फिल्मी थी Jai Prakash Chouksey की जिंदगी, कहते थे- सिनेमा के बिच्छू ने मुझे बचपन में ही काट लिया था

| Updated: Mar 03, 2022, 12:25 PM IST

jai prakash chauksey

बुधवार सुबह लंबी बीमारी के बाद मशहूर फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे का निधन हो गया. वह 83 साल के थे.

उमाशंकर सिंह

मशहूर फिल्म क्रिटिक जयप्रकाश चौकसे की सबसे बड़ी पहचान दैनिक भास्कर में उनका लगभग 26 साल तक चले डेली कॉलम ‘परदे के पीछे’ से थी. 1995 में शुरू हुआ उनका ये रोजाना का स्तंभ लगभग उनके जीवन तक चला. इतने सालों में उन्होंने ये स्तंभ अपने ड्रॉइंग रूम से लेकर, सफर में, अस्पताल में, गाड़ी में, एयरपोर्ट के लॉन में, जहां मौका मिला वहां से बिना नागा लिखा. उस स्तंभ ने उन्हें पहचान,लोकप्रियता और एक किस्म का स्टारडम दिया. उनके प्रशंसकों में ठेले खोमचे वालों से लेके, दुकानदार, व्यापारी, मध्यवर्गीय गृहणियां, राजनेता, अधिकारी, छात्र, फकीर  सभी वर्गों के लोग थे. लिखना जयप्रकाश चौकसे की आदत हो गई थी और उन्हें पढ़ना उनके विशाल पाठक वर्ग की. वह जब सुबह उठते तो सबसे पहले यह सोचते कि आज किस विषय पर लिखूंगा. 

फिर उस विषय पर उनकी सोच दोपहर बाद तक चलती और फिर उसे वह अपने अंदाज में परदे के पीछे में परोस देते. असाध्य बीमारी और बुढ़ापे से जिंदादिली के साथ लड़ते हुए लगातार कमजोर हो रहा उनके शरीर का तंत्र, छीज रही स्मृतियां उन्हें अब और लिखने की इजाजत नहीं दे रही थीं. इस हालत में वह अपने पाठकों को शुक्रिया अदा करते हुए विदा लेना नहीं भूले और अपने कॉलम और अपनी सांस दोनों को थोड़ा आगे-पीछे पूर्णविराम दे दिया.
  
वह हिंदुस्तान के सबसे लोकप्रिय स्तंभकार थे मगर महज वही नहीं थे. वह फिल्म पत्रकार, फिल्म लेखक और फिल्म वितरक भी थे. फिल्म वितरण का काम उन्होंने अपने योग्य छोटे बेटे आदित्य चौकसे को देकर अपने को उससे मुक्त कर लिया था और वक्त के साथ फिल्म लेखन उनसे छूट गया था पर उन्होंने फिल्म लेखन को छोड़ा नहीं था. वह किसी चीज को आसानी से छोड़ने वालों में थे भी नहीं. फिल्म लेखन आपसे एक बहुत लंबा कमिटमेंट मांगता है. किसी एक कहानी पर महीनों-सालों रुके रहने का सब्र.

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बीच में जिंदगी की अपनी लालचें और फौरी मांगों के दबाव होते हैं, जो आपको खींचते हैं. रोज कॉलम लिखने की मजबूरी या टास्क उनसे ये नहीं होने देता था. वह रोज के छोटे कॉलम लिखने के चक्कर में कुछ बहुत बड़ा नहीं कर पाए, पर छोटी चीजों से उन्होंने वो कर दिया जो बहुत बड़े कारनामे कर के भी बहुत लोग नहीं कर पाते. पर उन्होंने इसको स्वीकार नहीं किया.

