डीएनए हिंदीः भारतीय सेना की पहचान अपने शौर्य और पराक्रम के लिए होती है. क्या आप जानते हैं कि भारत के पास दुनियां की इकलौती घुड़सवार सेना भी मौजूद है. इसे 61 कैवेलरी (61 Cavalry) के नाम से जाना जाता है. आपने इस टुकड़ी को गणतंत्र दिवस (Republic Day) के मौके पर राष्ट्रपति के राजपथ पर आगमन के दौरान इस घुड़सवार सेना को उनकी अगुवाई करते जरूर देखा होगा. इस रेजिमेंट के जवान युद्ध कौशल में तो पारंगत हैं ही, इसके साथ उन्हें घुड़सवारी में भी महारत हासिल है. आखिर ये घुड़सवार टुकड़ी इतनी खास क्यों है इसे विस्तार से समझते हैं.
खास मौकों पर करती है राष्ट्रपति की अगुवाई
राष्ट्रपति गणतंत्र दिवस के मौके पर जब राजपथ पर जाते हैं तो यही रेजीमेंट उनकी अगुवाई करती है. इसके अलावा संसद के संयुक्त अधिवेशन के लिए भी जब राष्ट्रपति जाते हैं तो यही रेजीमेंट उनके साथ होती है. इस रेजीमेंट को 1 अगस्त, 1953 को 6 राज्य बलों की घुड़सवार इकाइयों को मिलाकर स्थापित किया गया था. इस रेजीमेंट में शामिल वाले जवान ही नहीं घोड़ों को भी खास ट्रेनिंग के बाद शामिल किया जाता है.
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कैसे होता है जवानों का चुनाव
61वीं कैवेलरी रेजिमेंट में मुख्य रूप से राजपूत, कायमखानी और मराठा जवानों को उनकी बेसिक मिलिट्री ट्रेनिंग के बाद 61वीं कैवेलरी रेजिमेंट में भेजा जाता है. इसके बाद अगले 18 महीनों में इन्हें कड़ी ट्रेनिंग देकर एक्सपर्ट राइडर बनाया जाता है. राजपूत, कायमखानी और मराठा जवानों को घुड़सवारी में माहिर माना जाता है. ट्रेनिंग की शुरुआत घोड़ों के साथ जवानों की जान पहचान से होती है. शुरूआती दो महीने में इन जवानों को घोड़ों की सार-संभाल और उनकी मालिश करना होता है.
जीत चुकी है कई सम्मान
गणतंत्र दिवस पर आयोजित होने वाली राष्ट्रीय परेड की मुख्य अगवानी भी अब तक 39 युद्ध सम्मान हासिल कर चुकी 61वीं कैवेलरी रेजिमेंट ही करती है. 61वीं कैवेलरी रेजिमेंट के प्रतीक चिन्ह में दो सिर वाले बाज और नीचे 'सिक्सटी फर्स्ट कैवेलरी' शब्द के साथ एक स्क्रॉल होता है. कंधे के शीर्षक में पीतल से "61C" लिखा होता है. इस रेजिमेंट का आदर्श वाक्य अश्व शक्ति यशोबल है. इस रेजिमेंट की एक मजबूत पोलो परंपरा है, यहां देश के सर्वश्रेष्ठ पोलो खिलाड़ियों का निर्माण किया जाता है.
हाइफा की लड़ाई में हुई थी शामिल
यह रेजीमेंट कई बार अपने साहस का पराक्रम दिखा चुकी है. अब तक रेजीमेंट के जवानों ने 12 अर्जुन पुरस्कार और एक पदमश्री पुरस्कार जीता है. इस रेजिमेंट ने ही 1918 में ओटोमैन साम्राज्य की सेना को हाइफा में शिकस्त दी थी. हाइफा अब इजराइल में है.
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