Lok Sabha Elections 2024: लोकसभा चुनाव का रण अब और ज्यादा तेज हो गया है. सभी पार्टियों ने अपनी-अपनी गोटियां सजानी शुरू कर दी हैं. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने सबसे पहले अपने उम्मीदवारों की घोषणा करते हुए शतरंज की बिसात बिछाई थी, जिसका जवाब भाजपा ने 80 में से 51 सीटों पर उम्मीदवार घोषित करके दे दिया है. अब सपा का दामन छोड़कर BJP की दोस्त बनने वाली RLD ने भी अपने हिस्से में आई दो लोकसभा सीटों पर सोमवार को उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं.
बिजनौर सीट पर गुर्जर नेता चंदन चौहान को उतारा गया है, जो फिलहाल रालोद विधायक हैं. लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाला फैसला चौधरी चरण सिंह (Chaudhary Charan Singh) की परंपरागत बागपत लोकसभा सीट पर हुआ है, जहां से रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) ने खुद या परिवार के किसी मेंबर को उतारने के बजाय पार्टी के पुराने वफादार डॉ. राजकुमार सांगवान (Rajkumar Sangwan) को मौका दिया है. पिछली दो बार मोदी लहर में भाजपा के सामने रालोद अपना यह किला नहीं बचा पाया था, लेकिन इस बार भाजपा के भी साथ होने के बावजूद जयंत चौधरी के खुद चुनाव नहीं लड़ने से कई सवाल खड़े हो गए हैं.
1936 से बागपत इलाका है चरण सिंह परिवार का गढ़
बागपत इलाके से चौधरी चरण सिंह परिवार का जुड़ाव 1936 में यानी आजादी से भी पहले शुरू हुआ था, जब देश में पहली बार ब्रिटिश सरकार ने संसदीय चुनाव प्रणाली की शुरुआत की थी. चौधरी चरण सिंह बागपत सीट से विधायक चुने गए थे. तब से यहां चरण सिंह परिवार या उनके किसी समर्थक को ही जीत मिलती रही है. हालांकि 2014 में चौधरी अजीत सिंह (Chaudhary Ajit Singh) मोदी लहर में यह सीट भाजपा के डॉ. सत्यपाल सिंह (Dr, Satyapal Singh) से गंवा बैठे थे. इसके बाल लोकसभा चुनाव 2019 में जयंत चौधरी खुद यहां उतरे थे. उन्हें भी इस सीट पर सत्यपाल सिंह से मामूली अंतर से हार मिली थी. इस बार भाजपा और रालोद के एकसाथ होने से वोट बंटने का कोई खतरा नहीं है यानी जीत की राह में बाधा नहीं है. इसके बावजूद जयंत चौधरी का खुद चुनाव लड़ने के लिए नहीं उतरना एक खास सियासी रणनीति माना जा रहा है.
आइए आपको बताते हैं जयंत चौधरी के फैसले के पीछे के तीन सियासी कारण-
पहला कारण: राज्यसभा सीट को भी अपने पास बनाए रखना
जयंत चौधरी फिलहाल खुद राज्यसभा सदस्य हैं. यह सीट उन्होंने पिछले साल समाजवादी पार्टी की मदद से जीती थी. हालांकि रालोद सूत्रों का कहना है कि भाजपा के साथ डील में पार्टी को दो लोकसभा और एक राज्यसभा सीट मिली है. जयंत चौधरी यदि लोकसभा चुनाव लड़ते तो उन्हें जीत के बाद राज्यसभा सीट से इस्तीफा देना पड़ेगा. यह संभव है कि पहले रालोद को विलय का प्रस्ताव देने वाली भाजपा पर फिलहाल जयंत चौधरी पूरा यकीन नहीं कर पा रहे हों. ऐसे में फिलहाल राज्यसभा सीट को अपने पास बनाए रखकर इस रिस्क में लाभ की गारंटी रखना चाहते हों.
दूसरा कारण: पुराने वफादार को उतारकर पार्टी के अंदर दिया संदेश
जयंत चौधरी के अपनी बजाय डॉ. राजकुमार सांगवान जैसे नेता को बागपत सीट से उतारने का एक और खास संदेश भी है. यह संदेश पार्टी के अंदर छोटे कार्यकर्ताओं के लिए है कि पार्टी नेतृत्व के लिए वफादारी ही सर्वोपरि है. दरअसल राजकुमार सांगवान शुरुआत से ही रालोद नेता है. चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में पश्चिमी यूपी के सबसे बड़े कॉलेज मेरठ कॉलेज से छात्र नेता के तौर पर सियासी करियर शुरू करने वाले सांगवान इसके बाद चौधरी अजित सिंह और अब जयंत चौधरी के नेतृत्व में रालोद में पर्दे के पीछे संगठन का खास हिस्सा बने रहे हैं.
मुलायम सिंह यादव जैसे नेता की तरफ से खुद सपा में आने का ऑफर मिलने पर भी सांगवान ने पाला नहीं बदला. इस दौरान उनसे सियासत सीखने वाले चेले-चपाटे भाजपा, सपा और बसपा में बड़े ओहदे हासिल करते रहे, लेकिन सांगवान रालोद में ही टिके रहे. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में डॉ. सांगवान को सिवालखास सीट से टिकट मिलना तय हुआ था, लेकिन सपा के दबाव में जयंत चौधरी ने अपने सिंबल पर अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के नेता गुलाम मोहम्मद को सांगवान के बजाय उतार दिया था. इससे रालोद का कोर कार्यकर्ता नाराज था. अब जयंत चौधरी ने सांगवान को रालोद की सबसे खास सीट से उतारकर वफादार कार्यकर्ताओं को सर्वोपरि मानने का भी संदेश दे दिया है. इससे रालोद कार्यकर्ताओं का जोश निश्चित तौर पर बढ़ेगा और वे एकजुट होंगे.
तीसरा कारण: स्थानीय भाजपा नेताओं पर नहीं विश्वास?
भले ही चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न मिलने के दांव के बाद रालोद और भाजपा की दोस्ती हो गई है, लेकिन इसके चलते भाजपा को बागपत में अपनी दो बार से जीती जा रही सीट छोड़नी पड़ी है. डॉ. सत्यपाल सिंह दो बार से यहां सांसद रहे हैं. उनका टिकट कट गया है.भले ही स्थानीय स्तर पर मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह दो बार सांसद रहने के बावजूद सथानीय भाजपा नेताओं के बीच बहुत ज्यादा जगह इन 10 साल में नहीं बना पाए. इसके बावजूद स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता और नेता इस सीट को रालोद को देने का दबे-छिपे शब्दों में विरोध कर रहे थे.
माना जा रहा है कि जयंत चौधरी को भी इस बात का अहसास है. हो सकता है कि इस कारण उन्हें भाजपा नेताओं की तरफ से भीतरघात होने का डर सता रहा हो, जो इस सीट पर रालोद के समीकरण भी बिगाड़ सकता है और परंपरागत सीट पर भी उसे भीतरघात के कारण हार मिल सकती है. यदि जयंत चौधरी के चुनाव लड़ने पर ऐसा होता तो पार्टी के लिए आगे गलत सियासी संदेश जा सकता था. माना जा रहा है कि इस कारण भी जयंत ने अपनी जगह पार्टी के एक नेता को इस सीट पर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए उतारा है.
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