Lucknow Special: लखनऊ की रानी कौन थी, जो Tawaif की तरह कोठे पर नाचती थी, योद्धाओं की तरह तलवार चलाती थी

Written By कुलदीप पंवार | Updated: Oct 19, 2024, 11:41 PM IST

Last Queen of Awadh Begum Hazrat Mahal: लखनऊ को 'नवाबों का शहर' कहा जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि 'तहजीब के शहर' की आखिरी रानी यानी नवाब बेगम एक तवायफ थी? जो कोठे पर ही नहीं नाची बल्कि तलवार लेकर अंग्रेजों से भी भिड़ गई थी.

Last Queen of Awadh Begum Hazrat Mahal: लखनऊ को देश के सबसे पॉवरफुल राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी बनने का सौभाग्य यूं ही नहीं मिल गया था. इस शहर का इतिहास भी इतना खास था कि यह राजधानी बनने की होड़ में सबसे आगे निकल गया. क्या आप जानते हैं कि कभी अवध के नवाबों की राजधानी रहे लखनऊ की आखिरी रानी यानी अवध की बेगम एक तवायफ हुआ करती थीं. नहीं जानते तो चलिए कोठे पर नाचने वाली तवायफ से आखिरी ताजदार-ए-अवध यानी नवाब वाजिद अली शाह की छोटी पत्नी बनने तक का सफर तय करने वाली बेगम हजरत महल की कहानी हम आपको सुनाते हैं. 

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फैजाबाद के गरीब परिवार में हुआ जन्म, चाची ने बेच दिया कोठे पर

बेगम हजरत महल का जन्म साल 1820 में फैजाबाद के एक सैयद परिवार में हुआ था. जन्म देते समय उनकी मां गुजर गईं. उनका नाम मुहम्मदी खानम रखा गया. खुद को पैगंबर मोहम्मद का वंशज बताने वाला यह परिवार बेहद गरीब था. पिता मुहम्मदी को लेकर लखनऊ आ गए, लेकिन 12 साल की उम्र में उनका भी निधन हो गया. मुहम्मदी के पालन पोषण का बोझ आने पर चाची ने उन्हें मोटी रकम के लालच में तवायफों अम्मन और इमामम को बेच दिया. इस तरह मुहम्मदी लखनऊ के तवायफ मोहल्ले में आ गईं. साथ ही फारसी भाषा में शिक्षा भी मिलने लगी.

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नवाब के 'परीखाना' की बन गईं महक परी

मुहम्मदी सुंदर थीं, इसलिए उन्हें नवाबों के शाही हरम की तवायफ बनने के लिए संगीत और नृत्य की तालीम दी जाने लगी. मुहम्मदी को 23 साल की उम्र में 'परीखाना' में एंट्री मिल गई, जो नवाब वाजिद अली शाह के शाही हरम का नाम था. कुछ ही दिन में वे नवाब वाजिद अली शाह की नजरों में चढ़ गईं. इसके बाद उन्हें नाम मिला 'महक परी'. महक परी बनने के बाद वे नवाब की खास हो गईं. 

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नवाब को ऐसी भायीं कि रचा लिया मुता विवाह

नवाब वाजिद अली शाह को महक परी ऐसी भा गईं कि वे एक पल भी उसके बिना नहीं रहने लगे. नवाब ने उनसे मुता विवाह कर लिया. यह इस्लाम में एक तरह की कांट्रेक्ट मैरिज होती है. मुता विवाह के बाद महक परी नवाब की छोटी बेगम बन गईं. नवाब ने उन्हें पहले 'इफ़्तिखार-उन-निशा' की उपाधि दी और फिर बाद में उनका नाम बेगम हजरत महल रखा गया. वे इतनी ताकतवर शख्सियत बन गईं कि उनकी कही बात अवध के गलियारों में नवाब के हुक्म के बराबर मानी जाने लगी.

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नवाब को अंग्रेजों ने किया निर्वासित तो हो गईं नाराज

अंग्रेजों ने साल 1856 में नवाब वाजिद अली शाह को अवध की गद्दी से उतारकर गिरफ्तार कर लिया. बाद में उन्हें कलकत्ता (अब कोलकाता) निर्वासित कर दिया गया. नवाब जाने से पहले बेगम हजरत महल समेत अपनी सभी 9 बीवियों को तलाक दे गए. इससे बेगम हजरत महल नाराज हो गईं और इसका जिम्मेदार अंग्रेजों को मानने लगीं. वे लखनऊ में ही रुकी रहीं.

1857 का छिड़ा संग्राम तो थाम ली तलवार

बेगम हजरत महल अंग्रेजों के खिलाफ मौके की ताक में थीं. तभी 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम छिड़ गया. बेगम हजरत महल (Begum Hazrat Mahal) ने हवा का रुख भांपा और कानपुर के क्रांतिकारी पेशवा नाना साहेब द्वितीय व उनके सेनापति तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजा दिया. 'गदर' में बेगम ने हाथ में तलवार लेकर क्रांतिकारियों के साथ लखनऊ को चारों तरफ से घेर लिया. चिनहट की लड़ाई में अंग्रेज हार गए और लखनऊ फिर से बेगम हजरत महल का हो गया. उन्होंने अपने बेटे बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित कर दिया.

नेपाल की धरती पर ली आखिरी सांस, वहीं हो गईं दफन

बेगम हजरत महल की सेना को बाद में अंग्रेजों से हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद वे अपने बेटे के साथ बहराइच के रास्ते नेपाल चली गईं, जहां के राजा जंग बहादुर ने उन्हें शरण दीं. अंग्रेजों ने क्रांति कुचलने के बाद वापस बुलाने के लिए बहुत सारे प्रलोभन दिए और ढेर सारा धन भी देने की पेशकश की, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया.बेगम हजरत महल का निधन 59 साल की उम्र में 7 अप्रैल, 1879 को काठमांडू में हुआ. उन्हें काठमांडू की जामा मस्जिद के मैदान में दफनाया गया था. आजादी के 37 साल बाद क्रांति में उनके योगदान को भारत सरकार ने सराहा और 10 मई, 1984 को उनकी याद में डाक टिकट जारी किया गया था.

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