DNA Katha Sahitya: अर्पण कुमार की कहानी 'ऑफिस की कार, एक अनार सौ बीमार'
कथाकार अर्पण कुमार.
DNA Katha: पदोन्नति और मनोनुकूल स्थानांतरण के लिए उन्होंने कितने पापड़ बेले होंगे, कितने कंधों का इस्तेमाल किया होगा, कितने सहकर्मियों का पत्ता काटा होगा- अभिनव अंदाज लगाना चाहता और हार जाता. सरोज की डीएनए मैपिंग उसके वश से बाहर की बात थी.
डीएनए हिंदी : अर्पण कुमार कवि और कथाकार तो हैं ही, आलोचक के रूप में भी उनकी पहचान गहरी है. अब तक उनकी कविताओं के पांच संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. एक उपन्यास 'पच्चीस वर्ग गज (2017)' और आलोचलना की दो पुस्तकें भी उनके खाते में हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके व्यक्ति-चित्र और यात्रा-संस्मरण प्रकाशित होते रहे हैं.
उनके कविता-संग्रहों के नाम हैं - नदी के पार नदी (2002), मैं सड़क हूँ (2011), पोले झुनझुने (2018), सह-अस्तित्व (2020) और नदी अविराम (2022). फोटोग्राफी में उनकी विशेष रुचि रही है. शायद यह एक बड़ी वजह है कि वो कहानी लिखते वक्त अपने पात्रों के चरित्र के डिटेल में जाते हैं और उनका पूरा खाका पाठकों के सामने खींच कर रख देते हैं. यह कहानी एक ऐसे पात्र की है जो नौकरी में बने रहने और अधिकारियों का चहेता बने रहने के सारे गुण जानता है. उसे वे तमाम चोर दरवाजों का पता है जहां से 'इनकम' का सोता फूटता है. तो पढ़िए अर्पण कुमार की कहानी 'ऑफिस की कार, एक अनार सौ बीमार'.
पिता की सीख बनाम असुरक्षा बोध
पांच वर्ष होने को आए. अभिनव बघेल इस पब्लिक अंडरटेकिंग में तब सीधे प्रबंधक के रूप में आया था. वह बी-टेक (सिविल इंजीनियरिंग) था और उसका कैंपस-सेलेक्शन हुआ था. भुवनेश्वर के प्रतिष्ठित एनआईटी कॉलेज से टेक्निकल डिग्री लेकर आए अभिनव के लिए ऑफिस का यह माहौल काफी नया-नया था. उसके पिता छत्तीसगढ़ के एक गांव में रह रहे थे और उसको पढ़ाने में उन्होंने अपनी पूरी कमाई झोंक दी थी. छोटी-मोटी जितनी भी थी. जब उतने से भी बात नहीं बनी, तो उनकी पुश्तैनी जमीन भी इस सिलसिले में भेंट चढ़ी. कुछ कर्ज भी चढ़ आया. उसके पिता पास के एक गांव में माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक थे और खाली समय में अपनी थोड़ी-सी जमीन पर खेतीबाड़ी करवाया करते. अंततः उसे जब यह नौकरी लगी, तो उसके पिता समेत पूरे परिवार ने राहत की सांस ली.
अपने परिवार से विदा लेकर अभिनव भिलाई में अपनी नौकरी का कार्यभार ग्रहण करने जा रहा था. गांव से कुछ दूर मुख्य सड़क तक उसके पिता उसे छोड़ने आए. पिता-पुत्र साथ-साथ चल रहे थे. अपने बेटे को समझाने की गरज से अपने ग्रहित अनुभवों के आधार पर उन्होंने उससे कुछ कहना शुरू किया, "अभिनव बेटे, अब तुम्हारे जीवन की एक नई पारी आरंभ हो रही है. हर कदम फूंक-फूंक कर उठाना. अपने से बड़े का लिहाज करना और अपने से छोटे से प्यार के साथ पेश आना. कई बार तुमसे कुछ बड़े लोग तुमसे अधिक बचपना करते नजर आएंगे, उनसे तुम्हें अतिरिक्त रूप से संभलकर रहना होगा. ऐसे लोग ऊपर से बड़े मिलनसार मगर अंदर से घोर अहंकारी होते हैं. कई बार तुम गलत नहीं रहोगे, फिर भी तुम्हें झुकना पड़ सकता है. तुम उनसे उलझोगे तो किसी समस्या में पड़ सकते हो. ऐसे लोगों का तुम कुछ बिगाड़ नहीं सकते, मगर वे तुम्हारी नींव तक हिला सकते हैं. मोटी-सी बात है, तुम्हारे सीनिअर तुमसे पहले से वहां जमे हुए हैं. उन्होंने अपने आप को वहां सिद्ध कर रखा है. जमे-जमाए हैं. उनकी कोई-न-कोई इमेज बनी हुई है. लेकिन तुम बिल्कुल शून्य से प्रारंभ करने जा रहे हो. तुम्हें वहां पूरी तरह स्थापित होने में समय लगेगा. तब तक तुम्हें कुछ गलत चीजें भी बर्दाश्त करनी पड़ सकती हैं."
पिता का कहा एक-एक शब्द अभिनव के भीतर बहुत ही सुरक्षित रूप में जमा होता चला जा रहा था. वह उनकी बात बड़े ध्यान से सुन रहा था. कुछ भावुक भी हो रहा था. उसके मुंह से सहमति में निकला, 'हऊ.' भावावेश में उसकी भाखा छत्तीसगढ़ी उसके भीतर सहज ही उतर आती थी.
अपनी बात को स्थानिकता का रंग देते हुए अभिनव के पिता ने आगे कहना जारी रखा, "हमारे गांव-घर में भी तो यही होता है. अपने अनुभव से बता रहा हूं. इस बात की गांठ बांध लो. कभी भी अपने आदर्श से स्वयं को गिरने मत देना. हमेशा उसे अपने हित से ऊपर रखो. और हां, हमारी सुरक्षा हमारे लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती है. बेटा, यह जीवन किसी चक्की सरीखा है. कई बार इसमें हमारा स्वाभिमान पिसने लगता है. आगे बढ़ने के लिए बहुत कुछ सहना पड़ता है. एक बड़ा व्यक्तित्व बनने के लिए नीलकंठ होना पड़ता है."
वे कुछ देर चुप रहे और सोचते हुए-से कहने लगे, "मैं क्या बोलूं! अब तुम मुझसे ज्यादा पढ़-लिख गए हो. ज्यादा समझदार भी होते जा रहे हो."
बस समय पर आ गई थी. पिता के चरण-स्पर्श कर वह अपने गंतव्य के लिए रवाना हुआ. जाते-जाते वह अपने गांव के खेतों की हरीतिमा और पुराने तालाब की नमी अपनी आंखों में अधिक-से-अधिक समो लेना चाहता था. बस ने रफ्तार पकड़ ली थी. अभिनव की आंखों में सुनहरे भविष्य का इंद्रधनुष उतरने लगा था.
अभिनव बघेल को पिता के कहे शब्द आज भी अक्षरशः याद हैं. वे शब्द उसके पिता के अनुभव-कोश से बाहर आए थे. वह चुपचाप किसी आज्ञाकारी और लायक बच्चे की तरह उस दिन उनकी सारी बातें सुनता रहा था. अपने पिता की वित्तीय सीमाओं को बेहतर समझता था. प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्होंने उसे अच्छी शिक्षा दिलवाई. राज्य के बाहर एक प्रीमियर इंस्टिट्यूट में जब उसका सेलेक्शन हुआ तो उसकी फीस, होस्टल, मेस आदि का खर्चा सब हंसते-हंसते उठाया. अभावजन्य स्थितियों में पुत्र के लिए डटे अपने पिता के संकल्पों का वह साक्षी था. उसके मन के किसी कोने में अपने पिता के प्रति अगाध आदर की भावना थी. उसने कभी अपने पिता को जताया नहीं, मगर वे उसके आदर्श थे.
अभिनव ने जयश्री की बातों में किसी प्रत्यक्ष चोट की कोई टीस महसूस की. शायद कभी उनका रास्ता सरोज ने काटा हो. वह उनके होंठों पर बढ़ते जाते कसैलेपन का अंदाज कर सकता था.
अभिनव के पोर्टफोलियो के हिसाब से उसका मुख्य कार्य, इस सार्वजनिक उपक्रम के अंतर्गत आनेवाली संस्थापनाओं, उत्पादन-केंद्रों और कार्यालयों के परिसर के निर्माण और रख-रखाव से संबंधित था. कार्यालय-भवनों की डिजायन, उसकी मजबूती और उसकी आंतरिक और बाह्य साज-सज्जा सभी कुछ. कुछ भवन, कंपनी के अपने थे तो कई जगहों पर लीज पर लिए हुए. उसके अंचल का क्षेत्र कुछ विस्तृत था. छत्तीसगढ़ के कई जिले उसके अंतर्गत आते थे. रायपुर, दुर्ग, धमतरी, बस्तर आदि. कहीं कोई कार्यालय शिफ्ट हो रहा होता तो कहीं कोई नया कार्यालय खुल रहा होता. कहीं किसी पुराने ऑफिस के सौंदर्यीकरण और मजबूतीकरण पर काम हो रहा होता. किसी नए परिसर के लिए लीज पर किसी बिल्डिंग को लेने के निर्णय को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया से पहले कई-कई बार उसे वहां जाना पड़ता और उसका अलग-अलग कोणों से निरीक्षण करना होता. अपनी रिपोर्ट उसे आगे हेड-ऑफिस को भेजनी पड़ती. पहले से ही लीज पर चल रहे कार्यालयों में मरम्मत की जरूरतों और उनसे संबंधित कई अन्य सिविल-कार्य से जुड़े मसलों की जांच-पड़ताल के लिए नियंत्रणाधीन विभिन्न कार्यालयों और उत्पादन-केंद्रों पर उसे जाना होता था.
उन दिनों सिर्फ अंचल प्रमुख के पास ही एक गाड़ी थी. बिना उनकी अनुमति के उसे कोई और अधिकारी कहीं नहीं ले जा सकता था. किसी अधिकारी को आगे बढ़कर ऐसी कोई मांग करने की उनसे हिम्मत नहीं होती थी. इस कार्यालय में ऐसी कोई परंपरा नहीं थी. जिन अधिकारियों को निरीक्षण के लिए बाहर जाना पड़ता, कोई-न-कोई टैक्सी हायर करके वे जाया करते. अक्सरहां एक टैक्सी में दो लोग जाते. इससे ऑफिस के 'एक्स्पेंडीचर हेड' में कुछ बचत हो जाती.