वह अभी भी नए दौर के नए फिल्मकारों से अपनी तरफ से संवाद स्थापित करते थे.उन्हें अपने आयडियाज, सब्जेक्ट पर काम करने को उकसाते. उनसे दोस्ती करते. ये चीजें उन्हें बूढ़ा होने नहीं देती थीं. उनके दोनों बेटे मेरे से काफी बड़े हैं पर वह मुझे उनसे यह कह कर मिलाते कि यह मेरा दोस्त है. वह एक साथ बहुत अनुशासित और बहुत मस्त मौला भी थे.निजी जीवन में वह खूब मस्ती करते.उनकी दोस्ती का दायरा बहुत व्यापक था. उसमें राजकपूर से लेकर उनके दोनों बेटे ऋषि-रणधीर कपूर, सलीम साहब, जावेद अख्तर, मनमोहन शेट्ठी, विजयपत सिंघानिया, उत्तम झंवर से लेकर निदा फाजली, विष्णु खरे, प्रभु जोशी ज्ञानरंजन जी, कुमार अंबुज, पवन करण और मेरे जैसे पैदल लोग भी शामिल थे.

निदा फाजली को फिल्मों में ब्रेक उन्होंने ही दिया था. वह रमेश बहल की फिल्म हरजाई में एक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर थे और तब निदा ने अपना पहला फिल्मी गीत लिखा था - तेरे लिए पलकों की झालर बुनूं! आम तौर पर लोग अपने दोस्तों को अपने तक महदूद रखते हैं. अपने संपर्कों तक उन्हें नहीं पहुंचने देते. इस मामले में वह उलट थे. अगर कभी उनके साहित्यिक दोस्तों को मदद की जरूरत हुई और वह उसे पूरा करने की स्थिति में नहीं होते तो अपने समृद्ध दोस्तों से उन्हें मदद दिलवा दिया करते. बहुत लोग उनके संपर्कों के कारण उन्हें रश्क से देखते थे. उनके बाल मित्र विष्णु खरे ने एक बार उनसे कहा कि तुम्हारे जितने मेरे फिल्मी दुनिया में संपर्क होते तो मैं कितनी फिल्में बना लेता! 

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उनका सेंस ऑफ ह्यूमर कमाल का था. वह उससे अपनी कई छोटी-मोटी भूलों को ढंक लेते और उस पर जोर का ठहाका लगाते. एक बार उन्होंने अपने कॉलम में अभिनेता राजकुमार राव को राजकुमार गुप्ता लिख दिया. मैंने अगले दिन फोन पर उन्हें बताया और कहा कि आपको भूलसुधार करना चाहिए. वह बोले मैं ऐसा नहीं करूंगा. पहले वह अपना एक नाम फाइनल करके उस पर दो एक साल रुक जाए, तब मैं ऐसा करूंगा. ऐसा कहके उन्होंने जोर का ठहाका लगाया. गौरतलब है कि उन दिनों राजकुमार ने अपना नाम राजकुमार यादव से राजकुमार राव किया था. 

वह सिर्फ फिल्मों से जुड़े नहीं थे. उनका जीवन भी फिल्मी था. उनकी जीवनसाथाी उषा जी मशहूंर गांधीवादी और नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी की बेटी थीं. उन दोनों के प्यार और शादी में भी उतना ही ड्रामा था जितना किसी फिल्म में होता है. चौकसे साहब के जीवन और उनके कॉलम दोनों में उषा जी की छाप रही है. बचपन में छह-सात की उम्र में एक मेकशिफ्ट टाइप के टॉकीज में चौकसे साहब जमीन पर बैठकर फिल्म देख रहे थे कि उन्हें एक बिच्छू ने काट लिया था. वह अक्सर हंस के कहा करते कि असल में वह सिनेमा का बिच्छू था. उस बिच्छू का डंक आज उनके निधन के साथ ही उतर पाया है.

(उमाशंकर सिंह फिल्म पटकथा लेखक हैं. वह फिल्म डॉली की डोली और वेब सीरिज महारानी की पटकथा लिख चुके हैं.)

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