DNA TV Show: अब JDU में केवल नीतीश राज, क्या है इसका मतलब और क्यों हो रही भारतीय राजनीति में इसकी चर्चा
DNA TV SHOW
Nitish Kumar Latest News- जदयू भी उन पार्टियों में शामिल हो गई है, जहां पार्टी के अंदर लोकतंत्र यानी सबकी आवाज नहीं बल्कि एक ही नेता का फैसला सर्वोपरि होता है. इस फैसले का पूरा डीएनए पेश कर रही है ये रिपोर्ट.
डीएनए हिंदी: Bihar Politics Updates- बिहार की राजनीति (Bihar Politics) में पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा चर्चा जनता दल यूनाइटेड (JDU) के अंदरूनी घटनाक्रम को हो रही थी. जदयू के अंदर बहुत सारी ऐसी हलचल चल रही थी, जिस पर बिहार ही नहीं तकरीबन पूरे देश की नजर लगी हुई थी. यह हलचल शुक्रवार को दिल्ली में उस समय खत्म हो गई, जब जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह को पद से हटा दिया गया और उनकी जगह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) की ताजपोशी हो गई. इसके साथ ही अब जदयू मतलब नीतीश कुमार और नीतीश कुमार मतलब जदयू हो गया है.
व्यक्ति ही सर्वोपरि वाली कतार में आई जदयू
देश में ऐसी कई राजनीतिक पार्टियां हैं, जो मकसद के लिए संगठन के तौर पर शुरू होती हैं, लेकिन समय के साथ साथ, वो एक शक्तिशाली व्यक्ति या परिवार के इशारे पर चलने लगती हैं यानी उसमें एक व्यक्ति ही सर्वोपरि हो जाता है. इसका असर उसी राजनीतिक पार्टी में असंतोष के रूप में दिखाई देता है. ऐसी परिवार केंद्रित और व्यक्ति केंद्रित राजनीतिक पार्टियां, धीरे-धीरे अपने कार्यकर्ताओं का भरोसा भी खो देती हैं, और पार्टी की मूल विचारधारा भी कहीं पीछे छूट जाती हैं.
कांग्रेस और बसपा हैं इसके सशक्त उदाहरण
- व्यक्ति ही सर्वोपरि के उदाहरण के तौर पर आप देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को ले सकते हैं. देश की आजादी की मांग को लेकर, एक संगठन के तौर पर इस पार्टी की शुरुआत हुई थी. लेकिन आजादी के बाद धीरे-धीरे ये पार्टी गांधी परिवार के इर्द गिर्द सिमटकर रह गई. कहने के लिए इसमें कई बड़े नेता दिखाई देते हैं, लेकिन अगर उनकी खटास, गांधी परिवार से हुई, तो वो धीरे-धीरे साइड लाइन कर दिए जाते हैं.
- इसी तरह से बहुजन समाज पार्टी है. दलित आंदोलन से निकली इस पार्टी को कांशीराम ने एक संगठन के तौर पर शुरू किया था. जिसका पहला मकसद दलित और पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा में लाना और राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिलाना था. लेकिन कांशीराम के बाद BSP की कमान मायावती के पास आई. धीरे धीरे पूरी पार्टी मायावती के इर्द गिर्द सिमट कर रह गई.
- कहने का मतलब ये है कि अब पूरी पार्टी की कमान मायावती के पास ही है. पिछले करीब 2 दशकों से मायावती ही अपनी समझ के हिसाब से फैसले लेती हैं और उनके फैसले पर कोई आवाज नहीं उठा सकता है. आज इस पार्टी की हालत क्या है, ये आप उनकी सीटों की संख्या से समझ सकते हैं. पिछले कुछ वर्षों में दलित और पिछड़ों से जुड़े मुद्दे को लेकर शायद ही इस पार्टी ने कोई आंदोलन चलाया हो.