अंचल कार्यालय, भिलाई में कार्यरत सरोज शरण तेज-तर्रार, खुर्राट माने जानेवाले अधिकारी थे. वे इंदौर से स्थानांतरित होकर यहां आए थे. बहुत कम समय में सरोज ने यहां की चीजों को आत्मसात कर लिया था. अपने ढंग से कई नियमों और सुविधाओं को तोड़ने-मरोड़ने लगे थे. खासकर अपने काम से जुड़े मदों को हाइलाइट करके अधिक-से-अधिक छूट लेते चले जाने की उनकी आदत थी. अपने मातहत अधिकारियों-कर्मचारियों से येन-केन-प्रकारेण काम करवा लेते. अंचल प्रमुख के केबिन में जाकर स्टाफ सदस्यों की शिकायत करते और परफॉरमेंस-क्रेडिट के सारे मोर-पंख स्वयं के मुकुट में जोड़ लेते. कहां से क्या फायदा हो सकता है, इसपर उनकी विशेष नजर रहती. जितनी सुविधाएं उन्हें ऑफिस से मिल रही थीं, वे कम नहीं थीं. मगर, उनसे कई गुणा अधिक सहूलियतें प्राप्त करने के लिए वे तत्पर रहते. मुफ्त विलासी बनने का हर मौका हड़प लेना चाहते. आदर्श-वादर्श की बातें उनसे कोसों दूर थीं. लोगों को अपने हित में इस्तेमाल करके फेंक देने का हुनर उन्हें आता था. किसी संस्था में ऐसे अधिकारी जोंक सरीखे होते हैं. सरोज वही थे. उनका चेहरा तंबई लाल था. संस्था के शरीर से चिपक कर जैसे उसका खूब खून चूसा हो. अपने हित में कुछ कर लेने की उनकी जुगत कई बार सूक्ष्म ढंग से काम कर रही होती. कुछेक अवसरों पर उनका यह प्रयास लोगों के सामने प्रत्यक्ष भी हो जाता.
पदोन्नति और मनोनुकूल स्थानांतरण के लिए उन्होंने कितने पापड़ बेले होंगे, कितने कंधों का इस्तेमाल किया होगा, कितने सहकर्मियों का पत्ता काटा होगा- अभिनव अंदाज लगाना चाहता और हार जाता. सरोज की डीएनए मैपिंग उसके वश से बाहर की बात थी.
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सरोज शरण 'केमेस्ट्री' में एमएससी थे और क्लर्क से मुख्य प्रबंधक के अपने वर्तमान पद तक आ पहुंचे थे. सन् 2000 से पूर्व तक वे अविभाजित मध्य प्रदेश के ग्वालियर, भोपाल और जबलपुर जैसे शहरों में रहे. जब 2000 में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश से अलग होकर एक नया राज्य बना, तो उनके हेड ऑफिस की ओर से उन्हें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में से किसी एक राज्य को चुनने का मौका दिया गया. उन्होंने बहुत सोच-समझकर नए राज्य का चुनाव किया. उन्होंने प्रकटतः जो कारण बताया, वह कुछ आदर्शवादी था. अपने प्रकृति-प्रेम का भी बखान किया. निकटवर्ती राज्य में अपने पैतृक निवास-स्थान को वहां से पास बतलाया. मगर, सच्चाई कुछ और थी. उनकी शिकारी प्रवृत्ति ने कई दूसरे शिकारियों की तरह नए-नए बने राज्य में अधिक-से-अधिक माल कमा लेने की दबी हसरत पाल रखी थी.
सरोज को अपनी किस्मत से एक विशेष शिकायत थी. अपने जीवन में आईएएस क्यों नहीं बन पाए या स्टेट पीसीएस क्यों नहीं क्रैक कर पाए, इसे लेकर कभी पाली गई उनकी महत्त्वाकांक्षा अब तक कुंठा का रूप ले चुकी थी! उनके साथ तैयारी करनेवाले कुछ लोग बड़ी प्रशासनिक नौकरियों में आ चुके थे. शुरू-शुरू में सरोज, क्लर्क के रूप में अपनी पहचान छुपाया करते. उनके घरवालों ने लड़कीवालों से उनकी शादी, उनके अफसर होने की बात कह कर ही कराई. बाद में पत्नी और ससुराल के बाकी लोग उनके पद की हकीकत से वाकिफ हुए तो वे बस झेंप कर रह गए. नजरें घुमाते हुए उनसे बस इतना ही कह पाए, "नौकरी के तीन साल तो हो ही गए हैं. चौथे साल में मैं अफसर बन रहा हूं."
अपनी पदोन्नति को लेकर वे पहले ही से कैसे इतना निश्चिंत थे, इसके बारे में कुछ स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता, मगर वे सचमुच पहले ही अवसर में अफसर बन गए. क्या जादू चलाया होगा! किसे साधा होगा!
वास्तविकता से कुछ अधिक दिखाने और समझने की उनकी प्रवृत्ति आज भी वैसी ही थी. वे पैंतालिस के लपेटे में हैं. कई प्रमोशन ले चुके हैं. ऑफिस में अपने बॉस को और हेड ऑफिस से आनेवाले टॉप मैनेजमेंट को प्रभावित करने में वे जी-जान से लग जाते हैं. परिवार के सदस्यों को भी ऐसे कामों में झोंक देते हैं. इस कंपनी में कॉरपोरेट कल्चर की तहों और अंतर्कथाओं को सरोज भलीभाँति जानते हैं. आगे बढ़ने के लिए आवश्यक सभी तिकड़में उनकी जीवनचर्या के हिस्से हैं.
