पहली किस्त में आपने एक पत्र पढ़ा. कथा वाचक पेशे से ‘पेन मास्टर्स’ है और ‘द पेन सोसायटी’ नाम की एक कंपनी में काम करता है. दरअसल, इस कंपनी के पास वैसे लोगों के पत्र आते थे, जो जीवन में एकाकीपन झेल रहे होते हैं. जिनके पास बातें तो हैं पर उन्हें सुनने वाला कोई नहीं. ऐसे लोगों के पत्रों का जवाब देने के लिए कंपनी ने 'पेन मास्टर्स' बहाल कर रखे हैं.
इस अंक में आप कथावाचक के एकाकीपन से परिचित होंगे, जो खुद इदाबाशी जिले में अपनी पढ़ाई करने आया था और किसी कारणवश उसके स्नातक के कोर्स में एक साल का विलंब हो गया. कथावाचक के माता-पिता उसका पूरा खर्च उठा पाने में नाकाम होने लगे. ऐसे में कथावाचक को पेन मास्टर्स की नौकरी करनी पड़ी. अब पढ़ें कथावाचक का अंतर्द्वंद्व.
एक खिड़की (दूसरी किस्त)
मैं यह अंशकालिक नौकरी एक वर्ष से कर रहा था. उस समय मैं बाइस वर्ष का था.
मैं दो हजार येन प्रति पत्र की दर से हर माह इस तरह के तीस पत्रों के उत्तर, इदाबाशी जिले की एक छोटी-सी विचित्र कंपनी, जिसका नाम ‘द पेन सोसायटी’ था, के लिए देता था.
‘आप भी आकर्षक पत्र लिख सकते हैं’ कंपनी के विज्ञापन में डींग हांकी गई थी. नए सदस्यों को एक शुरुआती शुल्क और फिर मासिक भुगतान करना होता था, जिसके बदले वे हर माह पेन सोसायटी को चार पत्र लिख सकते थे. हम ‘पेन मास्टर्स’ अपने पत्रों द्वारा उनका जवाब देते थे, जैसा एक पत्र ऊपर दिया गया है. इनमें त्रुटि सुधार, टिप्पणियां और भविष्य में बेहतर करने हेतु निर्देश होते थे. मैं साहित्य विभाग में एक विज्ञापन देखने के बाद इस नौकरी के इंटरव्यू के लिए गया था. उस समय कुछ घटनाओं के कारण मेरे स्नातक के पाठ्यक्रम में एक वर्ष का विलंब हो गया था. इसके परिणामस्वरूप मेरे माता-पिता ने मुझे सूचित किया कि वे मेरी मासिक सहायता घटा देंगे. इस कारण जीवन में पहली बार मुझे आजीविका कमाने की स्थिति का सामना करना पड़ा. इंटरव्यू के अलावा मुझे कई और आलेख लिखने पड़े, तब एक हफ्ते बाद मुझे नौकरी पर रख लिया गया. फिर एक हफ्ते तक त्रुटि सुधार, निर्देश देने और इस व्यवसाय के अन्य गुर सिखाने हेतु प्रशिक्षण दिया गया, जिसमें कुछ भी बहुत कठिन नहीं था.
इसे भी पढ़ें : गीतकार गुलजार में आज भी धुन की तरह बजता है पाकिस्तान, जानें वजह
सोसायटी के सभी सदस्यों के लिए विपरीत लिंगी पेन मास्टर्स नियत किए गए थे. मेरे साथ कुल चौबीस सदस्य थे. चौदह से तिरपन वर्ष के, जिसमें बहुमत पच्चीस से पैंतीस वर्ष वालों का था. जिसका अर्थ था कि उनमें से अधिकांश मुझ से अधिक आयु के थे. पहले महीने मैं परेशान हो गया. महिलाएं मुझसे बहुत अधिक अच्छी लेखक थीं. उन्हें पत्र व्यवहार का अनुभव भी मुझसे बहुत अधिक था. आखिर, मैंने अपने जीवन में मुश्किल से एकाध ही गंभीर पत्र लिखा होगा. मुझे नहीं पता पहला महीना मैंने कैसे निकाला. मुझे निरंतर ठंडा पसीना आता रहता था. मैं इस बात के प्रति आश्वस्त था कि मेरे समूह के अधिकांश सदस्य नए पेन मास्टर की मांग करेंगे - जो सोसायटी के नियमों के अंतर्गत एक विशेषाधिकार माना जाता था.
