डीएनए हिंदी: Indian Politics- देश में अगले साल होने वाले आम चुनाव (General Elections 2024) के लिए सभी दल कमर कस चुके हैं. मंगलवार 18 जुलाई का दिन एक तरीके से देश में राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन का दिन साबित होने वाला है. एकतरफ विपक्षी दलों की 'महाएकता' बैठक का बेंगलूरु में दूसरा दिन है, वहीं दिल्ली में भाजपा नेतृत्व में NDA के 38 दल जुटने जा रहे हैं. विपक्षी दलों की यह दूसरी बैठक है. पिछले महीने 23 जून को पटना में पहली बैठक में 15 विपक्षी दलों ने विपक्षी एकता की नींव रखी गई थी, जिस पर मजबूत इमारत तैयार करने की चुनौती के साथ बेंगलूरु में दूसरी बैठक आयोजित हो रही है. सोमवार को बैठक से पहले कांग्रेस मुख्यमंत्री सिद्धरमैया की तरफ से आयोजित 'डिनर' के दौरान 26 विपक्षी दल एकसाथ मौजूद थे. पटना के बाद विपक्ष के बढ़े हुए आंकड़े से सभी की बांछे खिली हुई हैं, लेकिन इन सभी के सामने एक बड़ी चुनौती भी है. मंगलवार को जब विपक्ष की बैठक शुरू होगी तो उनके सामने कई सवाल खड़े होंगे, जिनके जवाब स्पष्ट नहीं हुए तो विपक्षी महाएकता लोकसभा चुनाव (Lok Sabha 2024) से पहले कभी भी धराशाई होने का खतरा बना रहेगा.
आइए बात करते हैं उन 5 बाधाओं की, जिन्हें पार करना विपक्ष के लिए बड़ी चुनौती है.
1. सीट शेयरिंग का फॉर्मूला कैसे होगा तय?
साल 2024 के लोकसभा चुनावों में सभी विपक्षी दलों की एकजुटता का आधार है भाजपा को जीत की हैट्रिक बनाने से रोकना. इसके अलावा सभी दल ज्यादा से ज्यादा सीट भी जीतना चाहते हैं ताकि आगे सरकार बनने पर उनका प्रभाव सबसे ज्यादा रहे. ऐसे में विपक्षी दलों के बीच सीट शेयरिंग का फॉर्मूला तय करना सबसे कठिन काम है, क्योंकि कोई भी दल एक भी सीट नहीं छोड़ना चाहेगा. हालांकि सीट शेयरिंग के लिए ममता बनर्जी वाले फॉर्मूले पर बात हो सकती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि जो दल जिस राज्य में मजबूत है, वहां बाकी दल उसे सपोर्ट करें. हालांकि इस फॉर्मूले में भी टकराव की स्थिति हो सकती है, क्योंकि कुछ राज्यों में विपक्ष के कई दल एकसाथ मौजूद हैं और सभी खुद को मजबूत मानते हैं.
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2. क्या कांग्रेस को 'कुर्बानी' के लिए तैयार कर पाएंगे बाकी दल?
सबसे ज्यादा परेशानी पश्चिम बंगाल, दिल्ली, पंजाब, बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में होगी. इन राज्यों में लोकसभा की करीब 220 सीट हैं यानी देश की कुल सीटों में सबसे बड़ी शेयरिंग इन पांच राज्यों की है. दिल्ली की 7 सीट और पंजाब की 13 सीट पर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी दावा ठोक रही है, जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में पंजाब की सभी सातों सीट जीतने और दिल्ली में दूसरे नंबर पर रहने के चलते कांग्रेस का दावा भी यहां मजबूत है. आप लोकसभा 2019 में इन 20 में से महज 1 सीट जीत पाई थी, फिर भी राज्य में सरकार होने के आधार पर वह दावा मजबूत बता रही है. उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में कांग्रेस बेहद कमजोर है, जबकि पश्चिम बंगाल में भी भाजपा के उभार ने कांग्रेस का दर्जा सबसे नीचे कर दिया है. साल 2019 में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की 80 में महज 1, पश्चिम बंगाल की 42 में से 2, महाराष्ट्र की 48 में 1, बिहार की 40 में से 1 सीट मिली थी. इसके उलट बंगाल में ममता बनर्जी की TMC को 22, बिहार में नीतीश कुमार की JDU की 16 सीट (भाजपा से गठबंधन में रहकर), महाराष्ट्र में शिवसेना की 18 (भाजपा गठबंधन में रहकर) व NCP की 4 सीट थीं और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सपा की 5 सीट थीं यानी ये सभी इन राज्यों में कांग्रेस से ज्यादा मजबूत हैं. इन हालात में इन 220 सीटों में से कांग्रेस के लिए ये विपक्षी दल मुश्किल से 25 से 30 सीट छोड़ने को तैयार होंगे. सवाल ये है कि क्या दोबारा सत्ता चलाने का स्वप्न देख रही कांग्रेस इस 'कुर्बानी' के लिए तैयार होगी?
