One Nation One Election: एक देश-एक चुनाव से देश को कितना फायदा कितना नुकसान? जानें हर सवाल का जवाब

Written By कुलदीप सिंह | Updated: Aug 16, 2022, 12:28 PM IST

One Nation One Election: केंद्र की मोदी सरकार ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक ही समय पर कराने की कवायद तेज कर दी है. इसे लेकर विधि आयोग को मामला सौंपा गया है. 

डीएनए हिंदीः केंद्र की मोदी सरकार एक और बड़े बदलाव की ओर तेजी से आगे बढ़ रही है. देशभर में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने के लिए केंद्र सरकार विधि आयोग को पूरा मामला सौंप चुकी है. विधि आयोग इस पर पूरा रोडमैप तैयार कर रहा है. बता दें कि 2024 में लोकसभा चुनाव के अलावा छह राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं. ऐसे में मोदी सरकार अभी से तैयारी कर रही है कि देश में एक साथ चुनाव हो सकें. इससे पहले वर्ष 2018 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ऐसा माहौल है कि देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की जरूरत है. 

आखिर क्यों है ‘एक देश-एक चुनाव’ की जरूरत?
एक देश-एक चुनाव को लेकर भले ही आज बहस की जा रही हो लेकिन ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. साल 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है. तब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराए जाते थे. साल 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं. वहीं 1971 की जंग के बाद पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे. कुछ राज्यों में कांग्रेस की सरकार भी सत्ता से बाहर हो गई. उसके बाद से चुनाव अलग-अलग समय पर कराए जाने शुरू हो गए.  

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विकास योजनाओं पर पड़ता है असर
किसी भी जिले में सामान्य तौर पर चार बार आचार संहिता लगती है. लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव, नगर निगर और पंचायत चुनाव के समय आचार संहिता लगती है. चुनावों के कारण सबसे ज्यादा असर विकास योजनाओं पर पड़ता है. चुनाव के कारण समय-समय पर आचार संहिता लग जाती है. इससे विकास का काम रुकता है. चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश लगातार चुनावी मोड में बना रहता है. इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ भी पड़ता है. इसी कारण मोदी सरकार चाहती है कि देशभर में पांच साल में सिर्फ बार ही चुनाव हो.   

विधि आयोग के सामने चुनौती
पीएम मोदी कई मौकों पर एक देश-एक चुनाव की बात बोल चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट भी एक बारे में टिप्पणी कर चुका है. केंद्र ने पूरा मामला विधि आयोग के पास भेज दिया है. 1999, 2015 और 2018 में तीन बार लॉ कमीशन ने इस पर अपनी रिपोर्ट दी. वहीं, इससे पूर्व 2016 में संसदीय समिति भी अपनी अंतरिम रिपोर्ट दे चुकी है. रिपोर्ट में संसदीय समिति ने भी एक साथ चुनाव कराने की आवश्यकता बताई थी लेकिन कहा था कि सभी राजनीतिक दलों और क्षेत्रों की एक साथ चुनाव पर सहमति बनाने में एक दशक का समय लग सकता है. 

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सरकारी खजाने पर पड़ता है बोझ 
देश में जब भी चुनाव होते हैं तो इसका बोझ सरकारी खजाने पर पड़ता है. लोकसभा चुनाव का खर्च केंद्र और राज्य मिलकर आधा-आधा बांटते हैं. वहीं विधानसभा चुनाव का खर्च राज्य ही उठाते हैं. सरकार का कहना है कि यदि चुनाव एक साथ हों तो यह खर्च आधा हो जाएगा और केंद्र तथा राज्य सरकारों को आधा-आधा खर्च ही वहन करना पड़ेगा. केंद्र सरकार ने वर्ष 2014 से 2020 तक 5794 करोड़ रुपये जारी किए हैं. छह वर्ष की इस अवधि में 50 विधानसभा चुनाव और दो बार लोकसभा के चुनाव हुए हैं. एक सर्वे के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इनमें से 9 हजार करोड़ रुपये सिर्फ सरकार और चुनाव आयोग को खर्च करने पड़े थे. आंकड़ों के मुताबिक 1952 में चुनाव पर 10 करोड़ 45 लाख रुपये खर्च हुए थे. प्रति वोटर देंखे तो खर्च 60 पैसे था. यह 1991 में बढ़कर 359 करोड़ रुपये हो गया और प्रति वोटर 7 रुपये खर्च आया. वहीं 2014 में यह खर्च बढ़कर 3870 करोड़ हो गया और प्रति वोटर 46.40 रुपये का खर्च आया. वहीं 2019 में यह खर्च 9 हजार करोड़ रुपये हो गया. 

