DNA Exclusive: लेखक उदय प्रकाश से खास बातचीत, कहा- हमारा संकट AI नहीं, NI है
वैशाली स्थित अपने घर में अपनी नई कहानी को अंतिर रूप देते कथाकार उदय प्रकाश.
Exclusive Interview: इस दौर के स्टार लेखक उदय प्रकाश ने डीएनए के अनुराग अन्वेषी से बातचीत में लेखन से लेकर कृत्रिम मेधा तक पर अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि असल संकट AI नहीं, बल्कि वह महत्त्वाकांक्षा है जो स्वाभाविक मेधा की वजह से पनपती है और विनाश की हद तक बढ़ती है. इस पर हमें पुनर्विचार करना चाहिए.
आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता।
आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता।
कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी
मर जाता है।
'मरना' शीर्षक से यह कविता उदय प्रकाश ने लिखी है. और यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि उनकी रचनाएं पढ़कर या उनसे मिलकर आपको सोचने की एक नई दिशा मिलती है, या पुरानी किसी बात को कहने का नया सलीका मिलता है. जाहिर है इस अर्थ में भी उदय प्रकाश इस दौर के स्टार लेखक हैं, जो अपनी उपस्थिति से आपके भीतर एक नया मनुष्य रचते हैं. (स्टार लेखक लिखते ही मुझे उनकी कही एक बात याद आ गई - 'बहुत पहले जर्मन दार्शनिक नीत्शे ने कहा था 'द गॉड इज डेड' और उसके बाद 60 लाख यहूदी मारे गए. फिर रोलाबाथ ने कहा 'द ऑथर इज डेड'. तो ऐसे में अब राइटर जिंदा है और राइटर कहने पर उदय प्रकाश नाराज हो जाते हैं, क्योंकि वो ऑथर होना चाहते हैं.)
खास बात यह कि आप उनकी रचनाएं पढ़ें या उनसे मिलें - दोनों में आपको कई समानताएं मिलेंगी. आमने-सामने बैठकर उन्हें सुनते हुए आपको भ्रम हो सकता है कि आप कोई कहानी पढ़ रहे हैं, ठीक इसी तरह उनकी कहानियां पढ़ते हुए आप इस भ्रम में हो सकते हैं कि उदय प्रकाश आपके सामने बैठकर रोचक और सहज तरीके से अपनी बात कह रहे हैं. एक दूसरी स्थिति भी है, चाहे आप उनसे बात करें या उन्हें पढ़ें, दोनों ही स्थिति में उनका कहन आपके सपने तक पर कब्जा कर लेता है. 'तिरिछ' उनकी ऐसी कहानी है, जो सभी अंतरराष्ट्रीय भाषा में अनूदित हो चुकी है. इस कहानी पर एक फिल्म भी बन रही है जिसके मार्च में रिलीज होने की संभावना है. इसी तरह छोटे आकार का उनका उपन्यास 'मोहनदास' पढ़ने के बाद कई-कई बार सपने में मोहनदास आ धमकता था. मुझसे गुहार करता था कि अफसरों के सामने उसे जीवित बताऊं. और कुछ ऐसा ही हुआ बीते दिनों उनसे मिलकर लौटने के बाद. उनकी कई बातें मेरी नींद में दखल देती रहीं. बावजूद इसके यह मुलाकात मेरी लिए बेहद आत्मीय रही.
गाजियाबाद के वैशाली वाले उनके घर में कैसे तीन घंटे गुजर गए पता ही नहीं चला. इस दौरान उन्होंने रांची को याद किया, रांची वाले अपने फुफेरे भाई कुमार सुरेश सिंह (अब दिवंगत) को याद किया. विदेश यात्राओं के किस्से सुनाए. जेएनयू के दिन याद किए, दिल्ली में नौकरी के कई किस्से सुनाए. इन सबके अलावा अपने लेखन पर भी बातचीत की, अपने किस्सों की परतें खोलीं. पेश है उनसे हुई बातचीत के चुनिंदा अंश:
सवाल : आपने कहानी लिखने से पहले कविताएं लिखनी शुरू की थीं. आपको निजी संतोष कविता लिखने से मिलता है या कहानी से?