महीना बीत गया और एक भी सदस्य ने मेरे लेखन के संबंध में शिकायत नहीं की. शिकायत तो दूर की बात थी, मालिकों ने मुझे सूचित किया कि मैं बहुत लोकप्रिय था. दो महीने और बीते और यह महसूस होने लगा कि मेरे समूह के सदस्यों में मेरे दिशानिर्देशों के कारण सुधार भी होने लगा था. यह अबूझ था. वे महिलाएं पूरे विश्वास के साथ मुझे अपने अध्यापक की तरह देखती थीं. जब मुझे इसका भान हो गया, मुझे उनकी आलोचना करने में काफी कम प्रयत्न लगता था और दुश्चिंता भी कम होती थी.
उस समय मुझे इसका एहसास नहीं हुआ, लेकिन ये महिलाएं एकाकी थीं (वैसे ही सोसायटी के पुरुष सदस्य भी थे). वे लिखना चाहते थे लेकिन कोई ऐसा नहीं था जिसे वे लिखते. वे इस तरह के लोग नहीं थे जो किसी रेडियो उद्घोषक को प्रशंसक के रूप में पत्र भेजते. वे कुछ अधिक व्यक्तिगत चाहते थे - भले ही वह त्रुटि इंगित करने के रूप में अथवा आलोचना के रूप में ही आती.
तो इस प्रकार ऐसा घटित हुआ कि मैंने अपने तीसरे दशक के शुरुआती वर्ष किसी विकलांग वालरस की भांति पत्रों के गुनगुने हरम में गुजारे.
इसे भी पढ़ें : JLF 2024 में शर्मिष्ठा मुखर्जी ने कहा- कांग्रेस को अब गांधी परिवार से बाहर निकलना चाहिए
और वे पत्र आश्चर्यजनक रूप से कितने अलग-अलग थे! उबाऊ पत्र, मजाकिया पत्र, दुखी पत्र. दुर्भाग्यवश मैं उनमें से एक भी अपने पास नहीं रख सका (नियमों के अनुसार हमें सारे पत्र कंपनी को लौटा देने होते थे). यह सब इतने अधिक समय पूर्व घटित हुआ था कि मैं उनमें से किसी पत्र को पूरे विवरण के साथ याद भी नहीं कर सकता. किन्तु मैं उन्हें हर तरह से जीवन से आप्लावित स्मरण करता हूं, बड़े से बड़े प्रश्न से लेकर छोटी से छोटी तुच्छ चीजों तक. और वे संदेश, जो वे मुझे भेजती थीं - मुझे, एक बाइस वर्ष के कॉलेज छात्र को - विचित्र रूप से वास्तविकता से भिन्न होते थे. कई बार तो पूर्णतः अर्थहीन लगते थे. ऐसा पूरी तरह मेरे जीवन के अनुभव की कमी के कारण नहीं था. मैं अब समझ गया हूं कि चीजों की वास्तविकता वह नहीं होती, जो आप लोगों को संप्रेषित करते हैं बल्कि कुछ ऐसी चीज है जो आप स्वयं बनाते हैं. यही बात है जो अर्थ को जन्म देती है. निश्चय ही, तब मैं यह बात नहीं जानता था और महिलाएं भी नहीं जानती थीं. यह निश्चित रूप से उन कारणों में था, जिससे उन पत्रों की हर चीज मुझे विचित्र रूप से द्विआयामी लगती थी.
जब मेरे काम छोड़ने का समय आया तो मेरे समूह के सभी सदस्यों ने खेद व्यक्त किया. स्पष्ट कहूं अगर तो मैं भी यह महसूस करने लगा था कि अब यह पत्र लिखने का अंतहीन काम बहुत हो गया, पर मैंने भी स्वयं को एक तरह से दुखी महसूस किया. मैं जानता था कि अब मुझे कभी भी इतने सारे लोग नहीं मिलेंगे, जो मेरे समक्ष अपने मन को इस सामान्य ईमानदारी के साथ खोलकर रख दें. (जारी)
कहानी 'एक खिड़की' की पहली किस्त
कहानी 'एक खिड़की' की तीसरी किस्त
देश-दुनिया की ताज़ा खबरों Latest News पर अलग नज़रिया, अब हिंदी में Hindi News पढ़ने के लिए फ़ॉलो करें डीएनए हिंदी को गूगल, फ़ेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर.