DNA TV Show: राहुल-प्रियंका को अमेठी-रायबरेली से ही उतारने पर मुहर, कितने सुरक्षित हैं कांग्रेस के ये गढ़
DNA TV Show: कांग्रेस CEC ने राहुल गांधी को अमेठी और प्रियंका गांधी को रायबरेली सीट से उतारने का प्रस्ताव पास कर दिया है. इस DNA रिपोर्ट में पढ़िए कि क्या अमेठी और रायबरेली सिर्फ विरासत को बचाने का सवाल है?
DNA TV Show: लोकसभा चुनावों के दो चरण के मतदान के बावजूद एक खबर ऐसी थी, जिसका इंतजार कांग्रेस के अंदर और बाहर सब जगह हो रहा था. यह राजनीतिक ब्रेकिंग न्यूज थी कि क्या राहुल गांधी एक बार फिर अमेठी सीट से चुनाव लड़ने जा रहे हैं? क्या प्रियंका गांधी वाड्रा रायबरेली की सीट से पहली बार चुनाव मैदान में उतरने जा रही हैं? अब दिल्ली में कांग्रेस इलेक्शन कमेटी यानी CEC की बैठक में इस पर फैसला कर दिया गया है. कांग्रेस CEC ने राहुल को अमेठी और प्रियंका का रायबरेली से उतारने के प्रस्ताव पर हामी भर दी है, लेकिन अंतिम फैसला कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे पर छोड़ दिया है. कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने कहा है कि इस पर आखिरी फैसला 1-2 दिन में घोषित हो जाएगा, लेकिन पार्टी सूत्रों का कहना है कि राहुल-प्रियंका का अब चुनाव लड़ना तय ही माना जा सकता है.
प्रियंका गांधी पहली बार चुनाव लड़ने उतरेंगी और उनके सामने रायबरेली सीट पर अपनी मां सोनिया गांधी की विरासत को बचाने की चुनौती है, जबकि राहुल गांधी के लिए अमेठी में साल 2019 में गंवाई अपनी विरासत दोबारा वापस पाने का चैलेंज है. राहुल अमेठी से लड़े, तो बीजेपी उम्मीदवार स्मृति ईरानी से ये उनकी तीसरी टक्कर होगी. मुक़ाबला अबतक 1-1 का रहा है. वहीं रायबरेली में बीजेपी ने भी अभी तक अपना कैंडीडेट घोषित नहीं किया है. तीन दिन पहले कन्नौज में नामांकन के बाद अखिलेश यादव ने भी ऐसे संकेत दिये थे कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी यूपी से चुनाव लड़ सकते हैं. हालांकि आज कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने इसपर कुछ साफ नहीं कहा था. उन्होंने कहा था कि जब भी फ़ैसला होगा, बता दिया जाएगा.
गांधी परिवार यूपी लौटता है और अमेठी-रायबरेली से लड़ता है तो इसके क्या मायने हैं? इस DNA विश्लेषण की शुरुआत इन दोनों सीटों के गांधी-नेहरू कनेक्शन से करते हैं. जानने की कोशिश करते हैं कि अमेठी और रायबरेली में एक बार फिर गांधी परिवार ही क्यों? इसका क्या मैसेज है?
पहले रायबरेली के बारे में जानिए
गांधी-नेहरू परिवार का रायबरेली से रिश्ता 72 साल पुराना है. 1952 में पहली बार फिरोज गांधी रायबरेली से जीते थे. उसके बाद 1957 में भी जीते. उनकी मृत्यु के बाद 1967, 1971, 1977 और 1980 में 4 बार इंदिरा गांधी यहां से लड़ीं. सिर्फ एक बार 1977 में वे राजनारायण से हारी थीं. 1984 में इंदिरा की हत्या के बाद 1984, 1989 और 1991 में भी ये सीट नेहरू परिवार के ही अरुण नेहरू और शीला कौल के पास रही. 1996 और 1998 में लगातार दो बार रायबरेली सीट बीजेपी ने जीती, लेकिन 1999 में कांग्रेस ने फिर ये सीट छीन ली. 2004 में सोनिया गांधी अमेठी सीट छोड़कर रायबरेली आ गईं और फिर उसके बाद 2004 से 2019 तक वो लगातार 4 बार रायबरेली से जीतकर लोकसभा पहुंचीं.
