बंटे हैं और पक्ष से लेकर विपक्ष तक पुरुस्कार को लेकर किस्म-किस्म की बातें हो रही हैं. ध्यान रहे कि इस साल की शुरुआत में भी बॉलीवुड एक्टर मिथुन चक्रवर्ती को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था. अब जबकि उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया जा रहा है, तो इस पुरस्कार के राजनीतिक निहितार्थ पर उंगलियां उठनी शुरू हो गई हैं.
मिथुन को देखें और उनकी ज़िंदगी का अवलोकन करें तो चाहे वो उनका सिनेमाई सफर हो या फिर राजनीतिक सफर दोनों ही काफी विविध और विरोधाभाषी हैं. कभी अल्ट्रा लेफ्ट रहे मिथुन कम्युनिस्ट हुए. फिर उन्होंने सेंट्रिस्ट (तृणमूल कांग्रेस ) होना चुना. वर्तमान में मिथुन राइट विंग पॉलिटिक्स से जुड़े हैं और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम रखा है.
गरीबी और बेरोजगारी के पहियों पर सवार नक्सलवादी आंदोलन ने 60 और 70 के दशक के आखिर में बंगाली युवाओं को कट्टरपंथ की तरफ प्रेरित किया. मिथुन भी इसकी चपेट में आए और नक्सली नेता के रूप में उभरे। 1969 में, उनके पिता बसंत कुमार चक्रवर्ती ने डर के मारे उन्हें घर से दूर भेजा जिसका नतीजा ये निकला कि आज मिथुन का शुमार उन सौभाग्यशाली एक्टर्स में है, जो गर्व से कह सकते हैं कि उनके पास भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा अवार्ड दादा साहब फाल्के पुरस्कार है.
'गरीबों के अमिताभ बच्चन' नाम से मशहूर मिथुन का शुमार उन बॉलीवुड एक्टर्स में है. जिनकी झोली में पद्म भूषण के अलावा 3 नेशनल अवार्ड्स हैं. मृगया, डिस्को डांसर, दो अनजाने, द नक्सलाइट्स, डांस डांस, द कश्मीर फाइल्स, द ताशकंद फाइल्स जैसी हिट फिल्मों में काम कर चुके मिथुन उन चुनिंदाअभिनेताओं में हैं जिन्होंने 5 भारतीय भाषणों में लगभग 380 फ़िल्में की हैं.
अपने ज़माने में एक एक्टर के तौर पर मिथुन का स्टारडम कैसा था? इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी फिल्म डिस्को डांसर दुनिया भर में 100 करोड़ रुपये की कमाई करने वाली पहली बॉलीवुड फिल्म थी.
भले ही विरोधी स्वर ये कह कर मिथुन की आलोचना करें कि पुरस्कार मिलने की वजह 'कुछ और' है. लेकिन इस बात को किसी भी सूरत में ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि आलोचनाओं के इतर मिथुन के खाते में तमाम उपलब्धियां भी हैं.
आज भले ही लोग एक एक्टर के रूप में मिथुन को दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिए जाने को सवालों के घेरे में रख रहे हों. लेकिन यदि आलोचना को दरकिनार कर देखा जाए तो इस बात में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है कि अपने ऑरा से मिथुन सिनेमा को बहुत दूर तक ले गए हैं.
खुद मिथुन इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि बतौर अभिनेता उन्होंने अपने जीवन में तीन तरह की फ़िल्में की हैं. पहली पैसे के लिए (ताकि मिथुन अपना और अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित रख सकें. ) दूसरी फैंस के लिए (ये वो मसाला फ़िल्में थीं जिन्हें मिथुन ने सिर्फ और सिर्फ अपने फैंस के लिए किया) इसके बाद तीसरी वो फ़िल्में थीं जिन्हें मिथुन ने सिर्फ अपने लिए किया (ऐसी फ़िल्में कर मिथुन ने दुनिया को ये बताया कि वो एक काबिल अभिनेता हैं जो बोरिंग से बोरिंग फिल्मों में अपने अब अभिनय के रंग भर सकता है.)
मिथुन की अभिनय क्षमता कैसी है? इसका अगर किसी को अंदाजा लगाना हो तो 1992 में आई बुद्धदेब दासगुप्ता की तहादेर कथा और 1994 में आई जीवी अय्यर की फिल्म स्वामी विवेकानंद देख सकता है. इन दोनों ही फिल्मों के लिए मिथुन को नेशनल अवार्ड मिलना स्वतः हमें उनकी काबिलियत से रू-ब-रू करा देता है. इसी तरह वो बी ग्रेड फ़िल्में जिन्होंने मिथुन को मिथुन बनाया यदि उनको भी देखें तो यही मिलता है कि वहां भी एक एक्टर के रूप में मिथुन ने अपना 100 परसेंट दिया और जनता का भरपूर मनोरंजन किया.
जिक्र मिथुन के मिथुन होने का हुआ है. तो हमारे लिए ये बता देना भी बहुत जरूरी हो जाता है कि FTI पासआउट मिथुन बॉलीवुड के एकमात्र ऐसे एक्टर हैं, जिनकी पहली ही फिल्म ने नेशनल अवार्ड अपने नाम किया था. मिथुन को लेकर एक अहम बात ये भी है कि उनका शुमार इंडस्ट्री के उन एक्टर्स में हैं जिनका कोई गॉड फादर नहीं था और जिसने नाम, शोहरत, पैसा जो कुछ भी हासिल किया, उसकी वजह सिर्फ उसकी खुद की मेहनत थी.
ऐसा नहीं है कि मिथुन ने सिर्फ अपनी एक्टिंग स्किल से लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया. मिथुन जितने बढ़िया एक्टर हैं उतने ही अच्छे डांसर भी हैं. मिथुन के डांस के प्रति जनता की दीवानगी का आलम क्या था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सिर्फ भारत ही नहीं सुदूर रूस में भी मिथुन का फैन बेस है. इस पर एक बार खुद मिथुन ने बाद की थी और बताया था कि जब एक बार वो रूस गए तो उन्हें ये देखकर हैरत हुई कि वहां भी उनका तगड़ा फैन बेस है जिसमें 19-20 साल की लड़कियां शामिल हैं.
बहरहाल मिथुन का जैसा सिनेमाई सफर रहा, उसे देखकर ये कहना अतोश्योक्ति नहीं है कि सिनेमा की विधा में मिथुन और उनके योगदान को ख़ारिज नहीं किया जा सकता. मिथुन को अवार्ड इसलिए मिला है क्योंकि अपनी कला से वो सिनेमा को बहुत दूर तक ले गए हैं और इसके लिए कई मायनों में वो बधाई के पात्र हैं. इसके बाद अब भी अगर लोग पुरस्कार के चलते मिथुन की आलोचना कर रहे हैं तो उन्हें ये समझना होगा कि 4 दशक के करियर में कई हिट फ़िल्में देना किसी भी कलाकार के लिए आसान नहीं है लेकिन मिथुन ने ये कर के दिखाया है.
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