डीएनए हिंदी : प्रदूषण ने दिल्ली का पूरा आसमान ढक रखा है. हवा दिन-ब-दिन जहरीली हुई जा रही है. सारे नजारे धुंधले हैं. ऐसे बदमजा मौसम में मैं दिल्ली दरबार का मजा ले रहा. गुजारिश है कि मेरे इस वाक्य में कोई राजनीतिक अर्थ न तलाशें. पर यह जरूर है कि आप अगर दिल्ली की राजनीति और उसके इतिहास को समझना चाहें तो 'दिल्ली दरबार' आपके लिए एक महत्त्वपूर्ण किताब हो सकती है. सत्साहित्य प्रकाशन से छपी इस किताब के लेखक हैं मनोज कुमार मिश्र.
इस किताब में छोटी-छोटी कुल 42 टिप्पणियां हैं. इन टिप्पणियों को उनकी विषय सामग्री की प्रकृति के मुताबिक 3 खंडों में बांटा गया है. पहले खंड को 'ये जो है दिल्ली' नाम दिया गया है, जिसमें कुल 8 टिप्पणियां हैं. दूसरा खंड 'राजनीतिक किस्सों' का है जिसमें महज 5 टिप्पणियां हैं. तीसरा और आखिरी खंड 'दिल्ली के नेता' शीर्षक से है. इस खंड में कुल 29 संस्मरण हैं. कहना न होगा कि इन टिप्पणियों से गुजर कर आप दिल्ली को मोटे तौर पर समझ सकते हैं.
तीन खंडों में बंटी किताब
पहले खंड में लिखी मनोज मिश्र की टिप्पणियों से यह बात समझ में आती है कि दिल्ली सिर्फ आतताइयों के हमलों से ही नहीं उजड़ी, बल्कि कई बार यह शासकों की सनक और उनकी इच्छा से भी उजड़ती और बसती रही. बल्कि पूरी किताब से गुजरने के बाद यह बात बहुत साफ होती है कि दिल्ली की राजनीति का वैचारिक स्तर कई बार उजड़ा और बसा है. कभी इसका उथला और छिछला स्तर भी सामने आया तो कई बार दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति भी दिखी.
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राजनीतिक रिपोर्टर
मनोज मिश्र ने दिल्ली के एक हिंदी दैनिक अखबार के लिए लंबे समय तक राजनीतिक रिपोर्टिंग की है. उनकी टिप्पणियों से यह झलकता है कि दिल्ली में 15 साल तक मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित से करीबी संबंध रहे. दिल्ली में सक्रिय तकरीबन तमाम कांग्रेसी नेताओं से उनके घनिष्ट संबंध रहे. लेकिन ऐसा नहीं कि भाजपाई नेताओं से कोई दूरी रही हो. यानी कांग्रेसी नेता हो या भाजपाई, दोनों के बीच मनोज मिश्र आदर और सम्मान के साथ याद किए जाते रहे. इस किताब की प्रस्तावना डॉ. हर्ष वर्धन ने लिखी है. वे वर्तमान में दिल्ली के चांदनी चौक लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी के सांसद हैं. इस किताब का पुरोकथन वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने लिखी है. वे बीजेपी समर्थित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय मंत्री रहे हैं. फिलहाल वे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष हैं.
दिल्ली का प्रशासनिक ढांचा
बार-बार उजड़ती और बसती रही दिल्ली के प्रशासनिक ढांचे की विस्तृत जानकारी मनोज मिश्र की किताब 'दिल्ली दरबार' में मिलती है. इस किताब का पहला खंड इसी प्रशासनिक ढांचे से पाठकों का परिचय कराता है. इस खंड में आजादी के पहले से लेकर आजादी के बाद तक की व्यवस्था पर टिप्पणियां हैं. इसमें एमसीडी के गठन की पूरी कहानी है. कैसे 2011 में एमसीडी 3 भागों में बांट दी गई और फिर 2022 में उसके विलय की पूरी दास्तान भी इस किताब में आपको मिलेगी. परिसीमन के बाद दिल्ली के ढांचे में किस तरह के बदलाव हुए या दिल्ली की कमान अब तक किन मुख्यमंत्रियों ने संभाली- इनकी जानकारी भी इस पहले खंड में मिलती है. दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच होनेवाले प्रशासनिक टकराव से भी यह किताब रू-ब-रू कराती है. इस बाबत सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला किया, दिल्ली में किसकी सत्ता सर्वोच्च बताई - यह भी जानकारी यह किताब सुलभ कराती है.
पूरब का बोलबाला
दिल्ली की राजनीति में पूर्वांचल का प्रभाव रहा है. लेकिन यह प्रभाव कैसे शुरू हुआ. पूरब के किन नेताओं ने यहां अपनी साख बनाई, किन राष्ट्रीय नेताओं ने दिल्ली को अपनी शरणस्थली बनाया - जैसे तमाम सवालों के जवाब इस किताब में मिल जाते हैं. कई मुख्यमंत्रियों ने चाहा कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले, लेकिन इस रास्ते में कौन सी बाधाएं हैं, संविधान के वे कौन प्रावधान हैं जो दिल्ली को पूर्ण सत्ता नहीं सौंपने के हिमायती हैं, केंद्र सरकार के अधिन दिल्ली के कौन-कौन से विभाग हैं - इन सब पर मनोज मिश्र ने सिलसिलेवार टिप्पणियां की हैं.
