Kashmir Target Killing: घाटी में लगातार टारगेट किलिंग, पंजाब का सबक दोहराने का वक्त?

Written By मनीष कौशल | Updated: Jun 03, 2022, 02:15 PM IST

कश्मीर में बढ़ाई गई सुरक्षा

जम्मू-कश्मीर में तीन दिन में टारगेट किलिंग की दूसरी वारदात हुई है. आतंकियों ने बैंक में घुसकर मैनेजर विजय कुमार को गोली मार दी है.

डीएनए हिंदी: कश्मीर में इस साल अब तक टारगेट किलिंग की वारदात में 17 हत्याएं हो चुकी हैं. इन हत्याओं से घाटी का माहौल बदलने लगा है. 370 के खत्म होने के बाद, आतंक पर नकेल कसने और कश्मीर पंडितों की वापसी कराने की रणनीति खतरे में पड़ गई है. कश्मीरी पंडितों ने घाटी से सामूहिक पलायन का अल्टीमेटम दिया है. कहने की जरूरत नहीं है कि जैसा कि आतंकी चाहते थे, टारगेट किलिंग ने घाटी में आतंक का माहौल बना दिया है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस सबके के पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI है, उसकी आतंक की इस रणनीति से निपटना आसान नहीं है.

90 के दौर में पंजाब: लोकतांत्रिक प्रक्रिया की वापसी से सहमा आतंक    
हालांकि, टारगेट किलिंग की यह रणनीति नई नहीं है. खालिस्तानी आतंक के चरमकाल में पंजाब में टारगेट किलिंग की बाढ़ सी आ गई थी. यह तब हुआ जब आज के कश्मीर की तरह ही भारत ने पंजाब में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करने की कोशिश शुरू कर दी थी. फरवरी 1992 में पंजाब में चुनाव हुए जिसने अचानक ही वहां के हालात बदल दिए. आतंकियों की धमकी के बावजूद स्थानीय लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए जनप्रतिनिधियों के पास पहुंचने लगे. आतंकियों को हथियारबंद अपराधियों का समूह साबित करने के लिए सेना बड़ी तादाद में बैरकों में लौट गई. सेना ने सीधे ऑपरेशन करने लगभग खत्म कर दिए और आतंकियों से निपटने की मुख्य जिम्मेदारी पुलिस पर आन पड़ी. बहुत जरूरी होने पर ही सेना को पुलिस के सहायता के लिए, मुख्यरूप से घेराबंदी के काम में ही इस्तेमाल किया जाने लगा.   

यह भी पढ़ें: कश्मीर में फिर टारगेट किलिंग, अब बैंक मैनेजर को गोलियों से भूना

90 के दशक का पंजाब: लोकतंत्र की ताकत से घबरा कर टारगेट किलिंग
पुलिस ने बहुत ही सधे हुए अंदाज में खालिस्तानी आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करनी शुरू कर दी. पुलिस ने आतंक से सख्ती से निपटने की अपनी रणनीति में ख्याल रखा कि उससे आम लोगों का कम-अस-कम नुकसान हो. अपनी पकड़ कमजोर होती देख कर खालिस्तानी आतंकियों ने अप्रैल 1992 से टारगेट किलिंग की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया. उन्होंने खासतौर से हिंदू और सुरक्षा बल के अफसरों और उनके परिवारों को निशाना बनाना शुरू कर दिया. '92 के पहले ही चार महीनों में टारगेट किलिंग वाले हमलों में सुरक्षा बल के 54 लोग मारे गए. अकेले अप्रैल में ही आतंकियों ने टारगेट किलिंग वाले अलग-अलग हमलों में 51 लोगों की हत्या कर दी.

90 के दशक का पंजाब: टारगेट किलिंग से निपटने की त्री-स्तरीय रणनीति
इन टारगेट किलिंग में सबसे ज्यादा बर्बर हत्या पटियाला के ऑल इंडिया रेडियो के स्टेशन चीफ एम.एल. मनचंदा की थी. 27 मई को उनका अपहरण करने के बाद उनकी हत्या कर दी गई थी. मनचंदा का धड़ पटियाला में मिला था जबकि सिर अंबाला से बरामद हुआ.  ऐसी कई बर्बर हत्याओं के बाद टारगेट किलिंग से निपटने के लिए त्री-स्तरीय रणनीति बनाई गई. यह रणनीति आतंकियों के तौर-तरीकों के गहरे विश्लेषण और खुफिया जानकारी के आधार पर बनाई गई.

