Opinion: धरती और आंखों में नमी नहीं बची तो हमें कौन बचाएगा?
कम होता जा रहा है धरती से पानी.
धरती पर जलवायु संकट गहराता जा रहा है. पर्यावरणविद् चिंता में हैं कि भविष्य में स्थितियां भयावह न हो जाएं. इन परिस्थितियों की वजह से जल संकट भी जल्द भारत में दस्तक दे सकता है.
डीएनए हिंदी: धरती हर साल गर्म और गर्म होती जा रही है. धरती पर मकान की ऊंचाई आकाश की ओर बढ़ती जा रही है और धरती के अंदर का पानी उल्टी दिशा में यानी रसातल की ओर उतरता जा रहा है. जाहिर सी बात है कि दोनों वजहें पूरी दुनिया में गर्मी बढ़ाने का काम कर रही हैं. आंखों की तरह धरती और वायु का नम होना बहुत जरूरी है. आंखों की नमी चली जाए तो व्यक्ति अंधा हो जाता है और धरती से नमी खत्म हो जाए तो वह रेगिस्तान में तब्दील हो जाता है. स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो नमी हमारे शर्म का लिहाज का और कृतज्ञता का संकेतक है. मिट्टी से नमी चली जाए और मनुष्य के आंखों का पानी मर जाए तो इस दुनिया को कैसे बचाएं? हमारे लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल हो जाएगा.
हमारे बीच आंखों से धरती की नमी बचाने वाले कुछ उदाहरण भी आते रहते हैं और हम उसके बारे में एक-दूसरे से बातचीत भी करते हैं लेकिन क्या आप यह देख पाते हैं कि अगर देवास में तालाब अगोरने या संवारने का काम हुआ तो उससे धार और इंदौर के लोगों ने कोई सीख ली है?
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जयपुर से अजमेर के रास्ते में पड़ने वाले गांव लापोड़िया ने तालाब सहेजा तो क्या उसकी देखादेखी आसपास के गांव जहां थोड़ा ठीक-ठाक पानी हो, उन्होंने पानी बचाने का कोई उदाहरण पेश किया हो? इस बारे में हमें सोचने की दरकार है कि क्यों हम पर्यावरण की सेहत के बारे में सोच नहीं पाते हैं?
दरअसल, हम झूठी बातों में फंस चुके हैं और अपनी पारंपरिक व्यवस्था को तहस-नहस करने को ही आधुनिकता मान बैठे हैं. क्या हमने लोकप्रिय साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु के ऋणजल-धनजल की अनुभवजन्य बातों से कुछ सीखा? प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने जिस समाज को पानीदार समाज कहा था अब वो बारिश के मौसम में डूबता है और गर्मी के मौसम की आहट से पहले ही पानी की किल्लत के संकेत देने लगता है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे लबालब पानी वाले राज्यों में एक साल थोड़ी कम बारिश हो जाए या थोड़ी देरी से मानसून पहुंचे तो किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें दिखने लग जाती हैं. बिहार में 20 जून के आसपास मानसून की आवक हो जाती है लेकिन इस साल अगस्त का पहला सप्ताह गुजर जाने के बाद भी बहुत कम बारिश हुई और धान की रोपाई के लिए हारकर धरती के पेट से पानी खींचकर सिंचाई की जा रही है.
कुआं, नलकूप के बाद सबमर्सिबल से खींच रहे हैं पानी
बिहार जैसे लबालब पानी वाले प्रदेश में 1970 और 80 के दशक में अलग-अलग सरकारों ने नलकूप योजनाएं चलाई और कुओं के पानी को खराब बताया था. अब पिछले कुछ सालों में बिहार में बिजली की व्यवस्था सुधरी तो नलकूप की जगह धरती से पानी निकालने के लिए गांव-गांव में सबमर्सिबल पंप लगाए जा रहे हैं. साल 2000 या उसके बाद तक बिहार के जिन इलाकों में 40 फीट पर पीने लायक अच्छा पानी मिल जाया करता था, अब उन्हीं इलाकों में 2020 तक आते-आते पानी निकालने के लिए गांव-गांव में 150 फीट गहराई तक पाइप धरती के अंदर डाले जाने लगा है.
