अपने शहर सिद्धार्थ नगर की जान डॉ शुभ्रा डिसेबल्ड डॉक्टर हैं पर उनकी कहानी केवल इतनी नहीं है. जानिए उनका पूरा सफर कंचन सिंह चौहान के शब्दों में.
- कंचन सिंंह चौहान
शुभ्रा सिद्धार्थनगर जैसे छोटे से जिले में एक सफल चिकित्सक के रूप में लोगों की सेवा कर रही हैं. हंसती-मुस्कुराती शुभ्रा अपनी जिंदगी से बहुत खुश हैं और आगे अभी बहुत सारे काम करने के सपने अपनी आंखों में सजा रखे हैं. शुभ्रा का लगभग पूरा शरीर पोलियो की चपेट में है.
दवा की ख़राबी की वजह से हुआ था शुभ्रा को पोलियो
हम जब पोलियो की बात करते हैं तो जागरूकता की बात करते हैं. हम बात करते हैं कि जागरूकता की कमी ने भारत को पोलियो से मुक्त नहीं होने दिया है. कितने ही माता पिता ताजिंदगी खुद को ‘लम्हों में खता की थी, सदियों की सज़ा पाई’ के अपराध-भाव से मुक्त नहीं कर पाते हैं. अक्सर यही लगता है कि काश हमने थोड़ी सी जागरूकता दिखाई होती और बच्चे का ‘पोलियो वैक्सीनेशन’ करवा लिया होता. लेकिन नहीं... शुभ्रा के माता-पिता का दुःख यह नहीं है कि ‘काश हमने शुभ्रा का पोलियो वैक्सीनेशन’ करा लिया होता. उनका कष्ट यह है कि काश वैक्सीनेशन की वह दवा जांच-परख कर भेजी गयी होती जो शुभ्रा और उसके साथ के बच्चों को दी गयी.
शुभ्रा के पिता ख़ुद चिकित्सक थे और मां एक विद्यालय की प्रधानाचार्य. शादी के सात साल बाद सिद्धार्थनगर जनपद के एक छोटे से स्थान चेतिया में जब शुभ्रा अपनी माता-पिता की प्रथम सन्तान के रूप में जन्मी तो माता-पिता के साथ-साथ परिवार के हर सदस्य की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा.
चिकित्सक पिता ने शुभ्रा का दो बार पोलियो वैक्सीनेशन करवाया लेकिन उनका मन शंका में आने लगा जब उन्होंने सुना कि उस पोलियो वैक्सीनेशन वाले हर बच्चे का स्वास्थ्य खराब है. कुछ की तो मृत्यु हो गयी और कुछ आज भी बहुत बुरी शारीरिक स्थिति में है. इसी आशंका के बीच 8 महीने की शुभ्रा एक दिन तेज़ बुखार से तपने लगी. इतनी कि मां परेशान हो कर बर्फ की सिल्ली पर लिटा देती लेकिन बुखार उतरने का नाम ना लेता. तीन दिन बाद जब बुखार उतरा तो शुभ्रा की शारीरिक गतिविधि भिन्न थी. उसका दाहिना हाथ उठाओ तो निर्जीव लकड़ी की तरह गिर जा रहा था. वह अपने पैरों को छोटे बच्चों की तरह अब उस तरह नहीं चला रही थी जिस तरह छोटे बच्चे चलाते हैं. शुभ्रा का पूरा शरीर अब पोलियो की चपेट में आ चुका था. शुभ्रा का दाहिना हाथ, कमरे के नीचे दोनों पैर और पूरा सीना, पीठ का कुछ भाग, मतलब लगभग पूरा शरीर ही पोलियो (Polio) की चपेट में है.
मां-पिता का संघर्ष
फिर वही सब शुरू हुआ जो ऐसी संतानों के माता-पिता की जिंदगी में शुरू होता है. मालिश, एक्सरसाइज़, यह डॉक्टर, वह डॉक्टर, यह दवा, वह दवा... बड़ी होती शुभ्रा को मां ने खुद ही पढाना शुरू किया. इस बीच उनकी दूसरी बेटी शिप्रा भी आ चुकी थी. शुभ्रा की मां शुभ्रा के साथ-साथ एक छोटी बच्ची और विद्यालय की प्रधानाचार्य का काम भी सम्भालतीं. वे शुभ्रा को उसके स्कूल छोड़तीं फिर खुद विद्यालय जातीं
स्कूल के लोगों के बीच सुगबुगाहट शुरू हो गयी और आखिर किसी अध्यापक ने कह ही दिया कि आप अपनी विकलांग लड़की को स्कूल छोड़ने जाती हैं उसमें आपको देर हो जाती है आने में. आप अपना समय सही कीजिये. शुभ्रा की मां ने प्रधानाचार्य का पद छोड़ दिया. शायद उन्हें लगा कि शुभ्रा को उनकी ज़रुरत अधिक है.
