Hasdeo Arand: छत्तीसगढ़ में क्यों हो रहा है #HasdaoBachao आंदोलन? राहुल गांधी को पुराना वादा याद दिला रहे आदिवासी
हसदेव के जंगलों को बचाने के लिए चल रहा है आंदोलन
#HasdeoBachao आंदोलन अब धीरे-धीरे तेज होता जा रहा है. हसदेव जंगल में कोयले की खदान के विस्तार को मंजूरी मिलने के बाद विरोध बढ़ता जा रहा है.
डीएनए हिंदी: छत्तीसगढ़ का हसदेव जंगल (Hasdeo Aranya) इन दिनों चर्चा में है. यहां के जंगलों को बचाने के लिए स्थानीय लोग प्रदर्शन कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर #HasdeoBachao का नारा चल रहा है. लोग अलग-अलग तरीकों से अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं. कोई पेड़ से लिपटकर 'चिपको आंदोलन' जैसा संदेश देने की कोशिश कर रहा है तो कोई धरना प्रदर्शन कर रहा है. आइए, समझते हैं कि यह पूरा मामला आखिर क्या है और क्यों यहां के लोग प्रदर्शन कर रहे हैं...
छत्तीसगढ़ में घने जंगलों वाले इलाके में कोयले की खदानों का विस्तार किए जाने की वजह से स्थानीय लोग विरोध पर उतर आए हैं. वे कांग्रेस नेता राहुल गांधी को 2015 का उनका वादा याद दिला रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि वह जल-जंगल-जमीन बचाने के संघर्ष में आदिवासियों के साथ हैं. अब कांग्रेस की सरकार ही खदानों के विस्तार को मंजूरी दे रही है और तमाम विरोध प्रदर्शनों के बावजूद राहुल गांधी चुप हैं.
क्या है हसदेव अरण्य?
यह जंगल छत्तीसगढ़ के उत्तरी कोरबा, दक्षिणी सरगुजा और सूरजपुर जिले के बीच में स्थित है. लगभग 1,70,000 हेक्टेयर में फैला यह जंगल अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है. वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया की साल 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक, हसदेव अरण्य गोंड, लोहार और ओरांव जैसी आदिवासी जातियों के 10 हजार लोगों का घर है. यहां 82 तरह के पक्षी, दुर्लभ प्रजाति की तितलियां और 167 प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती हैं. इनमें से 18 वनस्पतियों अपने अस्तित्व के खतरे से जूझ रही हैं.
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क्या है विवाद?
छत्तीसगढ़ की मौजूदा सरकार ने 6 अप्रैल 2022 को एक प्रस्ताव को मंजूरी दी है. इसके तहत, हसदेव क्षेत्र में स्थित परसा कोल ब्लॉक परसा ईस्ट और केते बासन कोल ब्लॉक का विस्तार होगा. सीधी सी बात इतनी है कि जंगलों को काटा जाएगा और उन जगहों को पर कोयले की खदानें बनाकर कोयला खोदा जाएगा. स्थानीय लोग और वहां रहने वाले आदिवासी इस आवंटन का विरोध कर रहे हैं.
एक दशक से चल रहा है हसदेव बचाओ आंदोलन
पिछले 10 सालों में हसदेव के अलग-अलग इलाकों में जंगल काटने का विरोध चल रहा है. कई स्थानीय संगठनों ने जंगल बचाने के लिए संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं. विरोध के बावजूद कोल ब्लॉक का आवंटन कर दिए जाने की वजह से स्थानीय लोग और परेशान हो गए हैं. आदिवासियों को अपने घर और जमीन गंवाने का डर है. वहीं, हजारों परिवार अपने विस्थापन को लेकर चिंतित हैं.
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खदान के लिए काटे जाएंगे लाखों पेड़
कोल ब्लॉक के विस्तार की वजह से जंगलों को काटा जाना है. सरकारी अनुमान के मुताबिक, लगभग 85 हजार पेड़ काटे जाएंगी. वहीं स्थानीय लोगों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि हसदेव इलाके में कोल ब्लॉक के विस्तार के लिए 2 लाख से साढ़े चार लाख पेड़ तक काटे जा सकते हैं. इससे न सिर्फ़ बड़ी संख्या में पेड़ों का नुकसान होगा बल्कि वहां रहने वाले पशु-पक्षियों के जीवन पर भी बड़ा खतरा खड़ा हो जाएगा.