सभी की छतों पर पानी की बड़ी-बड़ी प्लास्टिक की टंकियां लगाई जाने लगी. कुएं और नलकूप सूख रहे हैं. सरकार, कंपनियां और समाज सब पानी की बर्बादी की कहानी रचने में जुट गए हैं. कहीं किसी समाज में पानी की दिक्कत बढ़ती है तब वहां के कुछ लोग जागते हैं और फिर वहां पानी रचने की कहानी लिखी जाती है. लेकिन सवाल तो यह है कि हम समय रहते क्यों नहीं सबसे जरूरी चीज पानी का इस्तेमाल ठीक तरीके से करते हैं?
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हमारी आंखों के सामने से हर गर्मियों में दुनिया भर से पीने के पानी को लेकर कितनी तरह की अमानवीय कहानियां गुजरती हैं और हम हक्के-बक्के होकर ऐसा घटते हुए देखते रहते हैं.
पानी की इस मारामारी में औरतें सबसे ज्यादा मरती हैं
मध्य प्रदेश के डिंडौरी जिले के घुसिया गांव में इसी साल गर्मी के महीने में जान जोखिम में डालकर कुएं में उतरकर पानी निकालने का वीडियो वायरल हुआ था. घुसिया नाम के इस गांव के बाहर स्थित इस कुएं में इतना कम पानी था जिसे बाहर से बाल्टी डालकर नहीं निकाला जा सकता था. ऐसे में गांव की महिलाएं झुंड बनाकर इस कुएं में उतरकर पानी बटोकर घर लाती थीं ताकि घर के सदस्यों की जान बचाई जा सके. देश के बहुत से राज्यों में जिलाधीशों के कार्यालयों पर अप्रैल से लेकर जून-जुलाई तक पानी के संकट को लेकर प्रदर्शन होना एक मौसमी बात सी होती जा रही है. जाहिर सी बात है कि ऐसे जिलों की संख्या बढ़ती जा रही है जहां पानी की समस्या दिन प्रति दिन विकराल होती जा रही है.
पानी की समस्या से जुड़े आंकड़ें भी डराते हैं
यहां यूनिसेफ के कुछ आंकड़े दे रहा है जिनका मकसद आपको डराना नहीं है बल्कि आपको संकट से रू-ब-रू कराना है.
- दुनिया की चार अरब यानी दो तिहाई जनसंख्या साल के एक महीना पानी की समस्या से जरूर जूझती है.
- अलग-अलग मुल्कों की दो अरब लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं.
- 2025 तक दुनिया की आधी आबादी को पानी की किल्लत से दो-चार होना पड़ सकता है.
- वर्ष 2030 तक 700 मिलियन आबादी को पानी की कमी के चलते माइग्रेट करना पड़ सकता है.
- वर्ष 2040 तक हर चार में से एक बच्चे को पानी के संकट से जूझना पड़ सकता है.
अब सवाल यह है कि आंखों के साथ धरती का पानी कैसे बचाया जाए? अगर हम पहले सवाल का जवाब ढूंढ लें तो दूसरे सवाल का जवाब तो इस आंख वाले को ही ढूंढना है. आंख के लिए हम नजर, दृष्टि आदि शब्द भी इस्तेमाल करते हैं. नजर और दृष्टि शब्दों का इस्तेमाल हम विचार के लिए भी इस्तेमाल में लाते हैं. मसलन हम ऐसा कहते हुए लोगों को देखते हैं-अरे! वाह क्या दृष्टि पाई है आपने? अगर हमने नजर या दृष्टि या विचार को बचाने में सफलता पा ली तो हम पानी भी बचा लेंगे.
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अनुपम मिश्र के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो हमें सबसे पहले वैचारिक अकाल से पार पाना होगा. वे कहते थे कि पानी की चिंता समाज पर छोड़ देना चाहिए. समाज अपनी जरूरत के हिसाब चीजों को ठीक कर लेता है. लेकिन क्या सच में ऐसा होता है? क्या समाज चीजों को ठीक कर लेता है?
समाज अगर गड़बड़ियों को ठीक कर लेता तो आज हम बहुत सारी सैकड़ों साल पुरानी सोच को ठीक कर लेते. समाज की गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए हमेशा कुछ लोगों को आगे आना पड़ता है. आज पानी की समस्या को ठीक करने के लिए भी समाज के कुछ लोगों को आगे आना ही पड़ेगा. अन्यथा, हमारे हाथ पछताने के अलावा कुछ भी नहीं होगा.
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