सिद्धार्थनगर तब बस्ती जिले में आता था. इस बीच सिद्धार्थनगर को जनपद का दर्जा मिल गया और शुभ्रा के पापा उनकी मां को ले कर सिद्धार्थनगर चले आए. यहां उन्होंने अपनी क्लीनिक डाली और शुभ्रा-शिप्रा को पढ़ने के लिए पास के स्कूकूल में भेजना शुरू कर दिया. यहां छोटी शिप्रा शुभ्रा का सहारा थी. वह उसे पकड़ कर, सम्भाल कर उसे साथ स्कूल लाती और क्लास में बैठा कर खुद अपनी कक्षा में पढने चली जाती.
जब होम ट्यूटर ने कहा, “लड़की के दिमाग तक में पोलियो का असर है”
कक्षा 2 या तीन में 3 में थी शुभ्रा. घर पर एक ट्यूटर लगा दिया था शुभ्रा के पिता जी ने ट्यूशन के लिए. वे ट्यूटर आते और अपना समय व्यतीत कर के चले जाते. शुभ्रा के ज्ञान में ज्यादा अंतर नहीं आ रहा था. शुभ्रा के पिता ने जब इस बारे में बात की तो मास्टर साहब ने कहा, “ इस लड़की को कुछ भी समझ में नहीं आता जो मैं पढाता हूँ. मुझे ऐसा लगता है डॉक्टर साहब कि इस लड़की के दिमाग तक में पोलियो (Polio) का असर है.”
शुभ्रा के पिता को दुःख कम हुआ क्रोध ज़्यादा आया उन्होंने उसी दिन से शुभ्रा को खुद पढाना शुरू कर दिया और कुछ ही दिन में उन्हें यह कहते हुए छुट्टी दे दी कि उसका पोलियो (Polio) मैं ठीक कर लूँगा. शुभ्रा ने फिर कभी पढाई के मामले में पीछे मुड़ कर नहीं देखा. इस बीच शुभ्रा की तीसरी बहन भी आ चुकी थी उनके परिवार में.
पढ़ाई के दिन या फिर Disability के साथ नया संघर्ष
कुछ दिन बाद शुभ्रा के पिता ने शुभ्रा-शिप्रा का एडमिशन जनपद में नये खुले इंग्लिश मीडियम स्कूल में करा दिया. शिप्रा यहां भी शुभ्रा के साथ थी. यहां अध्यापक, सहपाठी सब कुछ शुभ्रा के अनुकूल और शुभ्रा को प्रोत्साहित करने वाले थे. 8 वीं तक पढाई शुभ्रा ने उसी स्कूल से की.
9वीं कक्षा में प्रवेश के पूर्व ही शुभ्रा ने अख़बार में पढ़ा कि पास के जनपद गोरखपुर के एक अस्पताल में इलिजारोव पद्धति से पोलियो (polio) ग्रसित पैर का ऑपरेशन कर के लोगों को स्वस्थ किया जा सकता है. शुभ्रा ने उम्मीद से भर कर यह अख़बार अपने पिता और बाबा जी को दिखाया. डॉक्टर से सम्पर्क करने पर उन्होंने बताया कि शुभ्रा के 4 ऑपरेशन करने होंगे दोनों पैर के दो-दो ऑपरेशन.
शुभ्रा के पिता ने नवीं का फॉर्म प्राइवेट भरवाने का निर्णय लिया और शुभ्रा का ऑपरेशन करवाया. इलिजारोव पद्धति से ऑपरेशन एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया है. इसमें नट-बोल्ट, कार्बन या स्टील वायर के माध्यम से एक रिंग ऑपरेशन के स्थान पर डाल दी जाती है. इस भारी-भरकम रिंग को झेलना बड़ा मुश्किल काम होता है. चूंकि नट बोल्ट पर सब कुछ कसा रहता है तो कुछ दिनों में घाव पकने लगते हैं और जल्दी इसकी सफाई वगैरह के लिए कोई चिकित्सक या कम्पाउण्डर नहीं मिलते. शुभ्रा ख़ुद अपने उन घावों को दांत पर दांत रख, होंठ भींच कर साफ़ करती थी.
