डीएनए हिंदी: नदियां पृथ्वी में जीवन का प्रतीक हैं. दुनिया की सबसे समृद्ध सभ्यताएं नदियों के किनारे पैदा और विकसित हुईं.आज भी दुनिया के ज़्यादातर बड़े शहर नदियों के किनारे ही बसे हैं. लंदन हो, पेरिस हो, न्यू यॉर्क हो या फिर दिल्ली ये सभी शहर नदियों के किनारे ही बसे हैं. भारत में तो नदियों को जीवित माना जाता है और उनकी पूजा होती है. हालांकि, ये जीवनदायनी नदियां कई बार प्रदेशों और देशों के बीच विवाद की वजह भी बन जाती हैं. जैसे कि आजकल कावेरी नदी के पानी को लेकर तमिल नाडु और कर्नाटक के बीच तलवारें खिंची हुई हैं. DNA TV Show मे क्या है विवाद और इसके पीछे का पूरा इतिहास खंगाला गया है. जानें क्या है पानी का विवाद और क्यों इसने रोक दी भारत के आईटी सिटी बेंगलुरू की रफ्तार.
शुक्रवार को कर्नाटक के किसान संगठन ओकुक्टु संघ ने बंद बुलाया था. ये संगठन तमिलनाडु को कावेरी नदी का पानी दिए जाने का विरोध कर रहा है और उसके इस बंद को प्रदेश भर में ज़बरदस्त समर्थन भी मिला.विपक्ष की बीजेपी और जेडीएस ही नहीं, कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री और कई दूसरे संगठनों, यूनियन ने भी इस बंद का समर्थन किया है. इसी वजह से बेंगलूरु से लेकर मांड्या, कोडगू और मैसूर समेत प्रदेश के कई ज़िलों में इस बंद का असर देखने को मिला. शॉपिंग मॉल्स और बाज़ारों में ही नहीं रेलवे स्टेशन्स और एयरपोर्ट में भी सन्नाटा नज़र आया. करीब 50 फ्लाइट्स रद्द कर दी गईं जबकि स्कूल कॉलेज में छुट्टी का ऐलान करना पड़ा. जानकारी के अनुसार क़रीब 12 घंटे के इस बंद की वजह से कर्नाटक को क़रीब 4 हज़ार करोड़ रुपये का नुक़सान है.
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150 साल पुराना है कावेरी नदी का विवाद
इस पूरे हंगामे की वजह है कावेरी नदी और उसके पानी का बंटवारा. ऐसा भी नहीं है कि कावेरी के पानी पर ये दोनों राज्य पहली बार भिड़े हों. यह विवाद क़रीब डेढ़ सौ वर्ष यानी भारत की आज़ादी से भी पुराना है. हम कावेरी जल विवाद का विस्तार से विश्लेषण करेंगे. आपको इस विवाद की टाइमलाइन के बारे में भी बताएंगे. इसके लिए ज़रूरी है कि आप कावेरी नदी और उससे जुड़े मौजूदा विवाद के बारे में भी जानें. दरअसल कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच पानी के बंटवारे को लेकर एक अथॉरिटी बनाई गई थी कावेरी वॉटर मैनेजमेंट अथॉरिटी (cauvery water management authority) यानी CWMA नाम की ये अथॉरिटी ही ये तय करती है कि किस राज्य को कावेरी का कितना पानी दिया जाएगा.
- CWMA ने पिछले महीने कर्नाटक सरकार को आदेश दिया था कि वो अगले 15 दिनों तक तमिल नाडु को रोज़ाना 10 हज़ार क्यूसेक यानी cubic meter/ sec पानी सप्लाई करे.
- इस आदेश के अऩुसार कर्नाटक ने 12 अगस्त से 27 अगस्त तक तमिल नाडु को रोज़ाना 10 हज़ार क्यूसेक पानी सप्लाई किया.
- 29 अगस्त को CWMA ने एक और आदेश दिया कि कर्नाटक को अगले 15 दिनों तक तमिल नाडु रोज़ाना 5 हज़ार क्यूसेक पानी सप्लाई करे.
- लेकिन कर्नाटक सरकार ने CWMA के इस फ़ैसले को मानने से इनकार कर दिया और कहा कि वो तमिलनाडु को सिर्फ़ तीन हज़ार क्यूसेक पानी ही दे सकते हैं.
