डीएनए हिंदी. 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ था, तब सबकी आंखों में चमकीले भविष्य के सपने थे. हवा में अजब सा रोमांच था, मन में कमाल की ताजगी थी. जालियांवाला बाग हो या विभाजन का दर्द सबको भुलाकर सिर्फ आगे बढ़ने का जुनून था. लेकिन आजादी के महज 138 दिन बाद देश के आदिवासियों को जालियांवाला बाग जैसे एक और जुल्म का सामना करना पड़ा. निहत्थे आदिवासियों को घेर कर तब की उड़िसा पुलिस ने स्टेनगन से दनादन गोलियां बरसाई थीं. पूरा मैदान लाशों से पट गया था. लगभग 2000 लोग मारे गए थे. खून ही खून पसरा था चारों ओर. चीखने, चिल्लाने और कराहने की आवाज कमजोर पड़ गई थी स्टेनगन के शोर के सामने.
जुल्म की यह कहानी लिखी गई थी 1 जनवरी 1948 को खरसावां के मैदान में. जमशेदपुर से महज 60-70 किलोमीटर दूर है खरसावां. दरअसल, आजादी के बाद तय किया गया था कि सरायकेला और खरसावां का विलय उड़िसा में कर दिया जाए. इसके पीछे तर्क था कि इन दोनों स्टेट्स में उड़िया भाषी लोग ज्यादा हैं. लेकिन इन दोनों जगहों के आदिवासी चाहते थे कि वे बिहार के साथ रखे जाएं. इस वक्त आदिवासियों के सबसे बड़े नेता के रूप में जयपाल सिंह मुंडा थे. उन्हीं के आह्वान पर लगभग 50 हजार आदिवासी खरसावां में जुटे थे.
उड़िसा सरकार हर हाल में इस विरोध को दबा देना चाहती थी. 1 जनवरी से पहले ही पूरे बिहार से आदिवासियों का जत्था खरसावां पहुंचने लगा था. उड़िसा सरकार के आदेश पर पूरे खरसावां को छावनी में बदल दिया गया था. चप्पे-चप्पे पर मिलिट्री के जवान पसरे थे. लेकिन किसी कारणवश 1 जनवरी को जयपाल सिंह मुंडा ही खरसावां नहीं पहुंच सके. नतीजतन, 50 हजार आदिवासियों की भीड़ किसी की आवाज नहीं सुन रही थी, कुछ नेताओं ने अगुवाई की तो सभी इस विलय के खिलाफ ज्ञापन देने राजमहल पहुंचे. वहां ज्ञापन सौंपने के बाद वे खरसावां के मैदान में फिर से जुटे. इन आदिवासियों में कुछ लोग उग्र हो रहे थे तो कुछ लोग शांत थे. लेकिन तभी उड़िसा मिलिट्री के कुछ जवानों ने इन आदिवासियों पर दनादन फायरिंग शुरू कर दी. देखते ही देखते पूरे मैदान में लाशें बिछ गईं.
हालांकि, इस जुल्म के बाद राज्य सरकार ने सिर्फ 35 आदिवासियों की मौत की बात स्वीकारी. 3 जनवरी 1948 को कोलकाता से प्रकाशित अग्रेजी अखबार स्टेट्समैन ने भी 35 आदिवासियों के मारे जाने की खबर छापी. लेकिन पूर्व सांसद और महाराजा पीके देव की पुस्तक 'मेमायर ऑफ अ बाइगोन एरा' में 2000 आदिवासियों के मारे जाने की बात लिखी है. तब के नेताओं का भी दावा था कि इस मिलिट्री फायरिंग में हजारों आदिवासी मारे गए हैं. बाद के दिनों में झारखंड के पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा ने इस कांड के कई पीड़ितों से मुलाकात की. उस दिन के लोमहर्षक जुल्म को कलमबद्ध किया. पीड़ितों के बयान और पीके देव की किताब में दिए गए आंकड़े एक-दूसरे के बेहद करीब हैं.
किसी ने भी ऐसी बुरी कल्पना नहीं की थी कि आजाद भारत में भी जलियांवाला बाग जैसा कोई जुल्म हो सकता है. उड़िसा मिलिट्री के जवानों के इस जुल्म के बहुत ज्यादा दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं. लेकिन यह बात सामने आती है कि इस मुद्दे को लेकर कई कमेटियां बनीं. जांच भी हुई. लेकिन इन जांच के नतीजे क्या हुए किसी को आज भी नहीं पता.