जवाब : हां, मैंने कविताओं से ही शुरू की और कविताओं से पहले मैंने पेंटिंग की. पेंटिंग तो मुझे छोड़नी पड़ी लंबे समय तक. लेकिन आप कविताओं को देखेंगे तो उनमें जो बिंबात्मकता है, वो बहुत कुछ जो चाक्षुश कलारूप हैं, विजुअल आर्ट्स हैं, उसके समरूप है. और इसीलिए मेरी कविताओं को कई तरह से स्वीकृति भी मिली. और मैंने बार-बार कहा कि कविता ही मेरी मूल विधा है, मैं मूलतः कवि ही हूं. अब होता क्या है कि कविता का जो ऑडिएंस होता है, उसकी जो रीच होती है वो बहुत थोड़ी होती है. मैं उन कविताओं की बिल्कुल बात नहीं कर रहा जो ओरिट्री पर हैं, जो आप सुनते हैं मंचों पर, उसमें जग्लरी होती है, वागाडंबर होता है. मुहावरे, कहावतें और पॉपुलर गीत भी होते हैं. वे कहीं न कहीं लिखी ही जाती हैं कि लोग उसे तुरंत समझें और उसपर रिएक्ट करें. ...तो कविता आपको बहुत गंभीर करती है, आपको भीतर ले जाती है. कविता वो होती है जो आपको सोचने के लिए इतना विवश करती है कि आप उस पर वाह-वाह तो नहीं कर पाते, आह कर सकते हैं. क्योंकि उसका उत्स वही है. ...और मेरे ख्याल से यह बात लगभग हर कोई मानता है. मुक्तिबोध भी मानते थे. और मुक्तिबोध ने कई बार कहा भी कि अनुभव का जो पहला क्षण होता है, वह तीव्र अनुभव का है. कोई चीज आपके सामने घटित होती है या आप पर घटित होती है, तो आप उससे उसी तरह आहत होते हैं, जैसे दूसरा कोई आहत हो रहा है. अपने से बाहर जाकर जुड़ना फिर उस अनुभव को आत्मसात करना. तो मुक्तिबोध का जो पहला क्षण है रचना प्रक्रिया का, वह है तीव्र सघन अनुभव का क्षण. और इसके बाद शुरू होता है दूसरा, जो फिल्टरिंग होती है. आलोचनात्मक प्रक्रिया होती है कि आप उसको स्थगित रखते हैं, फिर उसमें आप एक अंतराल देते हैं और सोचते हैं एक कवि के रूप में. इसी को क्रिएटिव इंटरवल या रचनात्मक अंतराल कहा जाता है.
सवाल : जब आप उपन्यास लिखते हैं या कहानी लेखन करते हैं तो क्या आपको लगता है कि आपकी भाषा थोड़ी काव्यात्मक होती जा रही है या उसका सपोर्ट आपको मिल रहा है.
जवाब : नहीं, सपोर्ट तो मिलता ही है. सपोर्ट इसलिए मिलता है कि मूलतः मैं कवि हूं. तो कई बार लगता है कि गद्य में आप बहुत सारी चीजें नहीं कहते. संस्कृत का एक श्लोक है 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति'. कवियों का एक निकष है, कसौटी है कि वे गद्य लिख सकते हैं कि नहीं. तो मैं गद्य लिखने की कोशिश करता हूं, मैं हूं कवि. तो ये अंतर आता है. और मैं बहुत बार ये बात कहता भी हूं कि कहानी तब लिखी जब कॉलेज में आया. 11वीं पास किया. कविता छपी. कविता बहुत पसंद की गई. लेकिन दोस्तों ने कहा कि यार कहानी लिखो. मेरी उम्र क्या थी, 15-16 साल की थी. 66-67 की बात है. तो कहानी मैंने लिखी. कॉलेज के मैगजिन में छपी और वो लोकप्रिय हो गई. तो मुझे लगा कि कहानी जो है वो बहुत सारे दोस्त बनाती है. यानी वो आपको थोड़ा ज्यादा लोकप्रिय बनाती है. वह पहली कहानी मेरी नए कहानी संग्रह 'अंतिम नीबू' में प्रकाशित है.