कहां खर्च करती है सरकार?
सरकार इस पैसे को बूथ प्रबंधन, फोर्स और ईवीएम पर खर्च करती है. सीएमएस की ओर से कराए गए एक सर्वे के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इसमें सरकार के अलावा प्रत्याशी और पार्टियों समेत अन्य खर्च शामिल है. सर्वे के मुताबिक किसी भी चुनाव में होने वाले कुल खर्च का 15 फीसदी सरकार और चुनाव आयोग, 40 फीसदी उम्मीदवार, 35 फीसदी राजनीतिक दल, 5 फीसदी मीडिया और 5 फीसदी द्वारा खर्च किया जाता है.  

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एक देश-एक चुनाव कैसे होगा?
एक देश-एक चुनाव के लिए लोकसभा की सभी 543 सीटों के साथ सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 4126 सीटों पर चुनाव कराने होंगे. यह एक बड़ी चुनौती होगा. वर्तमान में 24 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश विधानसभाओं का कार्यकाल लोकसभा से अलग चल रहा है. ऐसे में इनका चुनाव या तो समय से पहले कराना होगा या इनका कार्यकाल बढ़ाना होगा. इतनी ही नहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 91 करोड़ वोटर थे जो 2024 में बढ़कर 101 करोड़ हो जाएंगे. इतने वोटरों को एक साथ चुनाव में शामिल करना बड़ी चुनौती होगा. 

लोकसभा-विधानसभा के लिए एकसाथ वोट
देश में अलग एक साथ लोकसभा के चुनाव होंगे तो बूथ पर दो ईवीएम मशीन लगाई जाएंगी. इसमें एक पर मतदाता लोकसभा के लिए वोट दे सकेगा वहीं दूसरी ईवीएम पर विधानसभा के लिए वोट डाल सकेगा. हालांकि यह इतना मुश्किल भी नहीं है. 2019 को लोकसभा चुनाव के साथ ही उड़ीसा ,आंध्र प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के चुनाव हो चुके हैं. तब भी मतदाताओं ने दोनों के लिए वोट दिए थे. 

संविधान में करना होगा संशोधन
एक देश-एक चुनाव की राह में सबसे बड़ी बाधा संविधान संशोधन हैं. अगर सरकार को देशभर में एक साथ चुनाव कराने हैं तो सबसे पहले संविधान में संशोधन करना होगा. राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ करने के लिये राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को या तो घटाना होगा या बढ़ाना होगा. इसके लिए कुछ संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी.

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अनुच्छेद 83: इसमें कहा गया है कि लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पांच वर्ष का होगा.
अनुच्छेद 85: यह राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने का अधिकार देता है. 
अनुच्छेद 172: इसमें कहा गया है कि विधानसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पांच वर्ष का होगा. 
अनुच्छेद 174: यह राज्य के राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का अधिकार देता है.
अनुच्छेद 356: यह केंद्र सरकार को राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता के मद्देनज़र राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार देता है. इनके अलावा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ संबंधित संसदीय प्रक्रिया में भी संशोधन करना होगा.

क्या हैं चुनौतियां
देशभर में एक साथ चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग को अतिरिक्त  EVM और VVPAT मशीनों की जरूरत होगी. हालांकि चुनाव आयोग कह चुका है कि वह तय समय में इसका इंतजाम कर सकता है. एक बार इतनी संख्या में ईवीएम खरीदने में चुनाव आयोग को भारी भरकम राशि खर्च करनी होगी लेकिन आने वाले समय में चुनावी खर्च काफी कम हो जाएगा. 

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