लेबनान एक समय में कभी ईसाई बहुल देश था. लेकिन समय के साथ साथ कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए जिसके बाद आज कभी पूर्व की पेरिस कही जाने वाली बेरूत शहर अब लाशों के ढेर से ढकी हुई है. मौजूदा हालात ये हैं कि लेबनान अब ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहां ईसाइयों की संख्या मात्र 15 प्रतिशत रह गई है. 1920 में यहां 75-80 प्रतिशत ईसाई थे. लेकिन फ्रांस से आजादी के बाद, लेबनान की जनसंख्या में महत्वपूर्ण बदलाव आया. फिलीस्तीन और सीरिया से आए शरणार्थियों ने भी इस स्थिति को और जटिल बना दिया. इस दौरान अरब राष्ट्रवाद का उदय हुआ और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए ईसाई, सुन्नी और शिया मुसलमानों के बीच संघर्ष बढ़ने लगा.
गृहयुद्ध ने बदले लेबनान की स्थिति
1975 से 1990 तक चले गृहयुद्ध ने लेबनान को पूरी तरह से बदलकर रख दिया. इस गृहयुद्ध के दौरान एक लाख ईसाई मारे गए और लगभग 10 लाख ईसाई पलायन कर गए. 1975 में लेबनान की आबादी में ईसाई 50 प्रतिशत और मुस्लिम लगभग 37 प्रतिशत थे. 1990 में जब गृहयुद्ध समाप्त हुआ, तब ईसाई आबादी घटकर 47 प्रतिशत और मुसलमान 53 प्रतिशत हो गई. 2010 तक आते-आते ईसाइयों की संख्या घटकर 40 प्रतिशत हो गई थी.
एक समय में पूर्व का पेरिस
बेरूत शहर जो कभी मध्य पूर्व का सबसे विकसित और जीवंत शहर था. बीते कुछ सालों के संघर्षों और हालिया इजरायल द्वारा हमले के बाद एक खंडहर में तब्दील हो चुका है. 1975 के दौर में इसे 'पूर्व का पेरिस' कहा जाता था. इस शहर में यूरोप से पर्यटक आते थे. यहां की संस्कृति, सिनेमा,और लोगों का रहने का तौर तरीका की गूंज दूर-दूर तक फैली हुई थी. लेकिन आज बेरूत की स्थिति बेहद खराब है.मौजूदा समय में अब न तो अब रहना चाहता है और न ही कोई पर्यटक वहां जाने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं.
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संघर्ष और अस्थिरता
हाल के दिनों में इजरायली हमलों में हिजबुल्लाह के प्रमुख हसन नसरल्लाह सहित कई नेताओं की हत्या ने लेबनान में अस्थिरता को बढ़ा दिया है.आपको बता दें हिजबुल्लाह एक कट्टरपंथी संगठन है जिसकी पहुंच लेबनान की संसद और सरकार में भी है. यह संगठन हमेशा से इजरायल के खिलाफ रहा है. फिलीस्तीनी मुद्दे को लेकर हिजबुल्लाह का संबंध लगातार इजरायल से खराब ही रही है. हमास के इजरायल पर हमले के बाद, हिजबुल्लाह ने भी इजरायल पर हमले किए, जिससे पूरे मध्य पूर्व में युद्ध का माहौल बन गया है.
कट्टरपंथी संगठनों का प्रभाव
लेबनान अब कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों का गढ़ बन चुका है. यह देश आज भी ईसाई और यहूदी समुदायों के प्रति नफरत के लिए जाना जाता है. हालांकि, 50 साल पहले यहां की जनसंख्या में ईसाइयों की संख्या ज्यादा थी और मुसलमानों की संख्या 30 प्रतिशत से भी कम थी. दरअसल, 90 के दशक की शुरुआत में लेबनान में विभिन्न धार्मिक और राजनीतिक समूहों ने मिलकर यह समझौता किया, जिसके तहत सत्ता में समान भागीदारी स्थापित की गई. ईसाइयों के लिए राष्ट्रपति पद आरक्षित कर दिया गया, जबकि प्रधानमंत्री पद हमेशा सुन्नी मुसलमानों के लिए रखा गया. यहां तक कि संसद में भी सीटों का बंटवारा धार्मिक आधार पर किया गया. लेकिन मिडल ईस्ट के कई सारे मुस्लिम शरणार्थियों का लगातार लेबनान में आना कहीं न कहीं एक धार्मिक बंटवारे से देश में हालात बद से बदत्तर होते चले गए.
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समृद्धि से अशांति तक
लेबनान की गाथा एक जटिल और गहन यात्रा को दर्शाती है, जहां एक समय यह देश समृद्धि और विविधता का पर्याय था, लेकिन अब धार्मिक संघर्षों के जाल में फंस गया है. यह कहानी न केवल लेबनान की है, बल्कि पूरे मध्य पूर्व के लिए एक चेतावनी भी है कि अस्थिरता और संघर्ष किस तरह एक समृद्ध राष्ट्र को बर्बाद कर सकते हैं. आज का लेबनान, जो पहले सांस्कृतिक और आर्थिक विकास का केंद्र हुआ करता था, अब युद्ध और अशांति का प्रतीक बन गया है.
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