अम्मा कहती थीं जौ खाना या चना पर रियाज़ ना छोड़ना – पंडित बिरजू महाराज

डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated:Jan 17, 2022, 12:48 PM IST

पंडित बिरजू महाराज कथक की दुनिया के सूर्य माने जाते हैं. आज दिल्ली में हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया. डीएनए हिंदी पर उनकी एक याद...

डीएनए हिंदी :  पिछ्ले साल जब रज़ा फ़ाउंडेशन अपना बहुचर्चित युवा समारोह मना रहा था, फ़ाउंडेशन ने भारतीय कला संकाय के सात देदीप्यमान सितारों पर संवाद रखा था. इन सात सितारों में एकमात्र जीवित कलाकार पंडित बिरजू महाराज थे. अभी बीते नवम्बर में ही आयोजित इस समारोह में किसे मालूम था कि कथक की दुनिया का यह सूर्य महीने-दो महीने बीतते-बीतते अस्त हो जाएगा.

रज़ा के उस उत्सव में तनिक देर की ख़ातिर उनका आगमन हुआ था. भावप्रवण सम्बोधन में उन्होंने कई मार्के की बात कही थी. रियाज़ की आवश्यकता पर बोलते हुए उन्होंने कहा था कि ‘अम्मा कहती थीं जौ खाना या चना पर रियाज़ ना छोड़ना…’

अपने इस संभवतः आख़िरी सार्वजनिक उद्बोधन में पंडित बिरजू महाराज (Birju Maharaj) ने अपने शुरुआती दिनों को ख़ूब याद किया था. बतौर बृजमोहन मिश्रा पैदा हुए बिरजू महाराज लखनऊ घराने के पंडित अच्छन महाराज के पुत्र थे.

उम्र केवल आँकड़ा रहा

उम्र पंडित बिरजू महाराज (Birju Maharaj) के मामले में कभी बहुत बड़ा तत्व नहीं रही. बेहद कम उम्र में कथक में पारंगतता हासिल करना और लगभग अस्सी की वयस तक सक्रिय रहना, बिरजू महाराज ने दोनों मक़ाम हासिल किया था… कालका-बिंदादीन परम्परा के वाहक रहे बिरजूमहाराज ने कथक के विशाल परिदृश्य के अतिरिक्त फ़िल्मी संकाय में भी काफ़ी महत्वपूर्ण काम किया. देवदास, इश्किया, डेढ़ इश्किया, बाजीराव जैसी फ़िल्मों में आदि फ़िल्मों में उन्होंने कोरियोग्राफी की. बाजीराव के लिए उन्हें फिल्म फेयर भी मिला था.

 

कला निरंतरता का नाम है

अस्सी से अधिक की उम्र में भी लगातार सक्रिय रहे बिरजू महाराज अपनी निरंतरता को लेकर बहुत जागरुक रहते थे. लगातार रियाज़ पर उनके विचार हम पहले ही दर्ज कर चुके हैं पर कला के क्षेत्र में निरंतरता की क्या अहमियत होती है, इस बाबत उन पर किताब लिख रही और उनकी करीबी रही जोशना बैनर्जी आडवाणी कहती हैं, “महाराज जी से जब भी निरंतरता पर बात होती तो वे सदैव यही कहते कि निरंतर प्रयास से ही निरंतरता बनी रहती है. दुःख और पीड़ा में कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए.“

गुरु शिष्य परम्परा के बारे में जोशना महाराज जी के हवाले से कहती हैं,  " शिष्य को हमेशा इंतज़ार करना होता था कब गुरूजी कुछ बोल दें और शिष्य उसे ग्रहण कर ले. शिष्य के लिए गुरू का खाना, बैठना, उठना सबकुछ शिक्षा होती है. मेरे गुरू मेरे माता पिता और काका रहे. कथक विरासत में मिली है और कथक ही मेरे लिए एक कर्म, तपस्या और जीवन है. हिंदू राजा के दरबार में पूर्वज कथा सुनाया करते थे, फिर बाद में मुगल काल तक आते आते यह कथा की विधा कथक नृत्य में तब्दील हो गई. पहले और अब की कथक शैली में कई बदलाव आये हैं. तकनीकी विकास से शास्त्रीय नृत्य की ओर लोगों का रूझान बढ़ा है और नृत्यकला और भी संपन्न हुई है. नित नये प्रयोग किए जा रहे हैं लेकिन हमें नृत्य या संगीत की मूल भावना से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए. भारतीयों से ज़्यादा विदेशियों की ललक है. मेरी एक शिष्या जापान की है और वह आंधी, तूफान, बारिश हर एक कठिन क्षण में कथक सीखना नहीं छोड़ती थी. कई बार देश में नृत्य सीखने आये शिष्य किसी कारणवश आ न सके, लेकिन वह जापानी शिष्या अवश्य आई. आज उसी जापानी शिष्या ने जापान में कथक नृत्य और संगीत विद्यालय खोल लिया है.“

पतंगबाज़ी के शौकीन थे पंडित बिरजू महाराज

बिरजू महाराज (Birju Maharaj के जीवन के भिन्न पहलुओं को खोलते परखते कई जानकारियां मिली जो काफी अनोखी हैं. उन्हें पतंगबाज़ी का शौक था. वे रेडियो और अन्य इलेक्ट्रॉनिक चीज़ों को खोलकर उसे वापस ठीक करते थे. शतरंज और ताश के शैदाइ महाराज जी खाली वक़्त में कविता भी लिखा करते थे. उनके नज़दीक रहे लोगों का कहना है कि बिरजू महाराज की अंगुलियां हमेशा मुद्रावत अर्थात किसी भंगिमा में लीन रहती. वे सोते हुए भी अपनी अंगुलियों से कुछ न कुछ बुन रहे होते. अपनी मुख मुद्रा और भवों से प्रस्तुत भाव के लिये मशहूर बिरजू महाराज इस वक़्त जब चिर-निद्रा में लीन हैं, ज़रुर किसी लोक में कोई मुद्रा साध रहे होंगे.

 

 

 

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