सरोज के ही साथ मुख्य प्रबंधक के पद पर पदोन्नत हुईं जयश्री सिरीगिरी उन्हें भली-भांति जानती थीं. जयश्री अपनी बड़ी, कजरारी आंखों को और बड़ा करती हुई उस शाम अभिनव बघेल को बता रही थीं, "जानते हो अभिनव, पदोन्नति जैसी किसी बड़ी उपलब्धि के लिए सरोज किसी की गर्दन तक कटवा सकता है. सांप-सीढ़ी के खेल में ऊपर चढ़ने के लिए वह किसी को कभी भी नीचे गिरा सकता है. अपने किसी सहकर्मी या कई बार किसी अधीनस्थ को भी वह सांप से डंसवा तक सकता है. बड़ा जहरीला है वह! सांप उसे काटे तो उसका कुछ नहीं होगा. सांप अवश्य मर जाएगा. अपना उल्लू सीधा करने में वह किसी की गर्दन नाप सकता है. अब वह, यहां एक महत्त्वपूर्ण पोस्ट पर आ गया है. तुम आगे देखते जाओ, किस तरह वह इस ऑफिस में गंदगी फैलाता है!"
संस्था की ओर से कई बार 'वेलफेयर हेड' में कोई फेमिली गेट-टु-गेदर किया जाता. वैसे कार्यक्रमों में कुछ छोटे-मोटे गिफ्ट दिए जाते. सरोज अधिक-से-अधिक संख्या में उन्हें अपने परिवार के भीतर लाने की कोशिशों में लग जाते.
ऑफिस के इस पीछे वाले कुछ एकांत-से केबिन में जयश्री ने अभिनव के आगे ऐसे कई पंचांग खोले हैं.
अभिनव चुपचाप जयश्री की बातें सुनता रहा. उनके आकलन की गर्मी उस तक पहुंच रही थी. जयश्री कुछ धीमे स्वर में आगे बोलती चली जा रही थीं, "जानते हो! अपने फायदे के लिए यह किसी के करिअर से कैसा भी खेलवाड़ कर सकता है! ही इज सिंपली ए वेरी सेल्फ-सेंटर्ड पर्सन, यू नो!"
अभिनव ने जयश्री की बातों में किसी प्रत्यक्ष चोट की कोई टीस महसूस की. शायद कभी उनका रास्ता सरोज ने काटा हो. वह उनके होंठों पर बढ़ते जाते कसैलेपन का अंदाज कर सकता था.
इस बीच, सरोज शरण के बाएं गाल पर मस्सा उभर आया. समय के साथ उसका आकार बढ़ता चला जा रहा था. वह धीरे-धीरे कुछ अधिक लाल भी होता जा रहा था. उसे कोई जरा-सा छेड़ दे, तो वह धारा छोड़ते हुए फट पड़े, ऐसा लग रहा था. उसकी उपस्थिति से सरोज का चेहरा इन दिनों कुछ अजीब सा लगता था. उसे हटाने के लिए ऑफिस के लोग और उनसे मिलने आने वाले कुछ विशेष-प्रिय आगंतुक, उन्हें अलग-अलग राय दे रहे थे. वे सभी की बातें चुपचाप सुन रहे थे. उनके मन में कौन-सा हिसाब-किताब चल रहा था, इसका पता लगाना किसी के लिए आसान नहीं था. उनके चेहरे पर जिस तरह वह मस्सा बढ़ता चला जा रहा था, उसी तरह संभवतः उनके भीतर की कोई ग्रंथि भी उनकी उम्र के साथ लगातार बढ़ती चली जा रही थी. अंतर बस यह था कि उनके चेहरे का मस्सा सबको दिख रहा था, वहीं उनके भीतर की ग्रंथि अदृश्य थी. दुनिया में कई ऐसे अदृश्य तत्त्व और कारक हैं, जो चुपचाप हस्तक्षेप करने में महारत हासिल किए होते हैं. छोटी-बड़ी हर चीज का जैसे मॉनीटर कर रहे हों. हर समय हलचल से भरे और लक्ष्य पूरा करने की होड़ में लगे कार्यालय में किसे फुरसत है कि कोई किसी अधिकारी की ग्रंथि को ठीक-ठीक समझने की कोशिश करे!
