Lok Sabha Election Results में टूट गया 'माया'जाल, UP में 0 पर आउट हुई BSP

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चुपके से लेकिन दमदार प्रजेंस रखने वाली बहुजन समाज पार्टी बुरे दौर से गुजर रही है. वह इस लोकसभा चुनाव में कहीं से एक भी सीट नहीं जीत पाई है. अगर बीएसपी के राजनीतिक करियर पर नजर डालें तो यह 1989 के बाद का सबसे खराब प्रदर्शन रहा है.  

मायावती अपने हाथी के साथ हमेशा ही अलग ही चलती रही हैं और चुपचाप से अपनी धमक भी दिखाती रही हैं. लेकिन 18वीं लोकसभा चुनाव के दौरान उनको अपनी अलग थलग रहने वाली चाल भारी पड़ गई है. यही वजह है कि पिछले 30 साल के अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है. दलितों और मुस्लिमों की बात करने वाली बसपा अपना जनाधार तेजी से खोती नजर आ रही है. अपनी पार्टी की इस परफॉर्मेंस के लिए मायावती का गुस्सा मुस्लिम प्रत्याशियों पर फूटा है. वह कहती हैं, 'मुस्लिम समाज को आगे पार्टी सोच समझकर देगी मौका.'  
 
बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने लोकसभा चुनाव में सबसे खराब रहे प्रदर्शन पर कहा है, 'मुस्लिम समाज बसपा का अंग रहा है लेकिन आगे हम इनको सोच समझकर मौका देंगे.'

बसपा मुखिया मायावती ने बुधवार को एक जारी बयान में कहा, 'मुस्लिम समाज बसपा का अंग रहा है. लेकिन पिछले कई चुनावों में उचित प्रतिनिधित्व देने के बावजूद भी बसपा को ठीक से समझ नहीं पा रहा है. अब आगे सोच समझकर पार्टी इन्हें मौका देगी. ताकि पार्टी को भविष्य में इस बार की तरह भयंकर नुकसान न हो.'

बसपा सुप्रीमो ने आगे कहा, 'लोकसभा चुनाव का जो भी नतीजा आया है, वह लोगों के सामने है और उन्हें ही, अब देश के लोकतंत्र, संविधान और देश हित के बारे में सोचना और फैसला करना है कि यह जो चुनाव परिणाम आया है, उसका आगे उन सबके जीवन पर क्या फर्क (असर) पड़ने वाला है और उनका अपना भविष्य कितना शान्त, व सुरक्षित रह पाएगा. इस चुनाव में बसपा का अकेले ही, पार्टी से जुड़े लोगों के बलबूते पर बेहतर रिजल्ट के लिए हर मुमकिन प्रयास किया गया, जिसमें खासकर दलित वर्ग से मेरी खुद की जाति के लोगों ने वोट देकर जो अपनी अहम मिशनरी भूमिका निभाई है, मैं पूरे तहेदिल से उनका आभार जताती हूं.'

हालांकि राजनीति के जानकारों का कहना है कि INDIA और NDA से दूरी बनाना और अकेले चुनाव उतरना बसपा को भारी पड़ गया है, शायद यही वजह है कि पार्टी अबतक के सबसे खराब दौर से गुजर रही है. एक भी सीट न जीत पाना एक बात है पार्टी किसी भी सीट पर दूसरे नंबर पर  भी नहीं रही है.

जानकारों का यह भी कहना है कि पार्टी का ये प्रदर्शन 1989 के प्रदर्शन से भी खराब है, जब वह पहला चुनाव लड़ी थी. तब बसपा ने 9.90% वोट हासिल किए थे और दो सीटें भी जीती थीं. इस चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली और वोट प्रतिशत गिरकर 9.14% रह गया. 


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 नहीं भांप सकी बसपा अपने जमीनी हालात

18वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के दौरान देश में दो फाड़ साफ साफ दिखा था. पूरा देश INDIA और NDA के बीच ही रहा था. बसपा का अकेले  चुनाव लड़ना और किसी भी गठबंधन से नहीं जुड़ना पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हुआ और वह जमीनी हकीकत को समझने में नाकाम रही है.

चुनाव से ठीक पहले पार्टी के सभी पदों से भतीजे आकाश को हटाना भी मायावती के लिए घातक साबित हुआ. बसपा अकेले मैदान में उतरने का निर्णय 2014 में भी ले चुकी थी तब भी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी जबकि 2019 में बुआ भतीजे की जोड़ी ने कमाल किया था और पार्टी को 10 सीटें भी मिली थीं.  

बसपा प्रमुख मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को इस चुनाव में जोर-शोर से उतारा था और वो भी युवाओं के मुद्दे उठा रहे थे. उनसे युवा जुड़ भी रहे थे, लेकिन बीच चुनाव में ही उनको पद से हटा दिया. इससे युवाओं में यह संदेश गया कि पार्टी भाजपा के दबाव में काम कर रही है. इससे उसका अपना कोर वोटर भी छिटक गया.

