डीएनए हिंदी: नेशनल मेडिकल कमीशन ने दवाइयों को लेकर नया निर्देश जारी किया है. इसके तहत अब डॉक्टरों को पर्चे पर ब्रांडेड के बजाय जेनेरिक दवाएं ही लिखनी होंगी. नए नियमों के मुताबिक ऐसा नहीं करने पर उनका लाइसेंस भी कुछ समय के लिए निलंबित हो सकता है. जेनेरिक दवाइयां लिखने को लेकर पहले भी निर्देश दिए गए हैं लेकिन इनका सख्ती से पालन नहीं किया गया. दूसरी ओर डॉक्टर्स और उनके अलग-अलग संगठनों का कहना है कि व्यावहारिक तौर पर ये मुमकिन नहीं है और इस फैसले का विरोध भी हो रहा है. ब्रांड की दवाइयों और जेनेरिक दवाइयां क्या होती हैं और इनमें क्या फर्क होता है? क्यों सरकार इनके लिए जोर डाल रही है? जानें इसके बारे में सब कुछ.
क्या है NMC के नए आदेश में
नेशनल कंडक्ट ऑफ रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर रेगुलेशन का नया आदेश 2 अगस्त को जारी किया गया है. इस आदेश के तहत डॉक्टरों को निर्देश दिया गया है कि ब्रांडेड जेनेरिक दवाएं लिखने से भी बचें. डॉक्टरों को ब्रांडेड के बजाय जेनेरिक दवाएं लिखने के लिए कहा गया है. नियम का उल्लंघन होने पर डॉक्टर को रेगुलेशन के प्रति सतर्क रहने की चेतावनी दी जा सकती है या पेशेवर प्रशिक्षण के लिए ट्रेनिंग में शामिल होने को कहा जा सकता है. हांलाकि डॉक्टर्स के अलग-अलग संगठन इस आदेश से खुश नहीं हैं.
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क्या होती हैं जेनेरिक दवाएं
किसी एक बीमारी के इलाज के लिए तमाम तरह की रिसर्च और स्टडी के बाद एक रसायन तैयार किया जाता है. वैज्ञानिक भाषा में इसे सॉल्ट कहते हैं. इस रसायन को आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने के लिए दवा का रूप दिया जाता है. आम तौर पर ऐसे रसायन बेहद महंगे होते हैं लेकिन इसे जेनेरिक नाम के सॉल्ट के कंपोजिशन और बीमारी की गंभीरता को देखते हुए तैयार किया जाता है. विशेषज्ञों की समिति और कई स्तर के परीक्षण के बाद यह तैयार होता है. इसलिए ये दवाएं अमूमन बहुत सस्ती होती हैं.
जेनेरिक दवाइयों पर इस वजह से है सरकार का जोर
नेशनल मेडिकल कमीशन ने अपने निर्देश में कहा है कि देश में लोग कमाई का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं, जिसमें बड़ी राशि सिर्फ दवाओं पर खर्च होती है. जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं से 30 से 80% तक सस्ती हैं। जेनेरिक दवाएं लिखने से खर्च में कमी आएगी. भारत जैसे देश में जहां आज भी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का इन्फ्रास्ट्रक्चर इतना मजबूत नहीं है और किसी भी गंभीर बीमारी में लोगों को अपनी बचत खर्च करनी पड़ती है. कई बार तो बीमारियों के इलाज में लोगों को अपनी संपत्ति तक बेचनी पड़ती है.
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जेनेरिक दवाओं की कमी रहा है बड़ा मुद्दा
जेनेरिक दवाएं नहीं लिखी जाने के पीछे एक आम तर्क दिया जाता है कि देश में इन दवाओं की पर्याप्त उपलब्धता नहीं है. एक हद तक इस बात में सच्चाई भी है क्योंकि सरकारी अस्पतालों में भी कई बार जरूरी दवाएं नहीं होती हैं. ऐसी स्थिति में मजबूरन भी ब्रांडेड महंगी दवाइयां खरीदनी पड़ती हैं. देश के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स की ओर से भी कोविड आपदा के बाद जेनेरिक और जीवन रक्षक दवाओं की उपलब्धता में कमी की रिपोर्ट केंद्र सरकार को दी गई थी.
ब्रांडेड दवाओं के पीछे फर्मास्युटिकल लॉबी और भ्रष्टाचार भी एक मु्द्दा
हालांकि पूरी दुनिया में फर्मास्युटिकल कंपनियों के दबदबे और उनका भ्रष्टाचार नया मुद्दा नहीं है. अमेरिका जैसे देश में फार्मा लॉबी को सरकार बनाने और गिराने के कारणों में गिना जाता है. फर्मास्युटिकल कंपनियों के बड़े अस्पतालों और डॉक्टरों के साथ साठ-गांठ और भ्रष्टाचार का मुद्दा कई बार सामने आ चुका है. इसी साल मई में भी सरकार ने जेनेरिक दवाएं लिखने का आदेश दिया था और इसके अलावा फार्मा कंपनियों और मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स के मिलने संबंधी नियम बदले गए थे. कई बार जेनेरिक दवाएं लिखने के निर्देश के बाद भी अब तक इस पर सख्ती से कार्रवाई नहीं हो सकी है.