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सवाल : गद्य शैली में सबसे पहले मैंने सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता पढ़ी थी, उसके बाद ऐसी कई कविताएं सामने से गुजरीं, तो कविता का गद्य शैली में आना आपको सालता है या आनंद देता है?
जवाब : ना-ना, ना-ना. मुझे सालता नहीं है. देखिए, मैं दोनों विधाओं में इस तरह का फर्क करना नहीं चाहता, जैसा आप कर रहे हैं. मैं मानता हूं कि बिल्कुल एक्सटेंशंस हैं. आपको याद होगा कि शुरू में इस पर काफी बहसें हुई हैं. बड़ी पुरानी बहसें हैं ये. अब महाकाव्य ही है, आप उसको कविता कहेंगे या आख्यान कहेंगे? एक बहुत यादगार बहस है. रूसी लेखक अलेक्जेंडर पुश्किन का 'येव्गिजीन ओनेगिन' पहला उपन्यास था, जो पद्य में लिखा गया. इसको लेकर खूब बहस हुई कि इसे क्या कहें, कविता कहें या गद्य कहें, इसको उपन्यास कहें या इसको आख्यान कहें. अधिकतर लोगों ने मान लिया कि यह पद्य में लिखा गया, कविता में लिखा गया उपन्यास है. इस बात को लोगों ने समझा, लेकिन वो बहस किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची. अब आप विक्रम सेठ को पढ़िए. उनका 'अ सुटेबल ब्वॉय' पढ़िए. वो कविता में लिखा गया है, लेकिन है वो उपन्यास. देखिए, होता क्या है कि कोई भी रचनाकार किसी भी क्षण में वो अपनी कथा के विकास के लिए क्या चुन लेगा, हो सकता है कि वो निबंध चुन ले, हो सकता है कि वो कोई ऐसा फैक्ट चुन ले जो किसी डॉक्यूमेंट्री का हिस्सा हो सकता है. किसी सिनेमा का कोई अंश चुन ले, सिनेमैटिक हो जाए, कहीं काव्यात्मक हो जाए. तो आज हम जिस समय में हैं हमारे पास कला के तमाम विकसित रूप हैं. कविता खुद भी संगीत का सहारा लेती है. संगीत के बिना कई बार कविता उस तरह से लोकप्रिय नहीं हो पाती या उतने भीतर तक नहीं जा पाती. तो मुझे जो आपका प्रश्न था उस पर यही कहना है कि यह अंतर नहीं है. हमलोग जिस समय में हैं हमारे सामने इतने सारे कलारूप (आर्टफॉर्म्स) हैं और हमारे पास ये सुविधा है कि हम कहीं किसी चीज का सहारा ले सकते हैं. यह छूट रहनी चाहिए.
सवाल : चूंकि आपने मौजूदा वक्त की सुविधाओं की बात की, इसलिए इस सवाल पर भी ध्यान जाता है कि क्या पहले के मुकाबले अब लेखकों को बहुत सतर्क होकर लिखना पड़ रहा है या क्या उसे अपने लेखन को 'सेल्फ सेंसरशिप' से गुजारना पड़ रहा है?
