दशकों से पश्चिम बंगाल (West Bengal) में लगातार राजनीतिक हिंसा (Political Violence) की घटनाएं होती चली आ रही हैं. आखिर ऐसा क्या है इस राज्य की सियासत में कि महज क्षणिक राजनीतिक लाभ के लिए लोग एक-दूसरे की जान के प्यासे हो जाते हैं. यूं तो देश के लगभग सभी प्रदेशों में चुनाव के समय हिंसा की घटनाएं होती हैं. बाकी राज्यों की हिंसा चुनावी होती है, लेकिन बंगाल का मामला अलग है, यहां हिंसा केवल चुनावी सीजन तक ही महदूद नहीं है, बल्कि इसका नाता यहां के हर सियासी गतिविधियों से है. इस प्रदेश में छोटे से छोटा राजनीतिक घटनाक्रम भी बिना हिंसा के यहां नहीं घटित होता है. स्थिति ये है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा आब आम बात हो चुकी है.
राजनीतिक हिंसा के लिए कौन है जिम्मेदार?
देश के आजाद होने के बाद राज्य में कई सियासी पार्टियों की सरकारें बनीं. शुरुआती दो दशकों के दौरान यहां पर कांग्रेस की सत्ता कायम रही थी. उसके बाद तीन दशकों से भी ज्यादा समय तक राज्य में साम्यवादी सरकारें रही. फिर आया तृणमूल का दौर जो पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से यहां की सत्ता पर काबिज है. इन सभी दलों के दौर में जो चीज बदस्तूर जारी रही वो है राजनीतिक हिंसा. ये हिंसा मूल रूप से होती है सियासी दलों के कार्यकर्ताओं के बीच खासकर ग्रामीण इलाकों को छोटे कस्बों में ये हिंसा बात-बात पर सुलगती रहती है. सबसे अहम बात तो ये है कि ये राजनीतिक हिंसाएं समय के साथ और भी ज्यादा विकराल रूप धारण करती जा रही है. इसके पीछे जो चीज सबसे ज्यादा जिम्मेदार है वो है डर की राजनीति. ये सारे दल इतने लंबे समय से राज्य की सत्ता में एक छत्र राज इसलिए कर सके क्योकि लोगों के मन में सत्ताधारी दल के प्रति भय का माहौल व्याप्त था.
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बंगाल में हो रहे राजनीतिक हिंसा का इतिहास
बंगाल में राजनीतिक हिंसा की अनूठी संस्कृति का इतिहास आजादी से पहले ही चला आ रहा है. 1905 में बंगाल विभाजन के दौरान व्यापक हिंसा और उसके बाद वहां हुए दंगे-फसाद जगजाहिर हैं. हालांकि, आजादी के बाद के काल में चुनावी सियासत के आगमन ने राजनीतिक हिंसा को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया. इतिहास इस बात का गवाह है कि शुरुआती दशकों में तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस के जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और उस समय की उभरती राजनीतिक ताकत सीपीएम के बीच हिंसा भड़क उठी थी. कांग्रेस पर विपक्ष के खिलाफ हिंसक दमन का इस्तेमाल करने के आरोप इस दौर में खूब लगते थे. उग्रवादी गुटों की अगुवाई में राज्य में हिंसक नक्सली आंदोलन के दौरान भी राज्य में खूब हिंसा हुई. उस आंदोलन को ताकत के बल पर कुचलकर 1972 के विधानसभा चुनाव कराए गए.
वामपंथ का काल
1977 में सीपीएम के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार के सत्ता में आने के बाद इसने अपने पूर्ववर्ती सरकार की तुलना में ज्यादा उग्रता के साथ राजनीतिक हिंसा की संस्कृति को जारी रखा. वाम मोर्चा सरकार ने ग्रामीण आबादी पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए भूमि पुनर्वितरण के लिए ऑपरेशन बरगा सहित कई बड़े ग्रामीण सुधारों की सिरीज शुरू की. लेकिन साथ ही विपक्ष की आवाज को दबाने और सत्ता पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखने के लिए पुलिस और राज्य की दूसरी ताकतवर संस्थानों का पूरा इस्तेमाल किया. विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को नियमित रूप से परेशान किया जाता था. उनके घरों को जला दिया जाता था या फिर कथित तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा उनकी हत्या कर दी जाती थी. अपना पूर्ण वर्चस्व बनाए रखने के लिए वामपंथी सरकार ने आरएसपी जैसे सियासी सहयोगियों को भी नहीं छोड़ा.
टीएमसी का काल
इसके बाद शुरू हुआ टीएमसी का दौर. 2011 में टीएमसी सत्ता में आई. वामपंथियों को सत्ता से बेदखल करने के बाद पार्टी ने वादा किया था कि वो प्रतिशोध की राजनीति बंद करेगी. लेकिन टीएमसी ने ठीक इसके उलट किया. इसने हिंसा की वामपंथियों की रणनीति को और भी अधिक उग्रता से अपना लिया. फिलहाल पक्ष-विपक्ष हर कोई इसका वाहक भी है और पीड़ित भी.
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