Punjab Politics: सिख नेतृत्व अकाली दल के भविष्य के लिए बादल परिवार को हटाने पर गंभीर

स्मिता मुग्धा | Updated:Apr 18, 2022, 09:35 PM IST

बादल परिवार की हो सकती है छुट्टी

पंजाब में शिरोमणि अकाली दल इस वक्त अस्तित्व के संकट से जूझ रही है. बादल परिवार के खिलाफ नाराजगी लगातार बढ़ रही है. रवींद्र सिंह रॉबिन का लेख.

रवींद्र सिंह रॉबिन

शिरोमणि अकाली दल को पंजाब विधानसभा चुनाव में सिर्फ 3 सीटों से संतोष करना पड़ा है. इस वक्त उनके भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं. शिरोमणि अकाली दल (बी) के अंदर ही इस वक्त टकराव चल रहा है. खास तौर पर यह असंतोष बादल परिवार के लिए है जिन्हें एक धड़ा विधानसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार मान रहा है. 
 
हाल ही में संपन्न हुए पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुत मिला है. AAP की 92 सीटें हैं जबकि कांग्रेस को 18 सीटों से संतोष करना पड़ा है. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), शिरोमणि अकाली दल (बी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को क्रमश: 1, 3 और 2 सीटें मिली हैं. एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई है. 2017 के विधानसभा चुनावों में बादल परिवार की अगुआई में अकाली दल ने 15 सीटें जीती थीं.

निजी समारोह हो या कोई सार्वजनिक कार्यक्रम में इस वक्त बादल परिवार और उनके खास लोगों के साथ ही आम आदमी पार्टी के लीडर भी मौजूद हों तो कुछ चीजें दिखती हैं. आम आदमी फोटोग्राफ खिंचवाने के लिए आम आदमी पार्टी के सिख नेताओं के आस-पास मंडराते रहते हैं. अकाली नेताओं जैसे कि सुखबीर सिंह बादल, बिक्रम सिंह मजीठिया, सुखदेव सिंह धींडसा, प्रेम सिंह चंदुमाजरा वगैरह के आस-पास आम जनता की भीड़ नहीं दिखती है.

अकाली दल के पुराने और वरिष्ठ नेता भी इस चुनाव में अपनी सीट नहीं बचा पाए हैं. जैसे कि प्रकाश सिंह बादल, सुखबीर सिंह बादल, बिक्रम सिंह मजीठिया, जिनको माझा-ए-दा-जरनैल कहा जाता है और सुखबीर सिंह बादल के साले (पत्नी हरसिमरत कौर के भाई) भी हैं. इन तीनों नेताओं के खिलाफ लांबी, जलालाबाद और अमृतसर ईस्ट की सीटों पर जनता ने अकाली दल के खिलाफ नहीं बल्कि बादल परिवार के खिलाफ वोट दिया है.

पंजाब विधानसभा चुनावों में शर्मनाक पराजय के बाद, शिअद (बी) नेतृत्व की कोशिश पंजाब की राजनीति में अपनी पुरानी धमक पाने की है. इसके अलावा, पार्टी अपनी दखल वाली एक मात्र संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एसजीपीसी) पर भी किसी तरह से वर्चस्व बनाए रखना चाहती है. एसजीपीसी में अभी तक ज्यादातर सदस्य शिअद के ही हैं.

सूत्रों का कहना है कि इतिहास दोहराए जाने की भी पूरी संभावना है. ऐसा पहले भी हो चुका है कि जब शिरोमणि अकाली दल की कमान धार्मिक नेता को सौंप दी जाए. ऐसा पहले हो चुका है जब शिअद (बी) के नेतृत्व की जिम्मेदारी संत हरचंद सिंह लंगोवाल को दी गई थी और वह अकाली दल के अध्यक्ष बनाए गए थे.

एक सूत्र ने कहा, ''हो सकता है कि यह थोड़े समय के लिए उठाया जाने वाला कदम हो लेकिन इससे असहमति में उठ रही आवाज को शांत किया जा सकेगा. साथ ही, मेनस्ट्रीम नेतृत्व के लिए यह सर्वश्रेष्ठ कदम है कि जब वह अपनी वापसी और भविष्य के लिहाज से सही कदम उठा सकेंगे. इससे पार्टी की प्रतिष्ठा कायम रहेगी और कोर वोट बैंक भी नहीं छिटकेगा.  ऐसी भी खबरें हैं कि किसी गैर-विवादित महिला को भी पार्टी प्रमुख के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है. सूत्रों पर यकीन किया जाए तो अकाली दल के कुछ पुराने और वरिष्ठ चेहरों ने सलाह दी है कि पार्टी मास्टर तारा सिंह की परंपरा पर चले. मास्टर तारा सिंह 20वीं सदी के धार्मिक और राजनीतिक लीडर थे.

शिअद (डी) के नेता और दिल्ली सिख गुरुद्वारा मैनेजमेंट कमेटी (DSGMCC) के पूर्व अध्यक्ष परमजीत सिंह सरना तो लगातार बादल परिवार को परे रखकर अकाली दल को देखने की वकालत कर रहे हैं. उन्होंने कहा, 'मैं तो लंबे समय से अकाली दल के मूल स्वरूप पर लौटने की बात कर रहा हूं जहां बादल परिवार का वर्चस्व नहीं था. पंथ के व्यापक हित को देखते हुए यह सबसे सही समय है कि जब बादल परिवार को उठाकर बाहर फेंका जाए.'

अकाली दल (बी) के नेताओं को पहले से ही एसजीपीसी के चुनावों में अपनी हार का डर सताने लगा है. आप के बहुत से सिख लीडर अपनी जीत के लिए अभी से तैयारी करना भी शुरू कर चुके हैं और अपनी जीत की संभावनाएं तलाश रहे हैं. डीएसजीएमसी के में आप के सिख नेताओं की भूमिका से भी सूत्र ने इनकार नहीं किया है. खास तौर पर हाल ही में दिल्ली और पंजाब के अकाली नेताओं के बीच जिस तरह से तल्खियां बढ़ी हैं उसके बाद ये संभावना और भी तीव्र हो गई है.

बहुत से सिख नेता और अकाली दल से जुड़े सिख नेताओं का भी मानना है कि पंथ और पार्टी को ऐसे मुश्किल हालात में पहुंचाने के लिए बादल परिवार ही जिम्मेदार है. इन नेताओं का मानना है कि बादल परिवार ने निजी हित साधने और अपने परिवार को बढ़ावा देने के लिए काम किया है और आम अकाली कार्यकर्ताओं पर कभी ध्यान नहीं दिया है.

(लेखक रवींद्र सिंह रॉबिन वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह जी मीडिया से जुड़े हैं. राजनीतिक विषयों पर यह विचार रखते हैं.)  

(यहां प्रकाशित विचार लेखक के नितांत निजी विचार हैं. यह आवश्यक नहीं कि डीएनए हिन्दी इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे और आपत्ति के लिए केवल लेखक ज़िम्मेदार है.)

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