अंचल कार्यालय, भिलाई में लगभग चालीस लोग कार्य करते थे. उस वर्ष वहां उप महाप्रबंधक का एक नया पद सृजित हुआ, जिनका कार्य अंचल के फुटकर ग्राहकों पर विशेष नजर रखने और उन्हें बेहतर सेवाएं देने का था. नागपुर से स्थांतरित होकर इस पद पर नवीन मित्तल यहां पहुंचे थे. उन्हें इस कंपनी के लिए रिटेल ऐसेट्स विशेष रूप से बढ़ानी थीं. उनके जैसे किसी बड़े अफसर के लिए ऑफिस में एक नई कार की जरूरत महसूस हुई. इस दिशा में आवश्यक कार्रवाई शुरू हुई. इस नवरत्न-उपक्रम के लिए किसी कार की व्यवस्था करना कोई बड़ी बात नहीं थी. आनन-फानन में टेंडर निकला और एल-1 (लोएस्ट वन) वाले फर्म को इसके लिए अस्थायी रूप से बनी समिति ने स्वीकृत कर दिया. एक सप्ताह के भीतर एक नई चमचमाती कार कार्यालय की कार-पार्किंग की शोभा बढ़ा रही थी. सीनियर अफ़सर ख़ुश थे. कुछ ऐसे वरिष्ठ अधिकारी भी थे जो रिटायरमेंट के कगार पर आ चुके थे. वे उच्छवास भर रहे थे. कुछ ऐसे वीतरागी भी थे जिन्हें ऐसी बातों से कोई-लेना नहीं था. एक बड़े कांट्रैक्टर से इस बार कुछ चूक हो गई थी. उसने अपने टेंडर में इसके लिए कुछ ज्यादा राशि भर दी थी. शेखर तिवारी को सफल होने का मौका मिल गया. इस पीएसयू में उसकी यह पहली सफलता थी. शुरू में कुछ दिन फर्म का मालिक शेखर तिवारी ही गाड़ी चलाता रहा. बाद में उसने यहां के लिए एक ड्राइवर छोड़ दिया.
संयोग से नवीन मित्तल की सीट अभिनव के पास लगी थी. नवीन मित्तल, अभिनव से उम्र में काफी बड़े थे. उम्र और पद की खाई को पाटने में नहीं उसे बनाए रखने में उनका यकीन था. अभिनव इसे भाँप चुका था. किसी बहाने वह उनकी असहजता को कुछ दूर करना चाह रहा था. वह मौका भी आ गया. छूटते ही उसने अपने मन की बार जाहिर कर दी, "सर, मेरे पास उप महाप्रबंधक बैठ गए हैं. इसका मतलब यह नहीं कि मैं उप महाप्रबंधक हो गया."
नवीन मित्तल मुस्कुराकर रह गए. औपचारिक रहते हुए इतना ही कह पाए, "सीनियर-जूनियर तो अपनी जगह लगा रहता है अभिनव. इन बातों का कुछ विशेष महत्त्व नहीं है. आज जो सीनियर है, कल वह भी तो जूनियर था. वैसे ही आज का जूनियर कल किसी और का सीनियर होगा. मगर, हम सभी एक टीम के रूप में काम करें, यह ज्यादा जरूरी है."
अभिनव इस ऑफिस में कुछ पुराना हो चुका था. एक प्रमोशन लेकर मुख्य प्रबंधक भी बन गया था. यहां काम कर रहे सरोज शरण और उनके जैसे कुछ दूसरे अधिकारियों की चालाकियों को वह ठीक-ठीक समझने लगा था. उसने एक दिन धीरे से नवीन मित्तल को कहा, "सर, गाड़ी डायरेक्टली अपने अंडर में रखिएगा. वरना, कुछ लोगों की उसपर नजर है. उसका मिसयूज हो सकता है. हम जैसे लोगों को मिलने की बात तो खैर काफी दूर की हो जाएगी."
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"क्या मुझे भी कोई रोकेगा!" नवीन तुरंत अपनी अफसरी की रौ में आ गए थे.
"नहीं सर, उसका तो सवाल ही नहीं उठता. मगर उसपर आपके डायरेक्ट कंट्रोल न रहने से उसका दुरुपयोग अवश्य हो सकता है. आप नहीं, उसका खामियाजा हमलोग भुगतेंगे." अभिनव ने बिगड़ती बात को कुछ संभालने की गरज से धीरे से कहा.
नवीन ने अपने कंधे उचकाए और कंप्यूटर की स्क्रीन पर अपनी आंखें गड़ा लीं.
उस समय मित्तल ने बघेल की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. उन्हें शायद यह लगा कि यह अभिनव के भीतर का कोई असुरक्षा-बोध है. उनकी नौकरी के महज डेढ़ साल शेष रह गए थे. वे इन चक्करों में ज्यादा नहीं पड़ना चाहते थे.