तीन महीने बाद जब शरीर से खींच कर वह रिंग बाहर निकाली जाती है तो आप समझ नहीं सकते कि कितना दर्द होता है उस प्रक्रिया में. शुभ्रा को एक साल के अंदर दो बार इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ा. पहली बार ट्यूटर घर आते थे पढाने को और दूसरी बार जुलाई से सितम्बर के बीच हाई स्कूल की कक्षाएं शुरू हो गयी थीं. अब प्राइवेट पढ़ना मुमकिन नहीं था. शुभ्रा उन दर्दनाक रिंग्स के साथ पहली मंजिल पर लगने वाली क्लासेज़ तक चढ़ कर जाती थी. देखने वाले दंग थे. शुभ्रा अपने मंजिल के संघर्ष में किसी योगी की तरह तप रही थी.
यह समय स्कूल में पढने का समय था. तीन साल तक शुभ्रा इसी स्कूल में पढ़ी. यहां के अनुभव शुभ्रा के लिए बहुत खराब थे. सहपाठी तो यहां भी बहुत अच्छे थे लेकिन उन अध्यापकों को शुभ्रा आज याद भी नहीं करना चाहती जो शुभ्रा को हर पल हिकारत की नज़र से देखते थे. उन्हें लगता कि शुभ्रा एक बोझ है..पता नहीं क्यों उन्हें ऐसा लगता था जबकि शुभ्रा की सहेलियां उसके साथ होतीं और आचार्य जी को तो कुछ अलग से शुभ्रा के लिए करना भी नहीं पड़ता.
शुभ्रा इन कक्षाओं में ना ही टिफिन ले जाती थी और ना ही पानी की बोतल. ऐसे हर छात्र की तरह उसे भी डर था कि कहीं यूरिन या मोशन्स आ गये तो वाशरूम भला कैसे जाएगी. वे वाशरूम कितने Disabled Friendly होते हैं, हम सब जानते हैं.
शुभ्रा वह दिन याद कर के आज भी दुखी हो जाती है जब इंटरमीडिएट में पूरी कक्षा बॉटनी टूर पर जा रही थी. प्रधानाचार्य जी ने कहा था कि सबको पैसे जमा करना है. शुभ्रा ने भी पैसे जमा कर दिए. आचार्य जी ने पैसे जमा कर लिए क्योंकि यह नियम था लेकिन शुभ्रा को टूर पर ले जाने से मना कर दिया. “ तुम जाओगी तो सबकी परेशानी बनोगी.” कहते हुए.
“फिर आचार्य जी मेरे पैसे?”
“पैसे जमा करना सबके लिए क्म्प्लसरी है.”
“आचार्य जी मैं अपनी बहन को ले जाऊंगी और ये सब दोस्त रहेंगी मेरी, आपको कोई परेशानी नहीं होगी.”
“अरे तुम्हें कुछ मालूम भी है? जब भगवान ने कोई परेशानी दी है तुम्हें तो उसे झेलना सीखो, दूसरों के लिए समस्या मत बनो. तुम अपने पैसे पर चाहो तो अपनी बहन को भेज दो. तुम्हारे जाना खुद में एक समस्या है.”
शुभ्रा अपनी भरी आंखों के साथ चुप हो गयी. उसने बहन को भेज दिया. बारहवीं के बाद करियर चुनने का समय था. शुभ्रा का सपना था कि एमबीबीएस कर के डॉक्टर बनें पर पिता का मन उसे एक सुरक्षित भविष्य देना चाहता था. उन्हें पता था कि एमबीबीएस के छात्र और अध्यापक इतने सहयोगी नहीं होंगे कि शुभ्रा को सहज शिक्षा मिल सके. उन्होंने उसे बीएचएमएस कर निजी क्लीनिक खोलने को कहा. शुभ्रा तीन दिन अनशन उपवास पर रही, फिर पिता की समझाहट के आगे झुकना पड़ा.
