Death Anniversary : 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयां और

डीएनए हिंदी वेब डेस्क | Updated:Feb 15, 2022, 02:27 PM IST

इस साल असदुल्लाह बेग ख़ान 'ग़ालिब' को गुजरे  हुए 152 बरस बीत जाएंगे पर ग़ालिब का नाम तब तक रहेगा जब तक शेर कहे और सुने जाएंगे.

डीएनए हिंदी : 

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल

जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

यह शे'र रेख्ते के उस्ताद मिर्ज़ा ग़ालिब का है. वही ग़ालिब जिन्हें कविता की किसी भी विधा से सम्बन्ध रखने वाले लोग पूजते हैं. इस साल उन्हीं असदुल्लाह बेग ख़ान ग़ालिब को गुजरे  हुए 152 बरस बीत जाएंगे.  कुल सात बरस के थे जब दिल्ली आए थे. उन्नीसवीं सदी का  शुरूआती साल था वह जब मिर्ज़ा दिल्ली आए थे और फिर यूं दिल्ली के हुए कि दिल्ली उनकी हो गई.

दिल्ली में बल्ली मारां और कासिम जान की उन गलियों ने उनका बचपन देखा, उनके शे'र देखे, उनका रूतबा देखा और देखी रेख्ते के उस उत्साद की रुखसती भी जो पूरी हनक से कहता था,

"हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे

कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयां और "

दिल्ली का यह सुखनवर अपना मोल जानता था और अपने से पहले आए हुए कविता के महारथियों का मान भी करता था. आगरा से दिल्ली आए ग़ालिब का राबता जब मीर और उनके अश'आर (शेरों) से हुआ तो वे मंत्रमुग्ध रह गए. मीर को सुनने के बाद ग़ालिब ने कहा था,

"रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'

कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था"

दिल्ली ग़ालिब के लिए पनाहगाह ही नहीं, उनकी ससुराल भी थी. हालांकि ग़ालिब ताउम्र अपनी ससुराल से अलग घर लेकर रहे. शराब और सुखन के बराबर शौक़ीन ग़ालिब दिल्ली सल्तनत के आख़िरी नवाब बहादुर शाह ज़फर के प्रिय शायर थे. बहादुर शाह ने उन्हें "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" सरीख़े शाही ख़िताबों से नवाजा था.

दिल्ली के दूसरे मशहूर शायर ज़ौक़ के समकालीन थे. बाप-दादा फौजी थे पर असद को बस शेर ओ शायरी रास आई. इतनी  रास आई कि ज़िन्दगी भर उन्होंने कुछ और काम न किया. उनके बारे में मशहूर है कि वे कर्जा लेकर भी शराब पीते थे और यह उन्होंने अपने ही शे'र में ख़ूब दर्ज किया है.

"क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन"

जब पैर दबाने के बदले मिर्ज़ा ग़ालिब ने दिया था मायूस करने वाला जवाब, आम ना खाने वालों को कहते थे-गधा

दिल्ली कॉलेज के प्रोफेसर होते-होते रह गए ग़ालिब

कहा जाता है कि 1842 में मिर्ज़ा ग़ालिब को दिल्ली कॉलेज(वर्तमान अम्बेडकर यूनिवर्सिटी) में पर्शियन पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया था. ग़ालिब पहले दिन क्लास लेने  गेट पर पहुंचे पर वहां उन्हें लिवाने के लिए प्रिंसिपल को मौजूद न पाकर वापस लौट गए. उर्दू अदब के शहंशाह  का यह मान ताउम्र बना रहा. अपने मान को वह इन दो मिसरों में जज़्ब करते हैं.  

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता

डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता

*मिसरा (शे'र की पंक्तियां)

ghalib mirza ghalib death anniversary मिर्जा गालिब ग़ालिब