2. ऑफिस की कार, एक अनार सौ बीमार
समय गुजरता रहा और ऑफिस का परिदृश्य बदलता रहा. एक नई कार ने ऑफिस में कुछ पुराने अफसरों के दिल में नई हसरतें पैदा कर दीं. नवीन मित्तल के लिए मूलतः आई उस गाड़ी को उनके अतिरिक्त अन्य लोग भी आवश्यकतानुसार प्रयोग में ला सकते थे, ऑफिस में यही व्यवस्था बनी थी. अभिनव बघेल ने अपने बचपन के दिनों में एक कहावत सुनी थी- 'एक अनार सौ बीमार.' अपने ऑफिस में इन दिनों उसे यह कहावत चरितार्थ होती दिख रही थी. जब से उसके ऑफिस में नवीन मित्तल के लिए टाटा की नई 'जेस्ट' कार आई थी, उसे लेकर चलनेवाली खींच-तान को देखते हुए, इस कहावत में अभिनव का विश्वास बढ़ता चला जा रहा था. समय के साथ लोक-श्रुतियां अपने को कुछ और सुदृढ़ करती चलती हैं शायद! कभी कोई तो कभी कोई उसे लेकर कहीं-न-कहीं जाना चाहता. उसपर चढ़ने से अधिक उसपर अपना नियंत्रण स्थापित करने या अपनी मनमानी करने की जिद ज्यादा काम कर रही थी. वह किसी सुविधा का माध्यम न होकर अधिकारियों के लिए उनकी मान-प्रतिष्ठा का विषय अधिक हो गई थी. जब दो लोगों को एकसाथ कहीं किसी कार्यालयी-कार्य के लिए बाहर जाना पड़ता और उसके लिए उनके बीच जो संघर्ष उभर कर आता, वह देखने लायक होता. कई बार वह झगड़ा एस्कलेट कर जाता. अंचल प्रमुख को बीच-बचाव में कूदना पड़ता. ऐसे में महाप्रबंधक चंद्रशेखर राव जो निर्णय लेते, वह किसी एक के ही पक्ष में होता. राव इस कार्यालय में नए थे और आंध्र प्रदेश के गुंटुर जिले से स्थानांतरित होकर आए थे. उनकी ओर से जिस पक्ष को मनाही होती, उसे बड़ा बुरा लगता. अभिनव जैसे कुछ अधिकारी भी होते, जिनमें कोई बहुत अधिक दिखावा नहीं था. आत्मविश्वास की कमी थी और काफी हद तक जो सबमिसिव थे. उन्हें लगता कि चलो कुछेक दिनों बाद ही सही वे अपना फील्ड-वर्क कर लेंगे. दूसरी तरफ, कुछ ऐसे दबंगनुमा अधिकारी भी थे, जिन्हें सिर्फ अपना काम ही महत्त्वपूर्ण लगता. बाकी डेस्क के काम की उन्हें या तो चिंता नहीं होती या उन्हें उन कामों की कोई कद्र नहीं थी. वे कार को लेकर कहीं चले जाते.
संस्था की ओर से कई बार 'वेलफेयर हेड' में कोई फेमिली गेट-टु-गेदर किया जाता. वैसे कार्यक्रमों में कुछ छोटे-मोटे गिफ्ट दिए जाते. सरोज अधिक-से-अधिक संख्या में उन्हें अपने परिवार के भीतर लाने की कोशिशों में लग जाते. नववर्ष की पूर्व संध्या पर ग्रैंड रीगल रिसॉर्ट में एक पार्टी रखी गई. स्टाफ सदस्यों के सभी परिजन भी जमा थे. पुरुषों का नेतृत्व मिस्टर राव और महिलाओं का नेतृत्व मिसेज राव कर रही थीं. कुछ कपल गेम रखे गए. बच्चों के लिए प्रतियोगिताएं आयोजित हो रही थीं. लोग शौकिया गीत गा रहे थे. बाद में अंत्याक्षरी के सत्र चले. अंत में हाऊजी खेला गया. पूरे कार्यक्रम के दौरान अकेले सरोज थे, जो हर समय मुस्तैद नजर आ रहे थे. जैसे इस हर्षोत्सव को भी उन्होंने कोई टास्क बना दिया हो. मिस्टर राव ने उनकी प्रशंसा करते हुए अपनी पत्नी से कहा, "देख रही हो, कितना प्रौम्प्ट ऑफिसर है! हर समय एक्टिव रहता है."
मिसेज राव एक कॉलेज में मनोविज्ञान पढ़ाती थीं. कंसलटेंसी का भी कुछ काम करती थीं. कंपनियों का रैट-रेस उन्हें भाता नहीं था. जीवन को सादगी से जीने में उनका यकीन था. कुछ रचनात्मक होकर. किसी बंदे को समझने को उनका अपना अभ्यास था. अपनी ट्रेनिंग थी. उन्होंने चुटकी ली, "हां, देख रही हूं. इनका वश चले तो ये गिफ्ट नहीं, बल्कि पूरी दुनिया मैनेज कर लें. नए साल के आगमन को सेलिब्रेट करना है, ये भूल चुके हैं. हर प्रोग्राम में इन्हें बस जीतने की ललक दिख रही है. रियली, इट्स टु मच. पता नहीं इनकी वाइफ कैसे इन्हें झेलती होगी!"
कुछ सोचते हुए मिसेज राव बुदबुदाईं, 'क्या जाने, अपनी पत्नी को भी स्वयं जैसा ही न बना लिया हो!"
जिनके लिए यह टैक्सी प्रमुखतः किराए पर लगी थी, वे नवीन जिंदल कुछ अतिरिक्त रूप से सादगी बरत रहे थे. संभव है, ऐसा कुछ अभिनय भी कर रहे हों. वे कार का उपयोग काफी कम कर रहे थे. अपने घर से कार्यालय और कार्यालय से अपने घर तक का आना-जाना वे अपने पुराने स्कूटर पर कर रहे थे. बीच में कार्यालय के किसी काम से कहीं निकलना होता, तब वे 'जेस्ट' कार में अपने जेस्चर के साथ पदार्पण करते. ढीली-ढाली और अनियंत्रणाधीन स्थिति का फायदा देर-सबेर किसी-न-किसी को उठाना था. यह फायदा भी सरोज के हिस्से आया. एक दिन चंद्रशेखर राव ने प्रशासन अनुभाग में कार्यरत मुख्य प्रबंधक सरोज शरण को बुलाया और उन्हें थोड़ा झिड़कते हुए कहा, "यह सब क्या चल रहा है, सरोज? नई कार को लेकर रोज कुछ-न-कुछ विवाद होता रहता है. कभी कोई तो कभी कोई जाना चाहता है. सबको अपना काम उतना ही इम्पॉर्टेंट लगता है. लगता है, मैं जोनल-हेड कम, तुम लोगों का पीए अधिक हो गया हूं."