कर्नाटक ने कम बारिश का हवाला देकर रोका पानी
कर्नाटक की तरफ़ से दलील दी गई कि इस वर्ष मॉनसून के सीज़न में बहुत कम बारिश हुई है जिसकी वजह से कावेरी में भी सामान्य से काफी कम पानी है. इसी वजह से कावेरी में बने प्रदेश के ज़्यादातर जलाशय भी खाली रह गए हैं. कर्नाटक का कहना है कि उसके कई ज़िले पहले ही सूखे जैसे हालात का सामना कर रहे हैं. ऐसे में वो तमिल नाडु को समझौते के अनुसार पानी नहीं दे सकता है क्योंकि अगर उसने ऐसा किया तो कर्नाटक में हालात और बिगड़ जाएंगे.
तमिलनाडु में खेती के लिए कावेरी के पानी पर है निर्भरता
दूसरी तरफ़ तमिलनाडु में लाखों एकड़ खेती भी कावेरी के ही पानी पर निर्भर है. तमिलनाडु का कहना है कि CWMA ने पहले ही उसके कोटे का पानी दे दिया है और अगर उसे इतना पानी भी नहीं मिला तो उसके यहां किसानों की खड़ी फ़सलें सूख जाएंगी. यही दोनों राज्यों के बीच मौजूदा विवाद की वजह है. ये विवाद कितना गंभीर है, इसे आप हमारी इस रिपोर्ट को देखकर आसानी से समझ सकते हैं.
दोनों राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है कावेरी नदी
ये नदी कर्नाटक में पश्चिमी घाट में मौजूद ब्रह्मागिरी पहाड़ियों से निकल कर तमिल नाडु, केरल और केंद्र शासित प्रदेश पुडुच्चेरी से होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है. क़रीब 800 किलोमीटर लंबी ये नदी गोदावरी और कृष्णा के बाद दक्षिण भारत की तीसरी सबसे बड़ी नदी है. इसका ज़िक्र पौराणिक तमिल साहित्य में भी मिलता है, जहां इसे पोन्नी के नाम से पुकारा गया है. आज ये नदी करीब 40 लाख एकड़ ज़मीन को सींचती है और दक्षिण भारत के 3 करोड़ किसान कावेरी के पानी पर ही निर्भर हैं. यही नहीं ये नदी दोनों प्रदेशों के करोड़ों लोगों को पीने का पानी भी मुहैया कराती है और इसलिए इसे दक्षिण की गंगा भी कहा जाता है. कावेरी की ये अहमियत ही इससे जुड़े विवाद की सबसे बड़ी वजह है.
140 साल पहले पड़ी विवाद की नींव
इस विवाद को समझने के लिए हम आपको इतिहास में क़रीब 140 वर्ष पीछे यानी वर्ष 1881 में ले चलेंगे जब इस विवाद की शुरुआत हुई थी. उस वक़्त कर्नाटक मैसूर रियासत के अंदर आता था, जबकि आज का तमिल नाडु तब ब्रिटिश शासन के अधीन था और उसे मद्रास प्रेसिडेंसी कहा जाता था.
- वर्ष 1881 में मैसूर रियासत ने कावेरी नदी पर बांध बनाने का फ़ैसला किया, लेकिन मद्रास प्रेसिडेंसी ने इसका विरोध किया.
- वर्ष 1924 में ब्रिटिश सरकार ने दोनों राज्यों के बीच समझौता कराने की पहल की, और इसके तहत मैसूर ने कावेरी नदी पर कृष्णाराजा सागर बांध का निर्माण शुरू किया.
- वर्ष 1974 तक उसने कई और बांध भी बना लिए और नहरें बना कर कावेरी के पानी को मोड़ना शुरू कर दिया, जिसका तमिल नाडु ने ज़ोरदार विरोध किया.
- अब तक इस विवाद में केरल और पुदुच्चेरी भी कूद पड़े थे...विवाद बढ़ने के बाद केंद्र सरकार ने दखल दिया और 1976 में कावेरी जल विवाद के सभी चार दावेदारों के बीच एक समझौता हुआ...लेकिन इस समझौते का पालन नहीं हुआ और ये विवाद चलता रहा.
- बाद में विवाद सुलझाने के लिए केंद्र सरकार को एक बार फिर सामने आना पड़ा और वर्ष 1990 में cauvery water dispute Tribunal यानी CWDT का गठन हुआ.
- CWDT ने वर्ष 2007 में तमिल नाडु को 419 TMC यानी Thousand million cubic feet और कर्नाटक को 270 TMC पानी सालाना देने का आदेश दिया.
- लेकिन वर्ष 2016 में कम बारिश की वजह से कर्नाटक ने ये समझौता तोड़ दिया, जिसके बाद तमिलनाडु सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई.
