पिछले दिनों पीएम नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने सहारनपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए कांग्रेस (Congress) के घोषणापत्र की तुलना मुस्लिम लीग (Muslim League) से की थी. उनके इस बयान को लेकर सियासी विवाद का माहौल बना हुआ है. आजादी से पहले कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच हमेशा ही सियासी प्रतिद्वंदिता देखने को मिलती है. वहीं, दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा (Hindu Mahasabha) के बीच जरूर कई मौके पर सियासी सहमति देखने को मिली है. आइए इसके बारे में तफ्सील से जानते हैं.
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परस्पर वैचारिक मतभेद और सियासी सहमति
हिंदू महासभा (Hindu Mahasabha) और मुस्लिम लीग (Muslim League), इन दोनों खेमों का नाम सुनते ही ऐसा लगता है जैसे एक नॉर्थ पोल हो तो दूसरा साउथ पोल. सामान्यतः दोनों ही दल एक दूसरे से वैचारिक रूप से बेहद अलग रहे हैं, लेकिन दोनों में जो एक समानता रही है, वो ये कि दोनों ही धर्म आधारित राजनीति और धर्म आधारित राष्ट्र (Theology) के सिद्धांत को मानते हैं. दोनों में एक और समानता है, वो ये कि तारीख में दोनों गठबंधन में रहे हैं, और मिलकर सरकारें चलाई हैं. ये बात 1930 के दशक के आखिरी और 1940 के दाशक के शुरुआती सालों की है. हिंदू महासभा के नेतृत्व विनायक दामोदर सावरकर कर रहे थे, वहीं मुस्लिम लीग की लीडरशिप मोहम्मद अली जिन्ना के हाथ में थी. ये उस समय की बात है जब कांग्रेस पर अंग्रेजों की तरफ से राजनीतिक प्रतिबंध लगे थे. इसका पूरा फायदा मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को हुआ. दोनों दलों तीन राज्यों में गठबंधन के तहत सरकार बनाई थी.
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जब सरकार में साथ आए दोनों दल
हिंदू महासभा को मुस्लिम लीग की तरफ से सिंध (Sindh) की सरकार में शामिल होने बुलावा मिला, जिसे महासभा ने सहर्ष स्वीकार किया. दोनों दलों की सहमति के साथ प्रांत में सरकार बनी. इसके बाद 1941 में इन दोनों धरों के बीच गठबंधन से बंगाल (Bengal)में भी सरकार बनी. बंगाल की इस सरकार में लीग के फजलुल हक प्रधानमंत्री थे, और महासभा के बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसकी सियासी अगुवाई कर रहे थे. महासभा और लीग के अलांयस वाली सरकार उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत (NWFP) में भी कायम हुई.
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