JDU और कांग्रेस-बसपा में समानता
कुछ यही हाल बिहार की जनता दल यूनाइटेड का भी है. JDU भी एक मकसद के लिए संगठन के तौर पर शुरू हुई पार्टी थी. जिसका मकसद था, बिहार को जंगलराज से मुक्त कराना. जंगलराज यानी, बिहार में RJD के शासनकाल से मुक्त कराना. आज जेडीयू भी एक व्यक्ति पर केंद्रित पार्टी बन गई है. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि ऐसा लगता है कि इस पार्टी में अब केवल एक ही नेता है, जिसको नीतीश कुमार कहते हैं. वही बिहार के सीएम भी हैं और वही जेडीयू के अध्यक्ष भी. दरअसल आज जेडीयू के अध्यक्ष ललन सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है. नए अध्यक्ष के तौर पर नीतीश कुमार को चुना गया है.
- शरद यादव के बाद पहली बार नीतीश कुमार वर्ष 2016 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे.
- इसके बाद वर्ष 2020 में नीतीश कुमार ने अपने सबसे करीबी RCP सिंह को अध्यक्ष बना दिया था.
- 6-7 महीने के अंदर ही नीतीश ने RCP को हटाकर ललन सिंह को जुलाई 2021 में पार्टी अध्यक्ष बनाया.
- ललन सिंह के इस्तीफे के बाद, अब एक बार फिर नीतीश कुमार खुद ही पार्टी अध्यक्ष बन गए हैं.
ऐसा लगता है कि पार्टी अध्यक्ष के तौर पर जेडीयू के पास कोई चेहरा नहीं है. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि नीतीश कुमार के पहली बार अध्यक्ष बनने के बाद से जितने भी लोग अध्यक्ष बने, उनका रिमोट नीतीश कुमार के पास ही होता था. चाहे RCP सिंह हो, या फिर ललन सिंह, दोनों के फैसलों पर आखिरी मुहर नीतीश कुमार की ही रहती थी. कहने के लिए ये दोनों लोग अध्यक्ष थे, लेकिन कई मौकों पर इन लोगों के फैसलों को नीतीश कुमार ने बदल दिया. जहां तक ललन सिंह के इस्तीफे की बात है तो इसको लेकर भी कई तरह की बातें सामने आ रही हैं. जैसे-
- कहा जा रहा है कि ललन सिंह का अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा हो चुका था, इसीलिए उन्होंने इस्तीफा दिया. लेकिन ललन सिंह दोबारा भी अध्यक्ष बनाए जा सकते थे. शरद यादव वर्ष 2006 से 2016 तक जेडीयू के अध्यक्ष रहे.
- ऐसा भी कहा जा रहा है कि ललन सिंह, नीतीश कुमार को खटकने लगे थे. उन्होंने ही ललन सिंह को अध्यक्ष पद से हटाने का आदेश दे दिया गया था. इसीलिए सम्मानजनक विदाई के तौर पर ललन सिंह ने इस्तीफा दिया.
- ये भी कहा जा रहा है कि ललन सिंह और लालू प्रसाद यादव की करीबी पिछले कुछ समय में काफी बढ़ी है. इसीलिए नीतीश कुमार, ललन सिंह को पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर नहीं देखना चाहते थे.
- ललन सिंह पर जेडीयू के अन्य नेता, कई तरह के आरोप भी लगा रहे हैं. जैसे उन पर आरोप है कि वो पार्टी कार्यकर्ताओं की बात नहीं सुनते थे. पार्टी के 10 से ज्यादा सांसद, उनसे नाराज चल रहे थे.
- ये भी कहा जा रहा है कि जेडीयू के विधायकों ने पार्टी अध्यक्ष ललन सिंह की शिकायत नीतीश कुमार से की थी. ललन सिंह पर एक आरोप ये भी लग रहा है कि लालू की तरफ करीबी बढ़ाकर वो सरकार गिराना चाहते थे.
नीतीश ने बना लिया है JDU को अपनी व्यक्तिगत पार्टी
नीतीश कुमार के पार्टी अध्यक्ष बनने को लेकर कई नेता खुश हैं. उनका कहना है कि नीतीश कुमार पार्टी के हित में बेहतर फैसला ले सकते हैं. लेकिन जेडीयू का जो इतिहास है, उससे पता चलता है कि नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी को पिछले कई वर्षों से पूरी तरह से अपने कंट्रोल में ले रखा है. इसका फायदा उन्हें ये हुआ है कि पूरी पार्टी में उनके अलावा कोई भी नेता उभरकर सामने नहीं आया. जो नेता उनके कद के थे, उन्हें धीरे धीरे साइडलाइन कर दिया गया. नीतीश कुमार ने जेडीयू को अपनी व्यक्तिगत पार्टी के तौर पर रखा है. जिसमें पूरी की पूरी पार्टी, उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए चुनावी मैदान में उतरती हैं.
