Book Review: 'ज़ीरो माइल अयोध्या' विस्मृत हो गए तहज़ीब के बिखरे कांच को समेटती ये कहानी

Written By स्मिता मुग्धा | Updated: Feb 12, 2024, 11:13 AM IST

Zero Mile Ayodhya Book Review

Hindi Book Review Zero Mile Ayodhya: आज अयोध्या एक ऐसा नाम है, जिसे चाय की टपरी से लेकर सुदूर सिलिकॉन वैली में बैठे भारती कॉर्पोरेट प्रोफेशनल भी गाहे-बगाहे दोहरा रहे हैं. किताब जीरो माइल अयोध्या के अतीत से लेकर हाल तक के वृहद पन्नों को पलटती है.

अयोध्या, राम मंदिर, रामलला (Ayodhya Ram Mandir) ये कुछ शब्द हैं जो 2024 में आने वाले कुछ महीनों में बार-बार दोहराए जाएंगे. कहते हैं कि जब किसी बात को कई बार दोहराया जाए, तो वह हमारे अवचेतन में कहीं धंस जाती है. यही वो प्रक्रिया होती है जहां से तर्क और सवाल की सारी गुंजाइश खत्म हो जाती हैं. अयोध्या के साथ कभी फैजाबाद जुड़ा था, यह धीरे-धीरे हमारी स्मृति से भी ओझल होता जा रहा है. भव्य राम मंदिर के निर्माण और राज्याभिषेक सरीखे उत्सव में 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुआ है. इस आमोद, उल्लास, उत्सव या उन्माद, जिसे अपनी सुविधा के मुताबिक हर पक्ष ने अपना शब्द चुन लिया है. इससे इतर एक शहर था जो सदियों से अपनी अनवरत ताल पर चला जा रहा था. 

अयोध्या एक शहर जो 1990 से पहले तक रामायण और रामकथा के ज़िक्र में बार-बार आता रहा. लेखक और पत्रकार रहे कृष्ण प्रताप सिंह ने अपनी किताब 'ज़ीरो माइल अयोध्या' में इस शहर, इसकी विरासत और तहज़ीब की बारीकी से पड़ताल की है. किताब पढ़ते हुए इसमें तथ्यों को लेकर एक पत्रकार की सजगता नज़र आती है, 1857 और उससे पहले के दौर का इतिहास भी है और साथ ही चलता है लेखक का अपना अनुभव.

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लेखक ने बतौर पत्रकार उस शहर में अच्छा अरसा बिताया है, यही वजह है कि वह कोने-अंतरे में दिखने वाली घटनाओं और बारीकियों को पकड़ने और उसे बोधगम्य तरीके से पाठकों तक लाने में सफल रहे हैं. किताब वाम प्रकाशन ने छापी है और कीमत 250 रुपये है.

अयोध्या के अतीत और तहज़ीब की झलक 
अयोध्या और राम मंदिर से इतर भी यह एक शहर था और है, जो अपने सामान्य लोकजीवन, संस्कारों और उर्जा से संचालित होता रहा है. आज स्थिति कितनी बदली या भविष्य में इसका रूप कैसा होगा, इसके लिए हम सबको ठहरकर और ज़रा तटस्थ रहकर देखना होगा. लेखक का जोर बार-बार इस बात पर किताब में है कि 6 दिसंबर 1992 वाले उस दिन से पहले तक अयोध्या और फैजाबाद दो हिस्से नहीं थे बल्कि एक ही संस्कृति और तहज़ीब वाले जुड़वा भाइयों सरीखे थे.

मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक और फिर स्वतंत्रता के बाद भी यह शहर अपनी मिली-जुली संस्कृति और विवेक के दम पर रोज़ी-रोटी और शहरवासियों के सपनों की मंद थाप पर चलता रहा है. एक ऐसा शहर जो युद्ध, क्लेश और संग्राम से नितांत अछूता था, वह एक रोज़ विश्व पटल पर सांप्रदायिक, हिंसा, विवादित ज़मीन और विरासत पर अधिकार की लड़ाई की भेंट चढ़ गया. किताब पढ़ते हुए एक पत्रकार की सजग दृष्टि और तथ्यपरकता दिखती है, लेकिन इससे इनकार भी नहीं कर सकते हैं कि एक लेखक का पक्ष और झुकाव भी स्पष्ट है. यही इस किताब की सबसे सुंदर बात भी है कि अपने झुकाव के प्रति निर्मम ईमानदारी दिखाते हुए भी लेखक ने तथ्यों को बदलने, छोड़ने या अनदेखा करने का काम नहीं किया है. 

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पाठक के सामने बंद दरवाज़ों की सांकल खोलती है किताब 
एक शहर को अगर उसके मौजूदा हाल के आधार पर ही परखने लगें, तो यह शायद बहुत बड़ा अन्याय होता है. मुंबई शहर सिर्फ सीलिंक, जियो मॉल और मालाबार हिल्स भर नहीं है. उसी मुंबई में दादर और धारावी भी हैं. 26/11 अगर भारत की मायानगरी की आत्मा पर चोट है, तो उसके बाद फिर से शहर के उठ खड़ा होना उसका जीवट है.

इसी तरह से अयोध्या महज 22 जनवरी का वह उत्सव और उससे पहले विवादित जगह पर आया न्यायालय का फैसला भर नहीं है. ये वो जगह है जहां कभी फैजाबाद की गलियों और हवेलियों में भारतीय संगीत की थाप और कला का मजमा सजता था. यही वो शहर भी है जो 1857 में भी अपने जीवट, साहस और मातृभूमि की मिट्टी का कर्ज उतारने के लिए उठ खड़ा हुआ था. आज आप जिस अयोध्या को देख रहे हैं, उससे भले प्यार करें, गर्व करें या उसके लिए दुखी हो रहे हों, एक बार इस किताब को पढ़कर इत्मीनान से सोचें कि हम क्या थे और आज क्या हो गए!   

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