डीएनए हिंदी: साउथ की सबसे बड़ी फिल्मों में गिनी जाने वाली केजीएफ (KGF) के मेकर्स अब इसका दूसरा पार्ट लेकर आ रहे हैं. सोने की खदान से जुड़ी इस फिल्म की कहानी फैंस को इतनी पसंद आई थी कि लोग पहले पार्ट की रिलीज के बाद से ही सीक्वल की डिमांड करने लगे थे. वहीं, फिल्म केजीएफ जिस खादान पर आधारित है उसका इतिहास 100 सालों से भी ज्यादा पुराना है. आपको जानकर हैरानी होगी की इस फिल्म में दिखाई गई कहानी रियल लाइफ की घटनाओं से प्रेरित है. इस खादान के इतिहास को देखकर ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि असल में भी KGF की कहानी फिल्म जितनी ही 'खूनी' है.
100 साल से भी ज्यादा पुराना है इतिहास
केजीएफ में खुदाई का इतिहास 121 सालों पुराना है और बताया जाता है कि इन सालों में यहां की खादान से 900 टन सोना निकला है. कर्नाटक के दक्षिण पूर्व इलाके में स्थित 'केजीएफ' का पूरा नाम कोलार गोल्ड फील्ड्स (Kolar Gold Fields) है. इसके बारे में एशियाटिक जर्नल में एक आर्टिकल में जानकारी दी थी. आर्टिकल में कोलार में पाए जाने वाले सोने के बारे में चार पन्ने लिखे गए थे. ये आर्टिकल 1871 में ब्रिटिश सैनिक माइकल फिट्जगेराल्ड लेवेली ने पढ़ा था.
कहां से शुरु हुई कहानी
इसके अलावा ब्रिटिश सरकार के लेफ्टिनेंट जॉन वॉरेन ने भी केजीएफ को लेकर एक आर्टिकल लिखा था जिसमें उन्होंने बताया था कि केजीएफ का इतिहास 1799 से शुरू होता है जब श्रीरंगपट्टनम की लड़ाई में अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान की हत्या कर दी थी और कोलार और उसके आसपास के इलाके पर कब्जा कर लिया था. कुछ सालों बाद ये जमीन मैसूर राज्य को दे दी गई थी लेकिन अंग्रेजों ने कोलार की जमीन पर सर्वे का हक अपने पास ही रखा था. वॉरेन का ये आर्टिकल लेवेली के हाथ लगा था.
हाथों से खोदा जाता था सोना
इस आर्टिकल में बताया गया था कि उस दौरान कोलार में चोल साम्राज्य था और यहां पपर लोग जमीन को हाथ से खोदकर सोना निकालते थे. वॉरेन ने वहां इनाम का लालच देकर गांव वालों से सोना निकलवाया तो पता चला कि 56 किलो मिट्टी से जरा सा ही सोना निकाल पता है. तब जाकर तरकीब निकाली गई कि इसके लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाए. इसके बाद 1804 से लेकर 1860 तक अंग्रेजों ने ज्यादा से ज्यादा सोना निकलने के लिए खतरनाक से खतरनाक एक्सपेरिमेंट किए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ उल्टा इसकी वजह से कोलार की जमीन पर कई मजदूरों को जान गंवानी पड़ी. हार कर ब्रिटिश सरकार ने खुदाई पर रोक लगा दी.
आधुनिकता और 30 हजार मजदूरों ने किया कमाल
वहीं, 1871 में ये वॉरेन का ये आर्टिकल पढ़कर लेवेली को फिर से रिसर्च करने की सूझी और वो 100 किलोमीटर की दूरी तय करके पहुंच गए कोलार. 1873 में लेवेली ने मैसूर के महाराज से खुदाई की परमीशन हासिल की और यहां पर 1875 में खुदाई एक बार फिर से शुरू हो गई. उस दौर में केजीएफ की खादानों में रोशनी का इंतजाम सिर्फ मशालों और लालटेनों से होता था. लेवेली को एहसास हुआ कि ये काफी नहीं है. इस कारण से वहां पर बिजली का इंतजाम किया गया और इस तरह केजीएफ भारत का वो पहला शहर बन गया जहां पर बिजली आई थी. बिजली आई तो मशीनें भी शुरू हो गईं. लेवेल के इन प्रयासों से 1902 के दौरान केजीएफ में 95 फीसदी सोना निकलने लगा. 1930 तक केजीएफ की खादान में 30 हजार मजदूर काम करने लगे.
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'छोटा इंग्लैंड' बन गया था केजीएफ
धीरे-धीरे कोलार गोल्ड फील्ड्स अंग्रेजी अधिकारियों की फेवरेट जगह बनती गई. यहां पर ब्रिटिश ऑफिसकर्स और इंजीनियर्स अपने घर बनाने लगे. ठंडा मौसम होने की वजह से इन दोनों के लिए ये किसी वैकेशन स्पॉट से कम नहीं था. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो ये वो दौर था जब केजीएफ को 'छोटा इंग्लैंड' कहा जाने लगा था.
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2001 में क्यों बन गया खंडहर
वहीं, आजाद भारत के दौर में भारत की सरकार ने केजीएफ की खादानों को अपने कब्जे में ले लिया और 1956 में इस खान का राष्ट्रीयकरण भी कर दिया गया और 1970 में भारत गोल्ड माइन्स लिमिटेड कंपनी ने वहां पर काम करना शुरू किया. शुरुआत में इन खादानों से सरकार को काफी फायदा हुआ लेकिन 80s का दौर आते-आते कंपनी नुकसान में पहुंच गई और तो और कंपनी के पास अपने मजदूरों के हक के पैसे देने के लिए भी आमदनी नहीं बची. फिर 2001 में यहां पर खुदाई बंद करने का फैसला किया गया और कोलार गोल्ड फील्ड्स खंडहर बन गए. कई रिपोर्ट्स में ये दावा किया गया जाता रहा है कि केजीएफ में आज भी सोना मौजूद है.
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