जवाब : बहुत पहले जब उत्तर आधुनिकता का आगमन होने वाला था तब एक किताब आई थी अंबर्तो इको की 'ट्रैवल्स इन हाइपर रियलिटी', अतिसंवेदी यथार्थ में यात्रा. हमलोग जिसमें हैं ये बिल्कुल हाइपर है समय. इसमें आप कोई नॉर्मल नहीं पाएंगे. जिसे हम साधारणतः नैचुरल कहते हैं, प्राकृतिक कहते हैं, स्वाभाविक कहते हैं, उसमें कहीं न कहीं संतुलन होता है. यह वक्त हाइपर है. आपका कौन सा शब्द किसको क्या अर्थ दे जाए, कहां आहत कर जाए, कहा नहीं जा सकता. यह वक्त इतना संवेदनशील है कि परिवार बिखर रहे हैं. और हम लगातार उसी ओर बढ़ते चले जा रहे हैं. अच्छा, जितनी भी हम टेक्निकल ग्रोथ की ओर बढ़ेंगे, हम अपनी सेंसेब्लिटीज और संवेदनीयता को और हाइपर मोड में ले जा रहे हैं. हम उसे और ऐसी अति संवेदनशील स्थिति में पहुंचा रहे हैं कि मुझे लगता है कोई किसी का चेहरा देख कर भी अति संवेदित हो सकता है. ... किसी भी समाज या समुदाय, या नस्ल या जाति या किसी के भी प्रति क्रोध या असंतोष पहले भी रहता था, लेकिन ऐसा हाइपर समय नहीं था कि आप इस तरह से रिएक्ट करें जैसा उस अमेरिकन ने किया 22 लोगों को मारकर. और कुछ ही समय पहले एक संगीत उत्सव में एक ऐसे ही विक्षिप्त व्यक्ति ने बहुतों की हत्या कर दी. तो मुझे लगता है कि ऐसे समय में साहित्य की जो मुख्य भूमिका है, वह यही है कि इसको कूलडाउन करता है, जैसे कोई ट्रैंकूलाइजर की गोली. यह चित्त को शांत करता है.
सवाल : आपकी एक कहानी है पालगोमरा का स्कूटर. यह बहुत चर्चित कहानियों में एक रही है. आपकी निगाह में इसमें ऐसा क्या खास है कि यह इतनी लोकप्रिय हुई.
जवाब : दरअसल, इस कहानी में अपने समय को समझने की कोशिश की गई है. देखिए, समय कैसे बदलता है. हमलोग जिसको नजरअंदाज करके चलते थे वो है टेक्नोलॉजी. और आपने देखा होगा कि 80-89 के बीच के नौ महीनों में जैसे मानव सभ्यता के गर्भ से एक नई संतान का जन्म हुआ. और इस टेक्नोलॉजिकल ग्रोथ को हमने सोचा कि अरे यार ये तो ऐसे ही ही. जबकि वह मानव सभ्यता की एक मूलगामी छलांग थी. इसने पूरी दुनिया को बदल दिया. मोबाइल आ गया, सस्ती कार आ गई, कंप्यूटर आ गया, वॉकी-टॉकी आ गया. लेकिन ये महज आ जाना नहीं है, ऐसी चीजों के आने से पूरा समाज बदलता है, उसकी पूरी संरचना को बदलता है. इसके पीछे पूरा ऐतिहासिक तथ्य है. आदमी ने जब पहली बार पहिया बनाया, तो वह एक टेक्नोलॉजिकल चेंज था. उसके बाद पूरी एक सभ्यता में बदलाव आया. मैंने उस कहानी में एक जगह मजाक किया है, जो कुंजी है उस कहानी की. महात्मा गांधी से ज्यादा समझदार, चतुर, विलक्षण, तीव्र, तीक्ष्ण और अपने समय की परख करने वाला शायद ही कोई रहा हो. आप चरखा को देखें तो यह गेयर एंड व्हील है. ये वही है जिससे आज भी टेक्नोलॉजी चल रही है. आप आज कोई भी गाड़ी खरीद लें, अगर व्हील और गेयर नहीं होगा तो पहिया नहीं हिलेगा, चीजें नहीं चलेंगी. उन्होंने उसी का इस्तेमाल किया, चरखे का. और चरखा चला तो मानचेस्टर के सारे टेक्स्टाइल मिल बंद हो गए. तो मैंने कहा कि चरखा जो है वह आयुर्वेद है. उस कहानी में ये लिखा हुआ है. और ये भी कि एक दिन सारी टेक्नोलॉजी आयुर्वेद हो जाएगी. तो ये समझ गांधीजी में थी. और वो जो पालगोमरा का स्कूटर है, वो एक तरह का व्यंग्य है, ह्यूमर है. कंप्यूटर के आने से पहले जो प्रिंटिंग