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उठापटक, जोड़-तोड़ की कहानी
इस किताब का दूसरा खंड दिल्ली की राजनीति से आपको रू-ब-रू कराता है. हालांकि पहले खंड में भी प्रशासनिक टकराव के किस्से हैं और ये किस्से आपको दिल्ली की राजनीति समझने का अवसर देते हैं, लेकिन दूसरे खंड में पार्टियों की अंदरूनी किस्से हैं. कैसे कोई नेता मुख्यमंत्री बनने की जुगत लगाता है, मुख्य सचिवों की नियुक्तियों के लिए कैसे घेरेबंदी की जाती रही, क्यों किसी नेता के हाथ से मुख्यमंत्री की कुर्सी फिसलती रही, बीजेपी से कांग्रेस और कांग्रेस से आप तक कैसे पहुंची सत्ता की चाबी - ऐसे कई रोचक प्रसंग से भरपूर है दिल्ली दरबार.
तटस्थ टिप्पणियां
इस किताब का खंड तीसरा सबसे रोचक है. पहली नजर में यह संस्मरण जैसा लगता है. लेकिन इन संस्मरणों की खूबी यह है कि वह दिल्ली की बदलती राजनीति की समझ पैदा करता है. नेताओं के आपसी संबंधों का खुलासा करता है. दिल्ली की राजनीति में बीजेपी और कांग्रेस की गतिविधियों, पार्टी के भीतर चल रही गुटबाजी, समर्थन और विरोध की रोचक दास्तान इस किताब में मिलती है. खास बात यह है कि लेखक ने इन पर टिप्पणियां करते हुए रिपोर्टर वाली सावधानियां बरती हैं. यानी पात्रों और घटनाओं के बारे में मनोज मिश्र विस्तार से बताते हैं, मगर इस विस्तार में निजी टिप्पणियां या अपनी राय नही आने देते. आप चाहें तो इस विस्तार को जानने और समझने के बाद खुद की राय कायम करने के लिए स्वतंत्र हैं.
खटकने वाली बात
यह ठीक है कि इस किताब में संग्रहीत संस्मरण आपको राजनीतिक दृष्टि से परिपक्व करते हैं. लेकिन इनमें से अधिकतर संस्मरण शीला दीक्षित के दौर से ही जुड़ते हैं. दूसरी बात इस किताब में राजनीतिक किस्सों से जुड़े दूसरे खंड में महज 5 टिप्पणियां हैं, जो पेज नंबर 105 से शुरू होकर पेज नंबर 126 में सिमट जाती हैं. दिल्ली की राजनीति बहुत उछाल भरी रही है, उठा-पटक, खींच-तान, जोड़-तोड़ के मामले यहां खूब गर्म रहते रहे हैं. राजनीति की यह गर्मी सिर्फ 22 पन्नों में सिमट जाने लायक नहीं हैं. मतलब कि ढेर सारे किस्से ऐसे रहे जिससे पाठकों को मनोज जी ने वंचित कर दिया. जबकि संस्मरणों का हिस्सा बहुत ही विशाल है. यह हिस्सा अपनी तमाम खूबियों के बाद भी इस बात की चुगली करता है कि कंटेंट पर निजी संबंध ज्यादा हावी रहे. इसके अलावा 'ये जो है दिल्ली' खंड एक में कई सूचनाएं रिपीट हो रही हैं, मसलन, एमसीडी के विलय की बात एक ही अध्याय में दो बार है. दिल्ली का शासक कौन पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पेज 42 पर भी है और 44 पर भी.
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दिल्ली की राजनीति का इतिहास
इन छोटी-मोटी आलोचनाओं और भाषा की कुछ चूकों को नजरअंदाज करें तो यकीनन दिल्ली को समझने के लिहाज से 'दिल्ली दरबार' उपयोगी पुस्तक है. मनोज जी ने स्वीकार किया है कि इनमें से अधिकतर टिप्पणियां उन्होंने अपनी यादों के बल पर की हैं. कई महत्त्वपूर्ण नेताओं से जुड़े संस्मरण वे इस पुस्तक में शामिल नहीं कर सके, क्योंकि फिर यह पुस्तक आकार में बड़ी हो जाती. 'दिल्ली दरबार' हमारा परिचय दिल्ली के प्रशासनिक ढांचे से कराती है, वह विस्तार से बताती है कि लोक-व्यवस्था, पुलिस और भूमि यानी दिल्ली विकास प्राधिकरण केंद्र सरकार यानी उपराज्यपाल के अधीन किस प्रावधान के तहत हैं और इसके पीछे क्या तर्क है. देश भर से जो पोलियो का उन्मूलन हुआ, वह अभियान दिल्ली से ही शुरू हुआ था - ऐसी कई जानकारियां 'दिल्ली दरबार' में हैं, जो दिल्ली के बारे में आपको एक ठोस राय बनाने का अवसर देती हैं.
किताब : दिल्ली दरबार
लेखक : मनोज कुमार मिश्र
प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन
कीमत : 350 रुपए