वियतनाम और चीन के बीच जारी विवाद आए दिन सुर्खियों में रहता है. चीन अपने विस्तारवादी नीतियों की वजह से दुनियाभर में बदनाम है. चीन की सीमा से सटे हर देश आशंकित रहते हैं कि कब उनके क्षेत्र को चीन अपना क्षेत्र न घोषित कर दे. तिब्बत के हश्र से पूरी दुनिया वाकिफ है. हवा से लेकर समुद्र तक, चीन अपने पड़ोसी देशों के लिए लगातार चुनौती बना हुआ है.
वियतनाम चीन के साथ कूटनीतिक संवाद रखता है लेकिन अपनी स्वतंत्रता की मांग करता रहता है. वियतनाम चाहता है कि दुनिया उसे एक अलग देश के तौर पर देखे, उसकी अलग पहचान हो जो चीन से स्वतंत्र हो. वहीं चीन का मानना है कि ताइवान उसी का हिस्सा बना रहेगा.
क्या है चीन-वियतनाम विवाद का इतिहास?
वियतनाम और चीन के बीच विवाद होने की कहानी भी दिलचस्प है. ताइवान नीदरलैंड का उपनिवेश एक अरसे तक रहा. 1642 से लेकर 1661 तक, नीदरलैंड्स का शासन चीन पर बना रहा. नीदरलैंड के शासन के बाद चीन के चिंग राजवंश ने 1863 से 1895 तक ताइवान पर आधिपत्य जमाए रखा. साल 1895 में जापान और चीन के बीच एक लड़ाई हुई. इस लड़ाई में जापान ने चीन को करारी हार दी. यही साल था जब ताइवान पर चीन नहीं, जापान का कब्जा हो गया.
15 अगस्त 1945 को जापान की हार हुई. जापान को मित्र राष्ट्रों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा. अमेरिका और ब्रिटेन ने फैसला किया कि ताइवान की सत्ता, चीन को सौंपने का सही वक्त यही है. चीन के मिलिट्री कमांडर जैंग काई शेक को दोनों राष्ट्रों ने ताइवान की सत्ता सौंप दी. चैंग ही जिन्होंने चीन के अधिकांश हिस्सों को अपने नियंत्रण में लिया था. यह वही दौर था जब चीन में कम्युनिस्ट सेना मजबूत हो रही थी. माओत्से तुंग के नेतृत्व में चैंग काई शेक को कम्युनिस्ट सेना ने करारी हार दी. चीन से भागना पड़ा लेकिन वियतनाम में उन्होंने चीन की दाल नहीं गलने दी.
वियताम स्वायत्तता नहीं, स्वतंत्रता का पक्षधर!
चीन और ताइवान के बीच युद्ध जैसी स्थितियां एक लंबे अरसे तक रहीं. 17 फरवरी 1979 को स्थितियां इतनी खराब हो गई थीं कि चीनी सैनिक हजारों की संख्या में ताइवान की ओर कूच कर गए थे. मार्च 1979 तक, स्थितियां सामान्य होने लगी थीं क्योंकि चीन युद्ध का इरादा टाल रहा था. 1980 तक दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य होने लगे. बेहतर हो रहे रिश्तों को देखकर चीन ने ताइवान को प्रस्ताव दिया कि 'वन कंट्री टू सिस्टम' की पॉलिसी के तहत अगर वियतनाम खुद को चीन का हिस्सा मान लेता है तो उसे स्वायत्तता दे दी जाएगी. ताइवान की चाहत स्वतंत्रता थी, स्वायत्तता नहीं.
वक्त बीतता रहा. वियतनाम के नए राष्ट्रपति चेन श्वान बियान 2000 में चुने गए. उन्होंने ऐलान कर दिया कि ताइवन स्वतंत्र है, चीन का हिस्सा नहीं. विस्तारवादी चीन को ताइवान का यह ऐलान रास नहीं आया. चीन ने कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की. ताइवान ने जवाबी प्रतिक्रिया दी. ऐसा नहीं था कि 2000 के बाद कभी चीन और ताइवान के रिश्ते संभले नहीं. ताइवान ने लगातार चीनी डिप्लोमेट्स के साथ संवाद कायम रखा लेकिन यह भी जता दिया कि ताइवान, चीन की जागीर नहीं है.
कब ताइवान को लेकर अमेरिका ने चीन को दी चेतावनी?
डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में ऐसे कई मौके आए, जब चीन और अमेरिका में ताइवान को लेकर ठनी. हालांकि यही तनाव 1996 में भी देखने को मिला. 1996 में ही ताइवान के राष्ट्रपति चुनावों में दखल देने के लिए चीन ने कई मिसाइल परीक्षण किए. चीन, ताइवान पर स्पष्ट रूप से दबाव बनाना चाहता था. अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्विंटन को यह बात नागवार गुजरी. अमेरिका ने ताइवान की सुरक्षा के लिए बड़े जंगी जहाजों को उतार दिया था. उन्होंने एशिया में अमेरिकी सैन्य शक्ति का बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किया. अमेरिकी सैन्य प्रदर्शन का असर यह हुआ कि चीन को साफ तौर पर यह संदेश चला गया कि वियतनाम को लेकर चीन गंभीर है.
क्या अमेरिका के दम पर चीन को चुनौती देता है ताइवान?
पूरी दुनिया चीन की वन चाइना पॉलिसी को मानने के लिए मजबूर है. अमेरिका विश्व शक्ति है. चीन और अमेरिका के बीच जारी तनाव भी जगजाहिर है. ऐसी स्थिति में अमेरिका ही ऐसा देश है जो खुले तौर पर ताइवान को समर्थन देता है. अमेरिका और चीन के बीच रिश्ते हमेशा ठीक नहीं रहे. साल 1979 में तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टन को लगा कि चीन के साथ रिश्ते बेहतर करने चाहिए. उन्होंने चीन को अपनाया लेकिन ताइवान को छोड़ दिया. ताइवान के साथ अमेरिका का सारे कूटनितिक रिश्ते, उन्होंने तोड़ दिए. हालांकि अपने ताइवान रिलेशन एक्ट में अमेरिकी संसद ने यह तय किसा था कि अमेरिका ताइवान को हथियार देगा. ताइवान पर हमला होने की दशा में एक्शन भी लिया जा सकेगा. अमेरिका ने बाद में अपनी प्राथमिकताएं बदल दीं. ताइवान के साथ भी अमेरिका के अच्छे रिश्ते रहे, ताइवान के साथ भी. अमेरिका ने संतुलन का विकल्प चुना.
कैसे हैं अब अमेरिका-चीन के रिश्ते, ताइवान पर कैसा है रुख?
डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन दोनों का रुख ताइवान को लेकर एक सा है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग जहां ताइवान को चीन का हिस्सा बनाने की कड़ी वकालत कर रहे हैं वहीं अमेरिका लगातार क्षेत्रीय शांति और स्थितरता को कमजोर करने का आरोप चीन पर लगाता रहा है. अमेरिका ताइवान को सैन्य ट्रेनिंग भी देता रहा है जिसका चीन विरोध करता रहा है. ताइवान की तरफ से भी चीन को धमकी दी जाती है कि उसकी सीमाओं में घुसने का दुस्साहस चीन न करे. ऐसे में जाहिर तौर पर कहा जा सकता है कि ताइवान, चीन से टकराता ही इसीलिए है कि उसके पीछे दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति चीन का हाथ है.