अब अमेठी और गांधी परिवार का रिश्ता जानिए
अमेठी से गांधी परिवार की चुनावी रिश्तेदारी रायबरेली के बाद बनी. इस रिश्ते को भी 47 साल हो चुके हैं. अमेठी में गांधी परिवार की पहली एंट्री 1977 में हुई, लेकिन इमरजेंसी के साइड इफेक्ट में संजय गांधी चुनाव हार गए. 3 साल में हवा बदली और 1980 में संजय गांधी यहां से जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे. प्लेन क्रैश में संजय गांधी की मृत्यु के बाद 1981 में राजीव गांधी राजनीति में आए और उन्होंने भी पहला चुनाव अमेठी से जीता. राजीव इसके बाद 1984, 1989 और 1991 में भी अमेठी से जीते. राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 के उपचुनाव और 1996 और 1998 के चुनाव में अमेठी सीट गांधी परिवार के वफ़ादारों के पास रही. 1998 में सोनिया गांधी कांग्रेस की कमान संभाल चुकी थीं. 1999 में पहली बार संसद जाने के लिए उन्होंने भी अमेठी सीट को ही चुना और 2004 में अमेठी को राहुल गांधी के लिए छोड़कर वे रायबरेली शिफ्ट हो गईं. 2004 में राहुल गांधी अमेठी से राजनीतिक डेब्यू करने वाले गांधी परिवार के चौथे सदस्य थे. 2009 में दूसरी और 2014 में तीसरी बार भी अमेठी से जीते, लेकिन 2019 में बीजेपी की स्मृति ईरानी से चुनाव हार गए और उसके बाद संसद में वायनाड के सांसद कहलाए.
क्यों उतारा जा रहा है प्रियंका-राहुल को यूपी में?
सवाल ये भी है कि राहुल और प्रियंका को अमेठी और रायबरेली से लड़ाने के पीछे क्या सोच हो सकती है? क्या ये पारिवारिक विरासत को बचाने का संघर्ष है? या फिर कोई विकल्प ना मिलने की मजबूरी है? या फिर इसमें कांग्रेस की कोई दूर की रणनीति भी देखी जाए? क्योंकि यूपी के मैदान से हटने का मतलब है, अपने विरोधी को वॉकओवर दे देना और चुनावी इतिहास का ट्रेंड ये है कि दिल्ली का रास्ता हमेशा 80 सीटों वाले सबसे बड़े प्रदेश यानी उत्तर प्रदेश से होकर ही गया है. क्या इस फैसले में ये भी संदेश है कि कांग्रेस ने मैदान छोड़ा नहीं है, यूपी की ज़मीन पर अब भी वो है, और अब भी कमबैक करने का इरादा रखती है?
क्या कहता है कांग्रेस के वोटों का ढलता हुआ ग्राफ
कांग्रेस की अमेठी और रायबरेली की चुनौतियों को जरा वोटों के ढलान वाले इस ग्राफ से समझें. पहले रायबरेली की बात करते हैं.
- 2009 में यूपीए-2 सरकार बनी, तब रायबरेली में सोनिया गांधी को 72.20 प्रतिशत वोट मिले. सामने बीजेपी के वोट सिर्फ़ 3.80 प्रतिशत थे.
- 2014 में सोनिया गांधी को 63.80 प्रतिशत वोट मिले. जबकि बीजेपी को 21.10 प्रतिशत वोट मिले. ये मोदी मैजिक का साल था. कांग्रेस का वोट शेयर अचानक से डगमगाया.
- 2019 में ये वोट मार्जिन और घट गया. सोनिया गांधी को 55.80 प्रतिशत वोट मिले और बीजेपी का वोट बढ़कर 38.40 प्रतिशत हो गया.
- 10 साल में रायबरेली में कांग्रेस के वोट 16 प्रतिशत घट गए और बीजेपी के 35 प्रतिशत बढ़ गए.
अब अमेठी पर आते हैं, यहां चैलेंज और ज़्यादा हैं.
- 2009 में राहुल गांधी दूसरी बार अमेठी से लड़े तो उनका वोट 71.80 प्रतिशत था. जबकि बीजेपी को सिर्फ़ 5.80 प्रतिशत वोट मिले थे.
- 2014 में राहुल गांधी के वोट घटकर 46.70 प्रतिशत रह गए, जबकि बीजेपी के बढ़कर 34.40 प्रतिशत हो गए.
- 2019 में बाज़ी ही पलट गई. बीजेपी 49.70 प्रतिशत वोट लेकर अमेठी जीत गई. राहुल गांधी 43.90 प्रतिशत पाकर अमेठी से आउट हो गए.
- कुल हिसाब देखें तो 10 साल में अमेठी में कांग्रेस का वोट 28 प्रतिशत घट गया, बीजेपी का 44 प्रतिशत बढ़ गया.
क्या भावनाएं आएंगी राहुल-प्रियंका के काम?