- वर्ष 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी के कुल 740 TMC पानी में तमिल नाडु को 404 और कर्नाटक को 284.75 TMC पानी देने का आदेश दिया. इसके अलावा केरल को भी 30 TMC और पुदुच्चेरी को भी 7 TMC पानी देने को कहा गया.
- इसी वर्ष केंद्र सरकार ने कावेरी विवाद ख़त्म करने के लिए CWMA यानी cauvery water management authority का गठन भी किया...तब से अब तक CWMA ही इन राज्यों के बीच कावेरी का पानी बांटता आया है.
हालांकि बारिश के कम या ज़्यादा होने पर कावेरी में पानी घटता बढ़ता रहता है और इसीलिए इस अथॉरिटी के गठन के बाद भी दोनों राज्यों के बीच पानी को लेकर विवाद ख़त्म नहीं हुआ और कई बार तो इसे लेकर हिंसा तक भड़क चुकी है. इस बार भी जब CWMA ने कर्नाटक को 5 हज़ार क्यूसेक पानी देने के लिए कहा तो कर्नाटक सरकार ने इससे इंकार कर दिया और ये विवाद एक बार फिर भड़क उठा.
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कई और राज्यों में रहा है नदियों के पानी को लेकर विवाद
कृष्णा नदी दक्षिण भारत की दूसरी सबसे बड़ी नदी है और क़रीब 2 हज़ार किलोमीटर लंबी ये नदी महाराष्ट्र के महाबलेश्वर से निकल कर कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है. कृष्णा नदी के पानी को लेकर भी इन राज्यों के बीच विवाद था. जिसके निपटारे के लिए वर्ष उन्नीस सौ उनहत्रर में एक tribunal का गठन किया गया...लेकिन वर्ष 2014 में आंध्र प्रदेश का बंटवारा हो गया और नए राज्य तेलंगाना ने पानी का फिर से बंटवारा करने की मांग शुरू कर दी जिसके बाद अब इस विवाद को सुलझाने के लिए एक काउंसिल बनाई गई है.
-उत्तर भारत में सतलुज, रावी और ब्यास नदियों के पानी को लेकर भी काफ़ी पुराना विवाद है.
-1947 में भारत के बंटवारे के बाद, पंजाब से बहने वाली नदियों के पानी लेकर विवाद शुरू हो गए. जिसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच वर्ष 1960 में indus water treaty साइन की गई.
- इस समझौते के तहत सिंधु, चेनाब और झेलम के पानी पर पाकिस्तान का अधिकार माना गया जबकि भारत को सतलुज, रावी और ब्यास के पानी को इस्तेमाल करने का अधिकार मिल गया...ये पानी पंजाब, दिल्ली और कश्मीर के बीच बांटा गया.
- लेकिन वर्ष उन्नीस सौ छयासठ में पंजाब का बंटवारा होने के बाद नए राज्य हरियाणा ने अपने लिए और पानी की मांग शुरू कर दी.
- इस विवाद को 'सतलुज-यमुना लिंक नहर' बनाकर सुलझाने की कोशिश की गई लेकिन ये नहर आज तक पूरी नहीं हो सकी और ये विवाद सुप्रीम कोर्ट में है.
कुछ ऐसा ही विवाद महानदी पर भी है. महानदी छत्तीसगढ़ से निकल कर ओडिशा से होते हुए क़रीब बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है.
- वर्ष 1983 में मध्य प्रदेश और ओडिशा के बीच इस नदी के पानी को बांटने के लिए एक बोर्ड बनाने का समझौता हुआ था लेकिन ये बोर्ड आज तक नहीं बन सका है.
- मध्य प्रदेश का बंटवारा होने के बाद अब महानदी का मामला छत्तीसगढ़ के अंडर आ गया और अब ओडिशा का आरोप है कि छत्तीसगढ़ उन्हे उसके हिस्से का पानी नहीं दे रहा है.
ये नदियां भारत की समृद्ध विरासत का प्रतीक हैं और इसीलिए सुप्रीम कोर्ट का भी कहना है कि ये नदियां राज्यों की नहीं बल्कि राष्ट्रीय संपदा हैं. इनके पानी पर हर किसी का अधिकार होना चाहिए लेकिन आपसी हितों का टकराव कुछ ऐसा है कि ये नदियां कई बार दो राज्यों के बीच विवाद की वजह भी बन जाती हैं. कर्नाटक तमिलनाडु इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं.
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