सरोज शरण को मालूम था, किस समय चुप रहने से उनका लाभ होनेवाला है. वे उस बड़े केबिन में रखे फिश-एक्वेरियम की मछलियों को चुपचाप उस बंद घेरे में तैरते देखते रहे. वे मन ही मन उनके नाम भी तय करते रहे. उस सूची में उनके कंट्रोल के और कुछ दूसरे स्टॉफ भी थे. उन्हें अपनी पसंद की गेंद अपने पाले में स्वयं ही आती हुई दिख रही थी. उन्हें जिस मौके की तलाश थी, वह स्वतः उन तक आ रहा था. वे चुपचाप जोनल हेड की हां में हां मिलाते रहे. राव ने कुछ नरम होते हुए आगे कहा, "ऐसा करो, एक रजिस्टर मेनटेन करो और जिस ऑफिसर को जाना हो, पूर्व में तुम्हें बताकर और रजिस्टर में इंट्री करके जाएगा."
अंदर ही अंदर खुशी से उछलते सरोज ने प्रकटतः अपने चेहरे पर गंभीरता का लबादा ओढ़े रखा. वे इस समय स्वयं एक उछलते हुए फुटबॉल में तब्दील हो चुके थे. एक ऐसा फुटबॉल जिसके भीतर साजिशों की हवा भरी हुई हो. जो किसी को चोट पहुंचा सकता हो. वे केबिन से बाहर आए. जैसे कोई सांप अपने शिकार की तलाश में बिल से चुपचाप बाहर निकलता है.
वह चमकती कार अब सरोज के नियंत्रण में थी. उनके पास बाकी अधिकारियों की तरह अपनी कार थी, मगर ऑफिस की कार का मालिक होना उन्हें अदम्य सुख से भर रहा था. उनके लिए यह पहला मौका था जब उनकी एक कॉल पर ऑफिस की कोई कार आकर खड़ी हो जाए. टेक्निकली वह कार चाहे जिस नवीन जिंदल के लिए आई हो और ऑफिस का कोई अधिकारी बेशक उसका प्रयोग कर सकता हो, मगर इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुए सरोज के भीतर का अजगर उसपर कुंडली मार कर अब बैठ चुका था. उनके मन में मनों लड्डू फूट रहे थे. ऑफिस की कुछ अनुभवी आंखों ने नोटिस किया कि नई कार का तेज सरोज शरण के चेहरे पर काबिज हो गया है. किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा. यह ऑफिस की अंदरूनी राजनीति थी. कई तरह के उल्टे-सीधे बिल या बिना खरीदे गए फर्नीचर आदि के बिल सरोज शरण के सेक्शन से ही पास हुआ करते. उनसे बिगाड़ करके घाटा ही होना है, सब यही सोचकर बड़ी-से-बड़ी बात में चुप रह जाते.
सरोज जब अपने किसी मातहत से खुश होते, इस कार से शहर में उसके परिजन मार्केटिंग कर लेते. सिनेमा देखने चले जाते. दूर से पधारे रिश्तेदार प्रसिद्ध देवी माता मंदिर के दर्शन कर लेते. अभिनव के हिस्से कभी ऐसा कोई अवसर नहीं आया.
सरोज की मेज हरदम साफ-सुथरी रहती. कार्यालय में स्वच्छता सप्ताह के विशेष अभियान चलाए जाते, मगर सरोज अपने आस-पास को हर रोज चमकदार बनाए रखते. जोनल हेड ने पब्लिक मीटिंग में एक बार उनकी पीठ थपथपाई. सभा ने तालियाँ बजाई. कुछ लोगों के चेहरों पर न मालूम-सी हँसी तिर गई. शाम में जयश्री अभिनव को बतला रही थी, "राव सर को क्या मालूम... यह सरोज इधर की फाइल उधर करने में माहिर है. खुद थोड़े ही कुछ करता है. बस व्हाट्स अप व्हाट्स अप खेलता रहता है. ऊपर से आए मैसेज नीचे फॉरवर्ड करता रहता है.'
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अभिनव ने प्रतिवाद किया, "मगर मै'म, यह तो दूसरे अधिकारी भी कर रहे हैं."
"हाँ, मगर वे अपनी उँगलियाँ तो चलाते हैं. कुछ डेटा एमआईएस से स्वयं निकाल लेते हैं. कुछ लेटर भी ड्राफ्ट कर लेते हैं. मगर, छोटा बड़ा हर डेटा यह अपने स्टॉफ से निकलवाता है. तुमने कभी इसे कंप्यूटर पर कुछ लिखते हुए देखा!"
इधर-उधर से घूमते हुए सरोज प्रकट हो गए.
"आइए सरोज जी, अभी आपकी ही चर्चा हो रही थी." जयश्री ऐसी स्थितियों को चुटकियों में सँभाल लेती थीं.
"क्या?"
"कुछ खास नहीं, मै'म आपकी प्रशंसा कर रही थीं." अभिनव ने कहा.
ऑफिस में ऐसे दृश्य सामान्य थे. तीनों मुख्य प्रबंधक परस्पर मुस्कुरा दिए. अभिनव ने गौर किया, मुस्कुराते हुए सरोज कितने निर्दोष दिखते हैं! मगर फिर उन्हें क्या हो जाता है...