भारत भावनाओं का देश है. संवेदनाएं चुनावों में भी काम करती हैं. अतीत में रोटी-बेटी और जमीन के रिश्तों ने कई बार चुनावी लहरें पैदा की हैं. अमेठी और रायबरेली में अब भी एक वर्ग है, जो मानता है कि राहुल और प्रियंका यहां आते हैं तो निश्चित तौर पर उस कनेक्शन को फिर जिंदा करेंगे और जीतेंगे. लेकिन बीजेपी ने भी 2014 के बाद के बाद से ग्रास रूट पर जाकर अमेठी-रायबरेली में कांग्रेस की ज़मीन खिसकाई है, और अपनी जड़ों को मजबूत किया है. दोनों पार्टियों के वोटों का ग्राफ भी आपने देखा. इसीलिये बीजेपी दावा करती है कि कांग्रेस के लिए ना यूपी में कुछ बचा है, ना ही अमेठी-रायबरेली में.
किस दम पर कहती है BJP 'यूपी में कांग्रेस के लिए कुछ नहीं बचा'
यहां आपको एक और आंकड़ा देखना चाहिए. उससे आप जान सकेंगे कि अगर बीजेपी कहती है कि यूपी में कांग्रेस का कुछ नहीं बचा तो इसमें कितना दम है?
- 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यूपी में 18. 25 प्रतिशत वोट मिले थे और उसने 21 सीटें जीती थीं.
- 2014 में कांग्रेस के वोट घटकर 7.48 प्रतिशत रह गए थे और उसे सिर्फ 2 सीटें रायबरेली और अमेठी मिली थीं.
- 2019 के चुनाव में कांग्रेस की अमेठी सीट भी छिन गई. सिर्फ रायबरेली पास रह गई. यूपी में वोट भी घटकर 6.31 प्रतिशत रह गए.
यही वोट प्रतिशत दिखाकर दावा किया जाता है कि कांग्रेस और गांधी परिवार दोनों ही अप्रासंगिक हो चुके हैं. कांग्रेस के विरोधी जब ऐसा कहते हैं तो उनका इशारा प्रियंका गांधी की तरफ भी दिखता है. कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग प्रियंका गांधी में वर्षों से आशा की किरण देख रहा है. प्रियंका भी पिछले कुछ चुनावों में खुद को रायबरेली और अमेठी से बाहर लाई हैं. वो आधे यूपी की इंचार्ज रहीं. टिकटों में भी उनकी चली. पूर्वांचल पर उन्होंने खास फोकस किया. वाराणसी में कुछ ज़्यादा दिलचस्पी ली. उनके भाषणों से कई हेडलाइन्स निकलीं, लेकिन उनकी रैलियों और रोड शो में उमड़ी भीड़ किसी भी चुनाव में वोट में नहीं बदल पाई, कांग्रेस के काम नहीं आई. लेकिन कांग्रेस कैडर में फिर भी भरोसा है कि भाई-बहन का ये चुनावी कॉम्बिनेशन सुपरहिट होगा और यहीं से कांग्रेस नई ऊर्जा लेकर पुराने दिनों में लौटेगी.
सियासी समीकरण कितने हैं पक्ष में
कार्यकर्ताओं का भरोसा नेताओं की पूंजी होती है. लेकिन सियासत में समीकरणों की बड़ी वैल्यू है. यूपी में 80-शून्य बीजेपी का सपना है. इतना ही बड़ा सपना अमेठी के साथ रायबरेली भी जीतने का है. हाल ही में राज्यसभा चुनावों में बीजेपी अमेठी-रायबरेली के कद्दावर नेताओं को अपनी तरफ लाने में कामयाब रही है. दोनों सीटों पर अखिलेश यादव का समाजवादी वोट बैंक विशेषकर यादव वोट बैंक कांग्रेस का बड़ा सहारा है. लेकिन यूपी में सत्ता के तीसरे ध्रुव यानी BSP ने रायबरेली से यादव उम्मीदवार उतारकर लड़ाई में नया पेच डाल दिया है.
कहीं उल्टा ना पड़ जाए दांव
एक नजर इस पर भी डालिए कि राहुल और प्रियंका को अमेठी-रायबरेली से उतारना. हो सकता है कांग्रेस इसे ट्रंप कार्ड माने, लेकिन संभव है इसके काउंटर अटैक का भी उसे अंदाज़ा हो. बहुत मुमकिन है कि इस घोषणा के बाद चुनावी रैलियों में परिवारवाद का मुद्दा फिर टॉप ट्रेंड करने लगे. कांग्रेस के विरोधी पूछें कि परिवार ही क्यों याद आया? अमेठी-रायबरेली को अपनी 'जागीर' समझने के आरोप लगें. हो सकता है इसपर मौकापरस्ती का लेबल भी लगे कि हार गए तो भाग गए, और अब फिर आ गए! बहुत मुमकिन है कि 30-40 साल के पिछले कामों का हिसाब पूछा जाए और बात पुश्तों तक पहुंच जाए.
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