राजस्थान के लिए हुआ है कोल ब्लॉक का आवंटन
छत्तीसगढ़ और सूरजपुर जिले में परसा कोयला खदान का इलाका 1252.447 हेक्टेयर का है. इसमें से 841.538 हेक्टेयर इलाका जंगल में है. यह खदान राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित है. राजस्थान की सरकार ने अडानी ग्रुप से करार करते हुए खदान का काम उसके हवाले कर दिया है. इसके अलावा, राजस्थान को ही केते बासन का इलाका भी खनन के लिए आवंटित है. इसके खिलाफ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस भी चल रहा है. अब छत्तीसगढ़ सरकार ने खदानों के विस्तार को मंजूरी दे दी है. पहले से ही काटे जा रहे जंगलों को बचाने में लगे लोगों के लिए यह विस्तार चिंता का सबब बन गया है. इसके लिए, स्थानीय लोग जमीन से लिए अदालत तक लड़ाइयां लड़ रहे हैं.
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कई गांव और लाखों लोग होंगे प्रभावित
खदान के विस्तार के चलते लगभग आधा दर्जन गांव सीधे तौर पर और डेढ़ दर्जन गांव आंशिक तौर पर प्रभावित होंगे. लगभग 10 हजार आदिवासियों को डर है कि वे अपना घर गंवा देंगे. अपने घर बचाने के लिए आदिवासियों ने दिसंबर 2021 में पदयात्रा और विरोध प्रदर्शन भी किए थे, लेकिन सरकार नहीं मानी और अप्रैल में आवंटन को मंजूरी दे दी.
कांग्रेस से सवाल कर रहे हैं स्थानीय लोग
साल 2015 में मदनपुर गांव में राहुल गांधी आए थे. राहुल गांधी ने हसदेव अरण्य की सभी ग्राम सभाओं को को संबोधित करते हुए कहा था कि वह लोगों के जल-जंगल-जमीन बचाने के संघर्ष में उनके साथ हैं. अब राज्य में कांग्रेस की ही सरकार है लेकिन आदिवासियों की बात नहीं सुनी जा रही तो लोग परेशान हैं. कई बार प्रदर्शनों के बावजूद उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है. लोगों का कहना है कि वे इसके खिलाफ अपनी जंग जारी रखेंगे.
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बेहद खास क्यों है हसदेव अरण्य
साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के केवल 1 फीसदी हाथी ही छत्तीसगढ़ में हैं, लेकिन हाथियों के खिलाफ अपराध की 15 फीसदी से ज्यादा घटनाएं यहीं दर्ज की गई हैं. अगर नई खदानों को मंजूरी मिलती है और जंगल कटते हैं तो हाथियों के रहने की जगह खत्म हो जाएगी और इंसानों से उनका आमना-सामना और संघर्ष बढ़ जाएगा. यहां मौजूद वनस्पतियों और जीवों के अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है.
हसदेव अरण्य क्षेत्र में पहले से ही कोयले की 23 खदाने मौजूद हैं. साल 2009 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे 'नो-गो जोन' की कैटगरी में डाल दिया था. इसके बावजूद, कई माइनिंग प्रोजेक्ट को मंजूरी दी गई क्योंकि नो-गो नीति कभी पूरी तरह लागू नहीं हो सकी. यहां रहने वाले आदिवासियों का मानना है कि कोल आवंटन का विस्तार अवैध है.
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पेसा कानून का हवाला दे रहे हैं आदिवासी
आदिवासियों के मुताबिक, पंचायत एक्सटेंशन ऑन शेड्यूल्ड एरिया (पेसा) कानून 1996 के तहत बिना उनकी मर्जी के उनकी जमीन पर खनन नहीं किया जा सकता. पेसा कानून के मुताबिक, खनन के लिए पंचायतों की मंजूरी ज़रूरी है. आदिवासियों का आरोप है कि इस प्रोजेक्ट के लिए जो मंजूरी दिखाई जा रही है वह फर्जी है. आदिवासियों का कहना है कि कम से कम 700 लोगों को उनके घरों से विस्थापित किया जाएगा और 840 हेक्टेयर घना जंगल नष्ट हो जाएगा.
जंगलों को काटे जाने से बचाने के लिए स्थानीय लोग, आदिवासी, पंयायत संगठन और पर्यावरण कार्यकर्ता एकसाथ आ रहे हैं. स्थानीय स्तर पर विरोध प्रदर्शन से लेकर अदालतों में कानूनी लड़ाई भी लड़ी जा रही है कि किसी तरह इस प्रोजेक्ट को रोका जाए और जंगलों को कटने से बचाया जा सके.
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