डीएनए हिंदी: Jharkhand Mukti Morcha Bribery Scandal- सदन के अंदर किसी मसले पर वोटिंग या खास भाषण देने के लिए किसी सांसद या विधायक का रिश्वत लेना अपराध है या नहीं, इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट 25 साल बाद एक बार फिर करने के लिए तैयार हो गया है. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही साल 1998 के उस फैसले का परीक्षण करने की सहमति दे दी है, जिसमें पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को समर्थन देने के बदले रिश्वत लेने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के तीन सांसदों की किस्मत तय की गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को तय किया कि 25 साल पुराने इस फैसले का परीक्षण सात जजों की संविधान पीठ करेगी ताकि इस पर किसी भी तरह की संशय की स्थिति बाकी नहीं रहे. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लोकसभा चुनाव 2024 (Lok Sabha Elections 2024) से ठीक पहले कांग्रेस के लिए परेशानी खड़ी करने वाला माना जा रहा है.
क्या था 1998 में दिया गया फैसला
सदन के अंदर रिश्वत लेने के मामले में दोषी पाए जाने पर किसी सांसद या विधायक को सजा मिलने से इम्युनिटी मिली हुई है या नहीं? इस सवाल का परीक्षण करते समय सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने साल 1998 में 3-2 से बंटा फैसला दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि सांसदों और विधायकों को पहले भी ऐसे मामलों में अभियोजन से बचाया गया था, क्योंकि ऐसी रिश्वत संसदीय वोट से जुड़ी हुई थी और इसे लेकर संबंधित संवैधानिक प्रावधानों के तहत सांसदों/विधायकों को संसदीय इम्युनिटी का संरक्षण मिला हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 105 (2) का हवाला दिया था, जिसके तहत संसद के किसी भी सदस्य को सदन में दिए गए किसी भी वोट के संबंध में अदालती कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है. इस आधार पर ही सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के खिलाफ केस को खारिज कर दिया था. राज्य विधानसभाओं के विधायकों के लिए भी यह प्रावधान अनुच्छेद 194(2) के तहत किया गया है.
रिश्वत वाले वोट से बची थी 1993 में कांग्रेस सरकार
दरअसल यह पूरा मामला साल 1993 का है, जब कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में केंद्र में अल्पमत की सरकार बनाई थी. सदन में 28 जुलाई को नरसिम्हा राव की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई थी. इस वोटिंग में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) और जनता दल (Janta Dal) के 10 सांसदों ने अपने वोट नरसिम्हा राव सरकार के पक्ष में डाले थे. इसके लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया शिबू सोरेन और तीन सांसदों सूरज मंडल, साइमन मरांडी और शैलेन्द्र महतो को रिश्वत के रूप में करोड़ों रुपये दिए जाने का आरोप लगा था. इस आरोप की जांच CBI ने की थी. सीबीआई ने जांच के बाद इन सांसदों के खिलाफ आपराधिक केस दाखिल किया था, जिसमें कहा गया था कि सांसदों ने रिश्वत लेने की बात स्वीकार की है.
मोदी सरकार कर चुकी है 1998 के फैसले का सुप्रीम कोर्ट में समर्थन
भले ही 1998 का फैसला कांग्रेस सरकार के पक्ष में दी गई रिश्वत से जुड़ा था, लेकिन मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली NDA सरकार भी इसका समर्थन कर चुकी है. सुप्रीम कोर्ट में 5 जजों की संविधान पीठ के सामने केंद्र सरकार की तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल (SG) तुषार मेहता ने कहा था कि सरकार 1998 के फैसले को संवैधानिक रूप से सही मानती है. सॉलिसिटर जनरल ने कहा था कि 1998 के फैसले में पांच जजों की बेंच के तीन जजों ने बहुमत से सांसदों/विधायकों को संविधान में मिली हुई छूट को स्वीकार किया था. सरकार इस फैसले के पुनर्विचार की कोई जरूरत महसूस नहीं कर रही है. उन्होंने कहा था कि हम (सरकार) नरसिम्हा राव केस के फैसले को स्वीकार करते हैं. हम कह रहे हैं कि संविधान में मिली इम्युनिटी को सिर्फ इसलिए नहीं घटाया जा सकता, क्योंकि किसी खास केस के फैक्ट्स अजीब हैं.
अब क्यों दोबारा परखा जा रहा है 1998 का फैसला
दरअसल साल 2014 में झारखंड हाई कोर्ट ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (Jharkhand Mukti Morcha) की विधायक सीता सोरेन के केस में एक फैसला दिया था. सीता सोरेन पर साल 2012 के राज्यसभा चुनाव में एक खास कैंडीडेट के पक्ष में वोट डालने के लिए रिश्वत लेने का आरोप लगा था. साथ ही यह आरोप भी था कि सीता सोरेन ने रिश्वत लेने के बावजूद उस कैंडीडेट को वोट नहीं दी थी. इस केस में हाई कोर्ट ने संवैधानिक अनुच्छेदों में मिली इम्युनिटी को इस केस पर लागू नहीं माना था. हाई कोर्ट ने कहा था कि संसदीय छूट ऐसे विधायक की अभियोजन से रक्षा नहीं करेगी, जो निश्चित तरीके से वोट देने के लिए रिश्वत लेता है और फिर उस तरीके से वोट नहीं करता है. सीता सोरेन ने इस फैसले को सु्प्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें उन्होंने 1998 के नरसिम्हा राव केस के फैसले के आधार पर अपने लिए इम्युनिटी की मांग की थी.
मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने यह केस पांच जजों की संविधान पीठ को रेफर कर दिया था. अब इसी मामले में तीन साल लंबी सुनवाई के बाद पांच जजों की संविधान पीठ ने 1998 के फैसले के पुनरीक्षण पर सहमति जताई है और इसे सुनवाई के लिए 7 जजों की सर्वोच्च संविधान पीठ को रेफर कर दिया है.
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