का तरीका था, उसमें याद कीजिए न कि कितने लोग काम करते थे. लेकिन कंप्यूटर के आने के बाद अचानक वो सारे आदमी लापता हो गए, सिर्फ एक आदमी बैठकर सारी चीजें हैंडिल करने लगा. हर टेक्नोलॉजी मानवीय भागीदारी खत्म करती है. तकनीकों में बदलाव के साथ भाषा भी बदलती है. पालगोमरा का स्कूटर कहानी का एक गुण उसकी वाचिकता भी थी. और अगर उसका अंत देखें तो बहुत गंभीर कहानी है. नई इकोनॉमिक पॉलिसी आने के बाद एक नया मध्यवर्ग उभर रहा था. यह नया मध्यवर्ग चाहता था कि जो ड्राइंगरूम टीवी में दिख रहा है वह उसके घर में भी हो. इस मध्यवर्ग को अपना घर बहुत मैला दिखता था, दूसरों की चीजें बेहतर दिखती थीं. तो यह कहानी उसी अंतर्विरोध की कहानी है. उस कहानी में एक जगह कहीं विज्ञापन के दौर की चर्चा है. विज्ञापन शुरू होने के बाद लगने लगा कि सबकुछ यही विज्ञापन है. विज्ञापन की रीच इतनी बड़ी हो गई कि परिवार की राजनीति भी विज्ञापन है. जो भी आप देखते हैं, वो सबकुछ विज्ञापन है. विज्ञापन के बाहर कुछ नहीं है. उस कहानी में एक प्रसंग आता है जिसमें आभा मिश्रा नाम की एक लड़की है. उसके पिताजी टीचर हैं या वेटनरी डॉक्टर हैं. तो आभा मिश्रा प्रभावित होती हैं नई जेनरेशन से. वे भागकर दिल्ली आती हैं. वहां उनसे एक विज्ञापन कंपनी संपर्क करती है. यह बीयर का विज्ञापन है. उसमें एक घोड़ा है, जिसपर वो बैठती हैं और घोड़ा झाग में बदल जाता है और उसमें वो पिघल जाती हैं. ऐसा ही एक और विज्ञापन है. ...और इसके बाद वो आभा मिश्रा सुपर हिट मॉडल हो जाती हैं. और उसके पिताजी गांव पर उसी तरह से रहते हैं टूटे-फूटे घर में अपनी पत्नी, अपनी गाय... सबके साथ. जबकि आभा मिश्रा का पूरा क्लास बदल जाता है. कहीं न कहीं एक ऐसी मनी आई, एक ऐसी प्रॉसपैरिटी आई, जो अब वहां से नहीं आ रही थी... आप इसके पैरलल देखिए कि आपकी जो एग्रो इकॉनोमी थी, जो कृषि अर्थव्यवस्था थी, वो बिल्कुल धीरे-धीरे बाहर होती जा रही थी, गांव बाहर होते जा रहे थे. और उसकी जगह बिल्कुल नया, जिसको मेट्रो कल्चर बोलते हैं, उसकी शुरुआत हो रही थी. तो यह कहानी इस बदलते हुए कल्चर को पकड़ती है. उसमें मूल ये है स्कूटर उस समय एक ऐसी चीज थी जो सबके पास होनी चाहिए थी. आलम यह था कि शादी होती थी तो दूल्हा उस खास ब्रांड का स्कूटर मांगता था. तो उस कहानी में पालगोमरा की जो समझ है उसे ऐसे देखें कि कहानी में पालगोमरा का नाम राम गोपाल सक्सेना है. तो इस राम गोपाल को लगा कि हिंदी में कोई कविता लिखता है और हिंदी में लिखने में अगर मेहनत करनी है... तो किसी का नाम हजारी प्रसाद, किसी का नाम केदारनाथ, किसी का नाम मैथिलीशरण गुप्त, तो उन्हें ये लगा कि पुराने नाम हैं, नए के लिए हमको अपना नाम बदलना होगा. राम गोपाल ने अपने नाम के गोपाल से 'पाल' लिया इसके बचे हुए 'गो' में अपने नाम के 'राम' को उलट कर जोड़ दिया, तो इससे बन गया 'गोमरा' और इस तरह उसने अपना नाम रखा 'पाल गोमरा'. इस नाम से किसी बड़े कवि के नाम का भान होता है जैसे कोई लैटिन अमेरिकन कवि है. तो यहां से उन्होंने अपनी आइडेंटिटी बदली. तो ये जो बदलते वक्त के साथ समाज बदल रहा था, आइडेंटीटी बदल रही थी - यह कहानी इन सभी चीजों पर दृष्टि देती है, उन्हें परखती है, उन्हें तोलती है. शायद इस वजह से भी यह खूब चर्चित रही.
