Electoral Bond Verdict: क्या होता है इलेक्टोरल बॉन्ड, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रिजर्व रखा फैसला और चुनाव आयोग से मांगा हिसाब

कुलदीप पंवार | Updated:Nov 02, 2023, 11:06 PM IST

Representational Photo

What is Electoral Bond: इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का पारदर्शी हिसाब-किताब रखने के लिए की गई थी, लेकिन इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.

डीएनए हिंदी: Supreme Court News- सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राजनीतिक दलों को चंदा देने वाली इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के खिलाफ चल रही सुनवाई में फैसला सुरक्षित रख लिया है. सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय चुनाव आयोग से राजनीतिक दलों को 30 सितंबर तक इस बॉन्ड के जरिये मिले चंदे का पूरा ब्योरा दो सप्ताह के अंदर सीलबंद लिफाफे में दाखिल करने के लिए कहा है. चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने यह आदेश उन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया गया है, जिसमें इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को चुनौती दी गई है. आइए आपको बताते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड व्यवस्था क्या है और इसे क्यों चुनौती दी गई है? सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार ने इस योजना के पक्ष में क्या तर्क दिए हैं और विपक्ष ने क्या बात अदालत से कही है?

पहले जान लीजिए क्या होता है इलेक्टोरल बॉन्ड

केंद्र सरकार ने 29 जनवरी, 2018 को कानून के जरिये इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को लागू किया था. इसके तहत सरकार एक तरह का फाइनेंशियल बॉन्ड जारी करती है, जिसे राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले व्यक्ति या कंपनी को भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीदना होता है. इसके बाद वह यह बॉन्ड किसी भी राजनीतिक दल को सौंपकर चंदा दे सकता है. इसके लिए उसे अपना नाम जाहिर करने की जरूरत नहीं होती है यानी चंदा देने वाला गुमनाम रह सकता है. बैंक की तरफ से इलेक्टोरल बॉन्ड 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये और 1 करोड़ रुपये मूल्य के जारी किए जाते हैं. ये बॉन्ड महज 15 दिन के लिए ही जारी किए जाते हैं यानी इसी दौरान राजनीतिक दल को इनका भुगतान लेना होगा. ये बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीने में ही खरीद के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं. 

इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने की जरूरी योग्यताएं

किन दलों को दिया जा सकता है इससे चंदा

इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये केवल उसी राजनीतिक दल को दान दिया जा सकता है, जो जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत रजिस्टर्ड हों. साथ ही उस राजनीतिक दल ने लोकसभा या विधानसभा के लिए हुए आखिरी चुनाव में कुल वोट का कम से कम एक फीसदी हिस्सा हासिल किया हो.

क्यों दी गई है इस व्यवस्था को चुनौती?

इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था को भले ही केंद्र सरकार काले धन की राजनीति में एंट्री रोकने वाली बताती है, लेकिन इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने वालों का कहना है कि इससे काला धन और ज्यादा बढ़ गया है. इसका कारण वे चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखने की व्यवस्था को बताते हैं. साल 2017 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और कॉमन कॉज NGO ने इसके खिलाफ संयुक्त याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी. साल 2018 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी माकपा ने इसके खिलाफ याचिका दाखिल की थी. इसके अलावा डॉक्टर जया ठाकुर ने भी याचिका दाखिल कर रखी है. करीब 8 साल से इस मामले में सुनवाई चल रही है. 

याचिका दाखिल करने वालों के तर्क

'सत्तारूढ़ पार्टी को घूस देने का जरिया बनी'

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने इस योजना में सत्ताधारी पार्टी को मिले सबसे ज्यादा चंदे पर सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड से 99% चंदा सत्तारूढ़ दलों को मिला है. साल 2016-17 से 2021-22 के बीच 7 राष्ट्रीय और 24 क्षेत्रीय पार्टियों को इलेक्टरोल बांड के जरिए कुल 9188.35 करोड़ का चंदा मिला है. इसमें सत्ताधारी बीजेपी का चंदा 5,271.9751 करोड़ रुपये है. कांग्रेस को 952.2955 करोड़, AITC को 767.8876, NCP को 63.75 करोड़ रुपये का चंदा मिला है. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इससे साफ दिखता है कि ये सत्तारूढ़ दलों को घूस देने का जरिया बन गया है. चंदा देने वाले सरकारी नीतियों से फैसलों तक को प्रभावित करते हैं, जो लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है.

सुप्रीम कोर्ट ने चंदे का ब्योरा मांगते हुए कही है ये बात

चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने चुनाव आयोग से चंदा देने वालों का ब्योरा दाखिल करने को कहा है. चीफ जस्टिस ने कहा कि हमें स्कीम के पीछे सरकार की मंशा पर संदेह नहीं है. हम कैश के जरिये चंदा देने की पुरानी व्यवस्था नहीं लौटाना चाहते, लेकिन मौजूदा स्कीम की खामियों को दुरुस्त करना हमारा मकसद है.

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