दर्द का सफर - Disability से लड़ाई
बीएचएमएस की क्लास में एडमिशन के लिए जब शुभ्रा को ले कर उसके पिता सीवान पहुँचे तो पता चला कि अभी शुभ्रा की उम्र एक साल कम है इस पढाई के लिए. शुभ्रा के दूसरे पैर के दो ऑपरेशन बाकी थे. पढाई और करियर के बीच मिले इस समय में शुभ्रा तीसरा ऑपरेशन कराने गोरखपुर चली गयी. शुभ्रा जब तीसरे ऑपरेशन के बाद होश में आई तो उसने देखा कि उसका ऑपरेशन उसी पैर में, उसी जगह कर दिया गया था जहां पहले हुआ था.
इतनी दर्दनाक प्रक्रिया और इतनी बड़ी भूल लेकिन अब कुछ नहीं कर सकते थे. डॉक्टर ने उन्हें डेढ़ महीने बाद बुलाया था बोल्ट से हड्डी को सेटल करने के लिए. शुभ्रा जब घर गयी तो कुछ दिन बाद उसके दादा जी का देहांत हो गया. पूरा परिवार इस दुःख में फंस गया. शुभ्रा को डेढ़ माह बाद डॉक्टर के पास ना ले जाया जा सका.
जब वह दोबारा डॉक्टर के पास गयी तब तक तीन महीने हो चुके थे ऑपरेशन को. हड्डी एक दिशा में बढ़ गयी थी. उसे सही समय पर सेटल नहीं किया गया था. इस बढ़ी हुई हड्डी को अब काटना था. इसके लिए बेहोश नहीं किया जाना था.
शुभ्रा उस दर्द को जब भी याद करती है तो पोर-पोर में दर्द भर जाता है. फरवरी का महीना था. दर्द से शुभ्रा के पसीने छूट गये. उसने स्वेटर उतार फेंका. खट की आवाज़ के साथ बढ़ी हुई हड्डी तोड़ दी गयी... आह शुभ्रा की चीख मां के लिए असहनीय थी, वे वहीं बेहोश हो गयीं.
इस बार रिंग छः महीने पड़ी रही. ऑपरेशन से शुभ्रा का पैर सीधा हो गया था बस. बाकी कोई लाभ शुभ्रा को नजर नहीं आया. मेडिकल में प्रवेश लेने का समय आ चुका था. शुभ्रा ने प्रवेश परीक्षा दी और पास हो गयी.
संघर्ष और फिर सफलता
अब नये संघर्ष की शुरुआत के दिन थे. यहां शुरुआत में वह अपनी सीनियर्स के साथ रही. कुछ दिन बाद अपनी बैचमेट के साथ रहना शुरू हुआ. एक सहायक थी जो सभी बच्चों का खाना बनाने और बर्तन मांजने का काम करती थी, पर जब भी वह छुट्टी पर होती, सभी लडकियां मिल कर खाना बना लेती थीं. शुभ्रा नहीं बना सकती थी. उसे ताने सुनने पड़ते कि “यह तो हमारी सास हैं. बैठी रहेंगी इन्हें खिला दो.”
शुभ्रा 5-6 लोगों के बर्तन अकेले मांज देती जिससे उन खाना बनाने वाली लडकियों के काम में बराबरी से हिस्सा ले सके लेकिन वे ना जाने क्यों फिर भी नाराज़ रहती थीं. वरिष्ठों को दिखने के लिए वे उसका हाथ पकड़ तक सीढ़ी तक लातीं और फिर छोड़ देतीं. शुभ्रा दूसरे दिन यह भी ना कह पाती कि “अभी सीढियों पर तो तुम छोड़ ही दोगी मेरा हाथ तो अभी ही छोड़ दो.” उसे पता था कि आखिर रहना तो इन्हीं लडकियों के साथ है.
एक साल खत्म होते-होते शिप्रा आ गयी उसके साथ. शिप्रा शुभ्रा की दोस्त, सहारा, मेंटर सब कुछ है. उसने अपना बहुत कुछ त्यागा है शुभ्रा के लिए. वह भी चाहती थी एमबीबीएस डॉक्टर बनना लेकिन उसने निर्णय लिया कि वह उसी कालेज में पढ़ेगी जहां दीदी पढ़ रही हैं और एमएस ही करेगी. यह शुभ्रा की कहानी थी. उसी शुभ्रा की जिसके सामने disability के साथ कई और बाधाएं थीं पर आज वह समाज की रौशनी है.
(कंचन सुख्यात लेखिका, ब्लॉगर हैं. साथ ही प्रखर एक्टिविस्ट भी है. विकलांग विमर्श पर केन्द्रित उनकी पुस्तक का नाम है ‘तुम्हारी लंगी.’)
(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)