सवाल : आपने अभी तकनीक की बात की, गांधी के चरखे की बात की, बदलते वक्त की बात की. तो इन बातों से मेरे मन में एक सवाल उभरता है कि ये जो नई तकनीक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) यानी कृत्रिम मेधा है. तो इस कृत्रिम मेधा के आने को लोग लेखन पर संकट के बादल की तरह देख रहे हैं. आपकी निगाह में क्या लगता है कि वाकई कोई खतरा है या इस पर अभी कोई स्पष्ट राय नहीं बन पाई है.
जवाब : नहीं, इस पर मेरी राय है. स्पष्ट है या धुंधला - कह नहीं सकता. मैं पढ़ता रहता हूं, देखता रहता हूं. एआई का आना तय था. इस पर कई फिल्में बनी हैं. एक फिल्म थी महान रूसी फिल्मकार तारकोव्स्की की 'सोलैरिस'. जिसमें यह था कि अगर आप ज्यामितीय संरचना ऐसी बना लें तो उससे आप किसी भी पदार्थ को, व्यक्ति को, वस्तु को पुनर्जीवित कर सकते हैं. उसमें एक लड़की ज्यामितीय संरचना से तैयार की जाती है. अब वो लड़की रीयल नहीं है. लेकिन वो है तो पर उसके भीतर वो संवेदना नहीं है. बाद में वो संवेदित भी होने लगती है. लेकिन वह कुछ कर नहीं सकती क्योंकि वह अल्गोरिदम से तैयार हुई है. बहुत मार्मिक फिल्म है वो. लेकिन अब जो एआई द्वारा तैयार होगा वह कुछ भी कर सकता है, यही खतरा है. एक फिल्म है अलाइव. इस फिल्म में है कि संक्रमण जीवाणु से नहीं बल्कि ऐप्स से आएगा. यह संक्रमण आपके रहन-सहन से लेकर खान-पान तक को प्रभावित बना देगा. इस फिल्म में संक्रमण का असर लोगों को मानवभक्षी बना देता है. यह फिल्म बेहद डरावनी तो है, लेकिन इसमें चेतावनी भी है. प्राकृतिक मेधा (NI) को बचे रहना जरूरी है. तो एआई के बारे में ये चल रहा था. एआई के बड़े विशेषज्ञ माने जाते हैं अनजान सुंदरम (मुझे आश्चर्य हुआ यह जानकर कि सुंदरम रांची के ही हैं). अभी हाल ही में न्यूयार्क टाइम्स ने बड़ा सेमिनार आयोजित किया था. उसमें अनजान सुंदरम को भी बुलाया था. तो उस सेमिनार में न्यूयार्क टाइम्स में जो एक पत्रकार कॉलम लिखता है, उससे उनकी बहस हो रही थी. वो लंबी बहस है, दो-तीन घंटे की. उस बहस में अनजान का कहना है कि एआई का उपयोग हर जगह एक जैसा नहीं है. उन्होंने कहा कि जब मैं शंघाई गया तो वहां एआई का अलग प्रयोग देखा. ध्यान रहे कि शंघाई चीन का बैक बोन है. आर्थिक गतिविधियों का सबसे बड़ा केंद्र है. तो सुंदरम ने बताया कि वहां एआई एक ग्लास चेंबर में बैठा है और वहां उस कॉरपोरेट ऑफिस में जो लोग काम कर रहे हैं, उन्हें यह एआई रीड कर रहा है. वह देख रहा है कौन सा वर्कर काम कर रहा है, कौन काम का दिखावा और किसका मन काम में जरा भी नहीं लग रहा. इन सभी वर्करों को वो मॉनिटर करता है कि इनमें से कितने लोगों को काम करने के लिए मोटिवेट किया जा सकता है और कितने लोग ऐसे हैं जिन्हें जितना भी मोटिवेट कर लिया जाए, उन पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. इन सारी रिपोर्ट के बाद कंपनियां अपने कर्मचारियों को रखने न रखने का फैसला करती हैं.