JDU के इतिहास से समझिए नीतीश की महत्वाकांक्षा
नीतीश कुमार की सत्ता में बने रहने वाली महत्वाकांक्षा को बताने के लिए हम आपको जेडीयू के इतिहास के बारे में बताते हैं. वर्ष 1999 में जनता दल दो हिस्सों में बंट गया था. इसमें एक गुट HD देवगौड़ा का था और दूसरा गुट शरद यादव का था. 30 मार्च 2003 को जनता दल के शरद यादव, लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान और समता पार्टी के जॉर्ज फर्नांडिस ने अपनी पार्टियों का विलय, एक पार्टी में कर लिया. इन तीनों ने मिलकर अपनी नई पार्टी का नाम 'जनता दल यूनाइटेड' रखा था. उस वक्त इन तीनों का मकसद बिहार में लालू यादव की सत्ता को उखाड़ना था.
- वर्ष 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में JDU ने बिहार की सत्ता हासिल की.
- इसमें नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया, जो तब JDU के उभरते सितारे थे.
- 2005 के चुनाव में लालू यादव को हटाने के लिए JDU ने बीजेपी की अगुवाई वाले NDA का हाथ थामा था.
- JDU को NDA में शामिल होने का बहुत फायदा भी हुआ. उस दौरान बिहार की जंगलराज वाली छवि सुधरी.
- वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में NDA ने बिहार की 40 में से 32 सीटें जीती थीं.
- वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में इस गठबंधन ने 243 में से 206 सीटें जीती थीं.
नीतीश की प्रधानमंत्री बनने की चाहत ने बिगाड़ी भाजपा से बात
इस हिसाब से देखा जाए तो JDU-BJP गठबंधन में सब ठीक चल रहा था, लेकिन नीतीश कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ज्यादा थी. वो केवल बिहार का मुख्यमंत्री बनकर नहीं रहना चाहते थे. वो केंद्र में अपनी भूमिका चाहते थे. इसके लिए उन्होंने सबसे पहले वर्ष 2014 में कोशिश की. वर्ष 2014 के चुनाव से पहले, जब बीजेपी की ओर से पीएम पद का चेहरा नरेंद्र मोदी को बनाया गया था, तब नीतीश कुमार ने बीजेपी को अल्टीमेटम दिया था. उन्होंने कहा था कि अगर नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट बनाया गया, तो वो बीजेपी के साथ संबंध तोड़ लेंगे. नीतीश कुमार ने इसकी वजह गुजरात दंगों को बताया था. हालांकि यहां आपका ये जानना भी जरूरी है कि नीतीश कुमार ने वर्ष 2002 के दंगों के बाद भी बीजेपी का हाथ थामे रखा था.
नीतीश को सत्ता के लिए सबका साथ मंजूर
- नीतीश कुमार ने वर्ष 2005 से लेकर 2014 तक बिहार में बीजेपी की मदद से सरकार चलाई.
- विरोध के लिए नीतीश ने 10 साल यानी 2014 के लोकसभा चुनाव तक का इंतजार किया.
- 2014 में नीतीश को 2002 दंगों की याद आई. इसका बहाना बनाकर, नरेंद्र मोदी का विरोध शुरू कर दिया.
- नीतीश की इस राजनीतिक महत्वाकांक्षा की कीमत उनकी पार्टी ने 2014 लोकसभा चुनाव में चुकाई.
- 2014 के लोकसभा चुनाव में JDU के सांसदों की संख्या 20 से घटकर महज 2 ही रह गई थी.
- 2015 का बिहार चुनाव नीतीश कुमार ने धुर विरोधी पार्टियों कांग्रेस-RJD के साथ महागठबंधन बनाकर लड़ा.
- नीतीश कुमार ने महागठबंधन कर चुनाव जीता, लेकिन दो साल के अंदर-अंदर ही पलटी मार दी.