इस रणनीति का पहला हिस्सा था टारगेट किलिंग करने वाले आतंकियों की पहचान और उन्हें पकड़ना या खत्म करना. इस मामले में मनचंदा केस ही बड़ा उदाहरण है. मनचंदा की हत्या के फौरन के बाद आतंकी गुट बब्बर खालसा ने इसकी जिम्मेदारी ली. सुरक्षा बल ने उसी दिन यानी 27 मई को ही मनचंदा की हत्या में शामिल गुरदयाल सिंह बब्बर को खोज निकाला और उसे एक एनकाउंटर में मार गिराया. 2 जून को मनचंदा के अपहरण और हत्या के मास्टरमाइंड अमरीक सिंह बब्बर का भी वही अंजाम हुआ.      

यह भी पढ़ें: Terrorism in Jammu and Kashmir: कश्मीर में स्कूल के बाहर महिला टीचर को गोलियों से भूना        

टारगेट किलिंग से निपटने की त्री-स्तरीय रणनीति का दूसरा हिस्सा, आतंकी सरगनाओं की पहचान कर उन्हें खत्म करना या पकड़ना था. खालिस्तानी आतंक के उस दौर में आतंकी गुटों के स्वघोषित चीफ, एरिया चीफ खौफ का कारोबार चलाते थे. दिलचस्प बात यह थी कि ऐसे आतंकी नेता मुख्य तौर से अपने गांवों के आसपास के 20 से 30 किलोमीटर के दायरे में ही आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते थे. सुरक्षा बल ने ऐसे आतंकी सरगनाओं की पहचान की और कुछ ही दिन में 139 कट्टर आतंकी सरगनाओं को खत्म कर दिया.    

इस रणनीति का तीसरा हिस्सा, इस जानकारी के आधार पर बनाया गया था कि ज्यादातर आतंकी वारदात या तो देर शाम या फिर सुबह-सुबह अंजाम दी जाती थी. लिहाजा, आतंकियों की गतिविधियों को रोकने के लिए बड़े अफसरों को नाइट-ऑपरेशन पर लगाया गया. रात के वक्त किए जाने वाले ऑपरेशन ने अंधेरे का फायदा उठा कर होने वाले आतंकी गतिविधियों पर लगाम लगा दी. इस रणनीति का असर यह पड़ा कि 1992 के खत्म होते-होते टारगेट किलिंग लगभग खत्म सी हो गई.

आंख के बदले आंख: एक लड़ाई, पाकिस्तान की जमीन पर भी  
आतंकी हमलों और खासतौर से टारगेट किलिंग को रोकने की एक लड़ाई पंजाब में लड़ी गई तो दूसरी लड़ाई पाकिस्तान की जमीन पर भी लड़ी गई. हालांकि इस बारे में ज्यादातर जानकारी सार्वजनिक नहीं है लेकिन इसकी शुरुआत 90 के दशक से कुछ पहले ही हो गई थी. 1980 के शुरुआती दिनों में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI ने कई  खालिस्तानी आतंकी गुटों को हथियार और पैसे दिए ताकि वह भारत में, खासकर पंजाब में आतंकी हमले कर सकें.  तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने  ISI की इस रणनीति का जवाब देनें का फैसला किया. जवाबी कार्रवाई की जिम्मेदारी विदेश में भारत के हित के लिए काम करने वाली संस्था RAW पर आ गई.

यह भी पढ़ें: कश्मीर के युवाओं से PM Modi का वादा- 'अब नहीं जीनी पड़ेगी मुसीबतों के साथ जिंदगी'

जब RAW ने ISI को बताया, उसे भी कीमत चुकानी पड़ेगी    
राजीव गांधी के कार्यकाल में तीन RAW प्रमुखों ने उनके साथ काम किया. जी.सी. सक्सेना, एस.ई. जोशी और ए. के. वर्मा, तीनों ही IPS अफसर थे. जी.सी. सक्सेना और एस.ई. जोशी, राजीव गांधी के शुरुआत के वर्षों में RAW प्रमुख थे. इन दोनों को पाकिस्तान में अपने जासूसों का मजबूत नेटवर्क बनाने का श्रेय दिया जाता है लेकिन इस नेटवर्क को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया ए. के. वर्मा ने जिन्हें 1987 में RAW प्रमुख बनाया गया. राजीव गांधी और ए.के. वर्मा दोनों ही यह बात समझते थे कि पाकिस्तान को यह समझाने की जरूरत है कि उसकी आतंकी गतिविधियां की कीमत उसे चुकानी पड़ेगी. लिहाजा, ISI को जवाब देने के लिए RAW ने खुफिया ऑपरेशन अंजाम देने वाली दो यूनिट का गठन किया.

RAW के पूर्व अधिकारी बी.रमन ने इस बारे में अपने एक लेख में लिखा था कि RAW ने काउंटर इंटेलिजेंस टीम-X और काउंटर इंटेलिजेंस टीम-J नाम की दो युनिट बनाई थी. पहली यूनिट का काम पाकिस्तान को निशाना बनाना था जबकि दूसरी यूनिट को खासतौर से खालिस्तानी गुटों को निशाना बनाने की जिम्मेदारी दी गई. इसके बाद जब भी भारत में खालिस्तानी गुट कोई आतंकी हमला अंजाम देते थे, तब पाकिस्तान को लाहौर और कराची में जवाबी हमले झेलने पड़ते थे.  