 हरदोई में 27 अप्रैल को  आकास पर FIR हुई. उसके बाद उनकी रैलियां बंद कर दी गईं. बाद में उनको 8 मई को मायावती ने अपने उत्तराधिकारी और को-ऑर्डिनेटर पद से भी हटा दिया. मायावती के इस फैसले का असर चुनावी नतीजों पर साफ दिख रहा है. पहले तीन चरणों के लिए आकाश ने जनसभाएं कीं और 26 सीटों के लिए चुनाव हुआ. 

बता दें कि इन सीटों में से 19 (73%) ऐसी सीटे हैं, जिन पर बसपा प्रत्याशियों को 50 हजार से अधिक और 6 (23%) पर एक लाख से अधिक वोट मिले हैं. बाद के चार चरणों में 64 सीटों पर चुनाव हुआ. इनमें से 25 (39%) सीटों पर 50 हजार से अधिक और 11 सीटों (17%) पर ही एक लाख से अधिक वोट मिले. 

मायावती का यह फैसला वोटरों को नहीं भाया और वे दूसरी तरफ शिफ्ट होते गए. 

पार्टी का बार बार प्रत्याशियों का बदलना भी मायावती के और पार्टी के खिलाफ गया वहीं पार्टी के बड़े नेताओं को किनारे लगाना भी जनाधार खोने के लिए काफी था.  आकाश के अलावा पार्टी से अपने सबसे पुराने और विश्वासी नेता सतीश चंद्र मिश्र को पहले ही किनारे कर दिया था. अपने मौजूदा सांसदों पर पार्टी ने भरोसा नहीं किया वहीं इमरान मसूद को पार्टी में लिया, लेकिन टिकट न मिलने के कारण उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया.


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 नहीं दिखा दम

चुनाव के दौरान मायावती ने उत्तर प्रदेश में 28 सभाएं कीं जबकि आकाश ने 17 सभाएं कीं थी.  सतीश मिश्र स्टार प्रचारक की लिस्ट में शामिल थे, लेकिन उनसे प्रचार नहीं करवाया. बता दें सोशल मीडिया के युग में पार्टी कहीं नजर नहीं आई. पार्टी के प्रवक्ताओं को भी हटा दिया गया. 
पार्टी में इन खामियों के साथ साथ टिकट बंटवारे में भी काफी कन्फ्यूजन देखने को मिला.  अमूमन देखा जाता रहा है कि पार्टी चुनाव की तारीख आने से पहले ही अपने प्रत्याशियों के नाम डिक्लियर कर देती थी लेकिन इस चुनाव में आखिर आखिर तक प्रत्याशियों को टिकट आवंटन के बाद भी बदला जाता रहा. नोएडा, मुरादाबाद, कन्नौज, बंदायु, रामपुर, मेरठ जैसी सीटों पर बार बार प्रत्याशी बदले गए.  

यह दूसरी बार है जब बहुजन समाज पार्टी का खाता नहीं खुला है पहली बार  2014 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी खाता नहीं खोल पाई थी. मोदी लहर में यूपी की 80 में से 73 सीटों पर एनडीए को जीत मिली थी. वहीं, सपा 5 और कांग्रेस 2 सीटों पर जीती थी. तब भी पार्टी का वोट शेयर 19.77 फीसदी था.

पार्टी का पहले चुनाव से अब तक कैसा रहा है जनाधार 
1989 में 2 सीटें मिलीं, वोट परसेंटेज 9.90% रहा
1991 में 1 सीट जीती ,वोट परसेंटेज 8.70% रहा
1996 में  6 सीटें,वोट परसेंटेज 20%रहा
1998में 4 सीटें,वोट परसेंटेज 20.90%रहा
1999 में14 सीटें,वोट परसेंटेज 22.80%रहा
2004 में10 सीटें,वोट परसेंटेज 22.17%रहा
2009में 20सीटें,वोट परसेंटेज 27.42%रहा
2014 में0सीटें,वोट परसेंटेज 19.77%रहा
2019में 10 सीटें,वोट परसेंटेज19.43%रहा
2024 में 0 सीट,वोट परसेंटेज 9.15%रहा

 2017 के विधानसभा चुनावों में जब उसने 19 सीटें जीतीं, तो उसे 22.23 फीसदी वोट मिले थे. हालांकि हाथी के पांव तो  यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में ही  उखड़ गए थे. बसपा ने प्रदेश की 403 सीटों में से केवल 1 सीट पर जीत हासिल की थी.  और इसका वोट शेयर 12.9 फीसदी था, जो यूपी में जाटव वोट बैंक के आसपास था. 

उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 21 फीसदी के लगभग है और ऐसा माना जाता रहा है कि मायावती का कैडर इधर उधर नहीं जाता है.  2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और बुआ भतीजे पर कई मीम्स भी बने थे. इस चुनाव में  अखिलेश यादव ने बुआ मायावती से आगे बढ़कर हाथ मिलाया था तब पार्टी को 10 सीटें तो मिली थीं.

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