- इस बार नीतीश ने महागठबंधन छोड़कर, फिर से बीजेपी का दामन थाम लिया.
- महागठबंधन छोड़ने का बहाना नीतीश ने लालू यादव के भ्रष्टाचार को बताया, जिसके आरोप दो दशक पुराने थे.
- 2019 के लोकसभा चुनाव में JDU फिर से NDA से मिलकर लड़ी. नतीजतन फिर से उसकी सीटें 2 से बढ़कर 16 हो गई.
- 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव भी नीतीश ने NDA के साथ मिलकर लड़ा और इसमें जीत हासिल की.
- 2022 में नीतीश ने फिर पलटी मार दी. फिर से NDA छोड़कर उन्होंने RJD और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली.
फिर हिलोरे ले रही है नीतीश के मन में केंद्र सरकार की सत्ता
सत्ता में बने रहने की महत्वाकांक्षा नीतीश कुमार को किसी भी पाले में ले जाती है, और मौका मिलते ही वो विरोधी पार्टियों के साथ मिलकर भी सरकार बना लेते हैं. नीतीश कुमार की सत्ता वाली महत्वाकांक्षा केवल बिहार तक सीमित नहीं रही है. उन्होंने जिस तरह केंद्र में अपनी भूमिका बनाने की कोशिश वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में की थी. कुछ उसी तरह की कोशिश इस बार भी वो बीजेपी सरकार के विरोध में रहकर कर रहे हैं. इस बार वो बीजेपी के विरोध में, खुद को INDI गठबंधन का चेहरा बनाना चाहते हैं. लेकिन नीतीश कुमार की ये वाली महत्वाकांक्षा फिलहाल पूरी होती नहीं दिख रही है.
अपनी महत्वाकांक्षा के लिए जनादेश का मजाक उड़ाने की आदत
नीतीश कुमार ने कई बार जनता के जनादेश का अपमान किया है. अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने के लिए वो JDU पर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह शासन कर रहे है, जिसमें वो विरोधियों का साथ लेते और छोड़ते रहे हैं.
- वर्ष 2010 में उन्हें बिहार की जनता ने बीजेपी के साथ सरकार चलाने का आदेश दिया था. लेकिन 2013 में उन्होंने जनता से धोखा करते हुए, अपने विरोधी RJD के साथ सरकार बना ली.
- इसी तरह से 2015 में नीतीश कुमार को RJD के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिला था, लेकिन इस बार भी उन्होंने जनता का अपमान किया और बीजेपी के साथ दोबारा सरकार बना ली.
- वर्ष 2020 में बिहार की जनता ने उन्हें बीजेपी के साथ सरकार बनाने का आदेश दिया, लेकिन 2022 में वो फिर से पलट गए. उन्होंने बीजेपी छोड़कर, आरजेडी और कांग्रेस के साथ सरकार बना ली.
इस हिसाब से देखें तो अपने फायदे के लिए नीतीश कुमार ने हर वो कदम उठाया, जो उठाया जा सकता है. ना उन्होंने जनता के विचारों की परवाह की, ना ही उन्होंने गठबंधन धर्म की परवाह की और ना ही उन्होंने पार्टी नेताओं या संगठन के विचारों की परवाह की. एक समय ऐसा था जब इस पार्टी में जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव, केसी त्यागी, उपेंद्र कुशवाह जैसे बड़े नेता हुआ करते थे. लेकिन नीतीश कुमार ने JDU को एक व्यक्ति के लिए काम करने वाली पार्टी बना दिया. जिससे कई बड़े नेता साइडलाइन होते गए.
पिछले 10 वर्षों के शासनकाल में JDU की राजनीति का एक ही मकसद है, नीतीश कुमार को किसी भी कीमत पर बिहार के सीएम पद की कुर्सी पर बैठाना. इसके लिए चाहे जनादेश को धोखा देना पड़े, या फिर गठबंधन वाली पार्टियों का साथ छोड़ना पड़े, या फिर अपनी ही पार्टी के नेता साइडलाइन करने पड़ें. हर हाल में पार्टी अपने सुप्रीम को कुर्सी दिलाती नजर आती है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि हालिया उथल पुथल भी नीतीश कुमार की इस राजनीति का ही दांव है.
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