RAW के बड़े ऑपरेशन से मिले सबक
जासूसी एजेंसियों के बीच चूहे-बिल्ली के इस खेल में अब्दुल खान नाम के एक बिजनेसमैन की भी भेंट चढ़ी जो दरअसल ब्रिटेन और यूरोप में ISI का खास आदमी था. खोजी पत्रकार यतीश यादव की किताब के मुताबिक ए.के. वर्मा के आने से कुछ पहले से ही RAW अब्दुल खान के नेटवर्क को नेस्तनाबूद करने का एक ऑपरेशन चला रही थी. इसे 'ऑपरेशन हॉर्नेट' नाम दिया गया था. इस ऑपरेशन के तहत यूरोप से पाकिस्तान तक सक्रिय ISI के 18 लोगों की पहचान की गई, बाद में एक-एक कर ISI की इस यूरोप यूनिट के 9 लोगों को खुफिया ऑपरेशन के जरिए खत्म कर दिया गया. 1987 में RAW को पता चला कि अब्दुल खान लाहौर में अपने घर जाने वाला है. मई 1987 में लाहौर में दो मोटरसाइकिल सवारों ने अब्दुल खान की उसके घर के बाहर गोली मार कर हत्या कर दी. लाहौर पुलिस ने अपनी जांच में हत्या की वजह कारोबारी रंजिश को माना लेकिन ISI अच्छी तरह से जानती थी कि उसके आतंक के नेटवर्क के एक बड़े कलपुर्जे को RAW ने खोज कर मार गिराया. अब्दुल खान को जब दफनाया जा रहा था तब वहां मौजूद एक RAW एजेंट न गौर किया कि उसकी अंतिम यात्रा पर तब के ISI चीफ हामिद गुल की ओर से भी फूल चढ़ाए गए थे.  कहा जाता है कि 'ऑपरेशन हॉर्नेट' ने ISI को भीतर तक हिला दिया था.  

RAW और ISI के प्रमुखों की इकलौती 'शांतिवार्ता'
RAW की यह कामयाबियां ही बाद में काउंटर इंटेलिजेंस टीम-X और काउंटर इंटेलिजेंस टीम-J यूनिट के लिए सबक की तरह काम आईं. हालांकि इस बारे ज्यादा जानकारी नहीं है कि दोनों यूनिट ने पाकिस्तान में कितने ऑपरेशन अंजाम दिए लेकिन पाकिस्तानी मीडिया में उस दौरान हुए कई हमलों का जिम्मेदार RAW को ठहराया गया.  यह आरोप लगाया कि RAW नशे के सौदागरों और तस्करों की मदद से पाकिस्तान तक विस्फोटक पहुंचाती थी जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान में बम धमाके करने के लिए किया जाता था. नतीजा यह निकला कि 1988 में RAW प्रमुख वर्मा और ISI के प्रमुख हामिद गुल की मिडिल ईस्ट में एक सीक्रेट बैठक हुई जिसे जॉर्डन के क्राउन प्रिंस हसन बिन-तलाल ने मुमकिन बनाया था. कहा जाता है कि इस बैठक के बाद दोनों खुफिया एजेंसियों ने एक दूसरे की जमीन पर कुछ वक्त के लिए तोड़फोड़ की कार्रवाई रोक दी.
 
RAW के खुफिया मिशन पर आईं कई किताबों में यह दावा किया जाता है कि 1997 में प्रधानमंत्री बने आई के गुजराल के आदेश पर काउंटर इंटेलिजेंस टीम-X और काउंटर इंटेलिजेंस टीम-J को खत्म कर दिया गया. हालांकि 1988 की सीक्रेट बैठक और 1997 के इस आदेश के बीच पाकिस्तान में कई और हमले हुए. वहां के मीडिया का दावा है कि दिसंबर 1995 पेशावर में हुए बम धमाके, 1996 में लाहौर के पास भाई फेरू में एक बस में हुए धमाके, 1996 में ही रावलपिंडी में एक मदरसे के पास हुए धमाके और ऐसे कई धमाकों के पीछे भारतीय और अफगानिस्तानी खुफिया ऑपरेटिव्स का हाथ था. सच जो भी हो लेकिन गुजरे वक्त के तजुर्बों से इतना तय है कि जब तक आतंक को उसी के जुबान में जवाब नहीं दिया जाएगा, तब तक न आतंकी हमले रुकेंगे और न ही टारगेट किलिंग.  

.

(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

देश-दुनिया की ताज़ा खबरों पर अलग नज़रिया, फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगलफ़ेसबुकट्विटर और इंस्टाग्राम पर.