3. राज्य में आपस में नीतिगत विरोधी, फिर सहमति कैसे बने?
विपक्षी दल मिलकर चुनाव लड़ने के लिए एक ऐसा न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने की बात कर रहे हैं, जिस पर सभी दल सहमत हों. हालांकि इसमें भी सवाल उठ रहा है कि यह न्यूनतम साझा कार्यक्रम कैसे तय होगा, क्योंकि इसे तय करने के लिए कई दलों को उन नीतियों से समझौता करना पड़ सकता है, जिसके आधार पर वे राज्य की राजनीति में एक-दूसरे का विरोध करते हैं. इसका सबसे सशक्त उदाहरण पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, वामपंथी दलों और तृणमूल कांग्रेस का रिश्ता है.
4. पीएम पद का चेहरा तय करना भी बड़ा सवाल
प्रधानमंत्री पद का चेहरा तय करना विपक्ष के लिए वो सबसे बड़ी पहेली है, जिसका हल फिलहाल किसी के पास नहीं है. विपक्षी दलों में कई नेता हैं, जो प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं. इनमें ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर और कांग्रेस की तरफ से प्रोजेक्ट किए जा रहे राहुल गांधी शामिल हैं. ऐसे में किसी एक चेहरे को अभी तय करना विपक्ष के लिए बेहद मुश्किल है. इसी कारण कोई भी विपक्षी दल फिलहाल इस पर कुछ नहीं कह रहा है. सभी का कहना है कि चुनाव में जीत के बाद इस पर फैसला कर लिया जाएगा. सोमवार को कर्नाटक में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने भी इस सवाल के जवाब में यही कहा था कि फिलहाल चेहरे से ज्यादा मुद्दा अहम है. भाजपा की हार विपक्षी दलों का साझा एजेंडा है.
5. दलों की आपसी 'ब्लैकमेलिंग' की कोशिश
विपक्षी दलों की महाएकता की परीक्षा लोकसभा चुनाव से पहले कम से कम 10 महीने होनी है. पहले संभावना थी कि भाजपा जल्दी लोकसभा चुनाव कराएगी, लेकिन कर्नाटक में मिली हार और इसके बाद विपक्षी महाएकता की कवायद में इस प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में रखने की बात मानी जा रही है. भाजपा सूत्रों के मुताबिक, माना जा रहा है कि विपक्षी दलों की यह महाएकता उनके बीच के आपसी मुद्दों के कारण ही ढेर हो जाएगी. विपक्षी महाएकता के लिए क्षेत्रीय दलों की आपसी 'ब्लैकमेलिंग' ही काल बन जाएगी. इस ब्लैकमेलिंग की शुरुआत आम आदमी पार्टी कर चुकी है. अरविंद केजरीवाल ने पटना में पहली मीटिंग में ही शर्त रखी थी कि कांग्रेस दिल्ली प्रशासन से जुड़े केंद्रीय अध्यादेश के विरोध में साथ नहीं देगी तो AAP उसके साथ खड़ी नहीं होगी. इसके चलते केजरीवाल को बेंगलूरु की बैठक में बुलाने के लिए कांग्रेस को रविवार को अध्यादेश के खिलाफ समर्थन का पासा फेंकना पड़ा है. भाजपा का मानना है कि अगले कुछ महीनों में अन्य क्षेत्रीय दल भी इस तर्ज पर 'ब्लैकमेलिंग' करते दिख सकते हैं, जो विपक्षी महाएकता में फूट का कारण बनेंगे. इसी कारण भाजपा लोकसभा चुनाव फिलहाल दूर रखना चाहती है, जो कि वह 10 महीने तक तो कर ही सकती है.
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