डीएनए हिंदी: छठ का पर्व बिल्कुल करीब है और छठ के कुछ गीत याद करते वक्त मुझे मेडिकल सर्जन डॉक्टर जैसन फिलिप के अनुभव याद आ रहे हैं, जो उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल पर साझा किए हैं. अंग्रेजी में किए गए ट्वीट में उन्होंने बताया कि अपने जीवन में उन्होंने लगभग 200 किडनियां ट्रांसप्लांट की हैं. इनमें से लगभग 80-90% किडनी मर्द के शरीर में प्रत्यारोपित की.
उनका अनुभव है कि इस भारतीय मर्दवादी समाज में किसी महिला की किडनी खराब होने पर डोनर मुश्किल से मिलता है. पति भी अपनी बीवी के लिए किडनी डोनेट करने को राजी नहीं होता. मेरे पास आए केसों में महिला पेशेंट को किडनी देने वाली उसकी बेटी या मां रही. लेकिन ठीक इसके उलट, अगर किसी पुरुष की किडनी खराब हुई तो अधिकतर केसों में उसकी पत्नी किडनी डोनेट करने के लिए राजी रही.
लोकगीत बनाम लोकाचार
आप सोच रहे होंगे कि आखिर छठ के गीत और डॉ. जैसन फिलिप के अनुभव में क्या रिश्ता है. है न, बहुत बड़ा रिश्ता है. डॉ. जैसन फिलिप का अनुभव दिखाता है कि आज के भारतीय समाज में मर्दवादी सोच किस कदर हावी होती गई है. यह समाज किसी महिला की जान बचाने में उत्सुक नहीं दिखता. उसके लिए स्त्री बिल्कुल दोयम दर्जे की चीज है, जिसका जिंदा रहना-न रहना इस समाज के मर्दों के लिए चिंता की बात नहीं. ठीक इसके उलट पूर्वांचल में महापर्व के रूप में मनाए जानेवाले छठ के कुछ लोकगीत सुनें. इन लोकगीतों में बेटियों की कामना की गई है. उनके लिए स्वस्थ और पढ़े लिखे दामाद की कामना की गई है. यह भी एक वजह है कि छठ को लोक आस्था का महापर्व कहा जाता है.
छठ के अर्थपूर्ण गीत
इस पर्व पर लोककंठों से फूटे गीत सिर्फ तुकबंदी नहीं हैं, बल्कि बेहद अर्थपूर्ण हैं. छठ के कुछ गीत हमें यह याद दिलाते हैं कि यह पर्व बेटियों की शुभेच्छा से भरा हुआ है. इसके कई गीतों में बेटियों की कामना की गई है. ऐसा ही एक गीत है - पांच पुत्तर, अन्न-धन लक्ष्मी, धियवा (बेटी) मंगबो जरूर. यानी बेटे और धन-धान्य की कामना तो की गई है, लेकिन उसमें यह बात भी है कि छठ माता से बेटी जरूर मांगना है. यह ‘जरूर’ शब्द बताता है कि बेटियों को लेकर छठ पूजा करने वाले समाज ने बेटों और बेटियों में फर्क नहीं किया. एक और गीत है कि रुनकी-झुनकी बेटी मांगिला, पढ़ल पंडितवा दामाद, हे छठी मइया... इस गीत में रुनकी-झुनकी का मतलब स्वस्थ और घर-आंगन में दौड़ने वाली बेटी है. इसी पंक्ति में दामाद की भी मांग की गई है, पर गौर करें कि उस दामाद की कल्पना शरीर से बलिष्ठ नहीं, बल्कि मानसिक रूप से बलिष्ठ की है. यानी तब हमारा समाज आज के मुकाबले भले ही अनपढ़ और पिछड़ा रहा हो, पर उस वक्त भी लोग समझते थे कि राजा तो अपने देश में ही पूजा जाता है, लेकिन विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है (स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते). इस सिद्धांत की औपचारिक जानकारी उस समाज को भले न हो, लेकिन विद्या के महत्व से वह परिचित था. हालांकि यह बात खूब प्रचलित है कि छठ बेटों का त्योहार है. पुत्र प्राप्ति की इच्छा के साथ और पुत्र प्राप्ति के बाद कृतज्ञता जताने के लिए यह व्रत किया जाता है.
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प्रकृति का पर्व छठ
वैसे, इस पर्व को प्रकृति का पर्व भी कहा जाता है. गौर करें कि दीपावली अभी-अभी बीता है. हमने अपने-अपने घरों की खूब साफ-सफाई की है. लेकिन प्रदर्शनप्रियता हमारी ऐसी है कि हमने पर्यावरण को बम-पटाखों से प्रदूषित कर दिया. दिल्ली समेत कई राज्यों की हवा जहरीली हुई पड़ी है. लेकिन छठ का यह पर्व अभी भी अमीरी के प्रदर्शन से दूर है. अमीर हो या गरीब सभी इस पर्व को समान रूप से करते हैं. छठ के मौके पर गलियों की साफ-सफाई की जाती है, सड़कें बुहारी जाती हैं. नदी-तालाबों की साफ-सफाई होती है. यानी दीपावली के मौके पर जो साफ-सफाई घर से शुरू हुई थी, वह छठ के मौके पर गली-मुहल्ले, ताल-तलैया, नदी-पोखरों तक पहुंच जाती है. छठ की पूजा मंत्रों और किसी पुरोहिताई के बिना प्रकृति प्रदत्त चीजों से की जाती है. इस तरह यह पर्व एक तरह से हमारे प्रकृति के प्रति श्रद्धा का भी पर्व है.
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