अब देखें कैलिफोर्निया में. वहां एआई का इस्तेमाल अलग ढंग से है. वहां हो सकता है कि आप किसी मॉल में अकेले जा रहे हों तो वहीं बाहर में आपको कोई लड़की मिल जाए जो आपके साथ मॉल जाने को राजी रहे. यह लड़की दरअसल एक एआई है. वह आपसे वो सारी बातें करेगी जो आपकी गर्ल फ्रेंड करती. तो कैलिफोर्निया में एआई का इस्तेमाल बिल्कुल दूसरा है.
इसी तरह जापान को देखें तो वहां एआई का इस्तेमाल एक दूसरे स्तर पर ही किया जाता है. वहां का मानना है कि कोई भी एआई वही क्रिएट करेगा जो उसका सेल्फ है. मतलब इसको आप यूं समझ लें कि ईश्वर के एआई हमलोग हैं. ईश्वर ने हमको अपनी तरह बनाया है. यानी ईश्वर ने भी अपने सेल्फ को बनाया. तो अगर हम अपने सेल्फ को री-क्रिएट करें तो हम उससे डरें क्यों? वहां सुंदरम ने एक रिटायर्ड प्रोफेसर का उदाहरण दिया. उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई थी. उस प्रोफेसर का कहना था कि पत्नी को मरे हुए 5 साल हो चुके हैं. अकेला हूं पर उसे कोई परेशानी नहीं है. मैंने अपनी पत्नी का होलोग्राम तैयार कर लिया. जब मुझे घर जाना होता है तो पहुंचने से पहले मैं उसे टेक्स्ट मेसेज भेजता हूं कि मैं इतने बजे तक आ रहा हूं. तो वह सही समय पर दरवाजा खोल देती है, लाइट जला देती है, खाना गरम कर देती है. वो सारा काम कर देती है. मैं अपनी पत्नी को मिस ही नहीं करता. तो उन्होंने कहा कि जब आप अपने स्व को री-क्रिएट करते हैं तो डर कैसा. लेकिन उसी सेमिनार में न्यूयार्क टाइम्स के उस स्तंभकार पत्रकार का कहना था मैं उससे सहमत हूं. उस पत्रकार ने कहा कि पूरे मानवीय समुदाय की, इस पृथ्वी की और हमसब की जो क्राइसिस है वह टेक्नोलॉजिकल क्राइसिस है ही नहीं. हमारे संकट का समाधान टेक्नोलॉजी में नहीं है. हमारे संकट का समाधान प्रकृति में है, नेचर में है. ऑक्सीजन नहीं है, नदियां नहीं हैं, पानी सूख गया है, जंगल नहीं हैं, जीव-जंतु मर रहे हैं. हमलोग कहीं न कहीं एक लिंक से जुड़े हुए हैं. अभी 77 प्रतिशत मधुमक्खियां मर चुकी हैं. सिर्फ 33 प्रतिशत मधुमक्खियां बची हैं और जिस दिन आखिरी मधुमक्खी मरेगी, उसके 72 घंटे के भीतर पृथ्वी पर जीवन समाप्त हो जाएगा. तो हमारा संकट वहां है, एआई में नहीं है. नेचर को नष्ट करके हम कहां जाएंगे. आप चंद्रमा पर भागेंगे, वो भी तो नेचर का हिस्सा है. आप उसे भी नष्ट कर देंगे. यह पूरी जो महत्त्वाकांक्षा है, मुझे लगता है कि बुनियादी रूप से हमें पुनर्विचार करना चाहिए. साहित्य का काम चेतावनी देना है. यह कहते हुए उदय प्रकाश ने एक अमेरिकी कवि की कविता की कुछ अनूदित पंक्तियां सुनाईं -
जो शेर को बचाने का
दावा करते हैं
वो झूठ बोलते हैं
क्योंकि वो
घास के बारे में चुप हैं.