धीरे-धीरे शेखर तिवारी यहां काम आनेवाली भांति-भांति की चालाकियां सीखने लगा था. किसको नमस्ते करना है और किसको नहीं, इस बात का ध्यान रखना उसे आ चुका था. कुछ अन्य निजी एवं सरकारी कार्यालयों में उसकी टैक्सियां पहले से भी चल रही थीं. वह पुराने ठेकेदार की तुलना में कुछ कम घाघ था, मगर उसे भी अंततः उसी बड़े घाघ की राह पर चलना था. रही-सही कसर नस्वयं ऑफिस के लोग पूरी कर देते हैं. उनमें से कई अपने छोटे-मोटे लाभों के लिए संस्था का बड़ा नुकसान करा देते हैं और कई बार उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता. जिन कुछ लोगों को यह पता भी चलता है तो उनके लिए अपना निजी हित संस्था के हित से ऊपर होता है. सरोज शरण ने शेखर तिवारी के साथ मिलकर उल्टे-सीधे कार्य करने शुरू कर दिए. शेखर के आगे बाकी अधिकारियों को कमतर प्रदर्शित करने लगे. अपने घरवालों, नाते-रिश्तेदारों को उस गाड़ी से इधर-उधर भेजने लगे और उनके हिस्से का किलोमीटर-माइलेज, ऑफिस के किसी सीधे-सादे अधिकारी के दौरे में दिखवाने लगे. इसके लिए उन्होंने शेखर तिवारी को कुछ गुर भी सिखा दिए.
शेखर तिवारी क्रमशः इस ऑफिस की अंदरूनी फूट का फायदा उठाने लगा. वह धीरे-धीरे अपने हिसाब से भी चीजों को संभालने लगा. इधर का पैसा उधर करने लगा. जल्दी ही एक नई कार और ले ली और उसे किसी बैंक में लगा दिया. कई बार उसकी वित्तीय स्थिति डगमगाने लगती. उसका अपने हिसाब से वह समाधान कर लेता. मसलन, वह जान-बूझकर गाड़ी में पेट्रोल भरवाना छोड़ देता. ड्राइवर को पहले ही ताकीद कर देता. योजनानुसार, वह गाड़ी को किसी पेट्रोल पंप पर ले जाता और उसमें अपने मालिक के कही राशि का पेट्रोल भरवा लेता. फिर ऐन वक्त पर वहां बैठे किसी अधिकारी से कहता, 'सर ने कहा है कि आप अभी पैसे दे दें. वे आपको बाद में दे देंगे.'
कार में बैठे अधिकारी को उस समय कोई उपाय न सूझता. उसे अपने पद की गरिमा का खयाल हो उठता. कोई अन्य उपाय नजर नहीं आता. झक्क मारकर उस अधिकारी को बिल का भुगतान करना पड़ता. इस तरह होशियारी से उधार लिए उनके पैसे, शेखर तिवारी के यहां महीनों पड़े रहते. ऐसा वह कुछेक दादा टाइप अफसरों को छोड़ बाकी सभी के साथ करता. एक बार जयश्री सिरीगिरी के साथ भी यह प्रसंग घटा. पहले तो उन्होंने समीर को खूब लताड़ लगाई, "यह क्या बात हुई! तुमलोग पहले से तैयारी करके क्यों नहीं रखते!"
समीर चुपचाप उनके गुस्से को पीता रहा. थक-हार कर उन्होंने अपना पर्स खोला और पेट्रोल के बिल का भुगतान किया.
एक बार, यही वाकया अभिनव के साथ भी घटा. शुरू में उसने बहाना बनाया, "समीर, पैसे तो मेरे पास भी नहीं है. तुम ही भुगतान कर दो. बाद में तिवारी जी से ले लेना.
निर्दोष और फीकी हंसी हंसता, समीर ने जवाब दिया, "कैसी बात करते हो साहिब! मेरे पास तो मुश्किल से सौ रुपए होंगे. उससे क्या होगा!"
एक मन किया कि वह भुगतान न करे, मगर उसे आगे इसका कोई विकल्प नजर नहीं आया.
अभिनव हुनरमंद था मगर साहसी और स्पष्टवादी नहीं था. वह अपने कार्यालय और अंचल में सभी से मिला कर चलना चाहता था. व्यावहारिक स्तर पर इसे संभव करना अत्यंत मुश्किल होता है. किसी जगह पर एक साथ सबको प्रसन्न नहीं रखा जा सकता. अभिनव इस सच को जानता था मगर अपने मिजाज से मजबूर था. वह इसमें कामयाब नहीं हो सकता था. नहीं हुआ. लोग उसे सीधा और डरपोक समझते. कार्यालय में कई ऐसे थे जो उसे नापसंद करते थे.
समीर की चुप्पी उसे इस समय कुछ अधिक खलने लगी. खुद को सहज करते और अपने भीतर के बड़प्पन को बाहर उभारते हुए उसने कहा, "चलो, ठीक है. जितना समय मिलता है, उतना तो काम कर लें. फिर आगे देखेंगे. संभव है, किसी और को सचमुच ही कोई इमरजेंसी आ गई होगी."
इस पीएसयू में पुराने होने और उसके बराबर के पद पर पहले से होने के कारण वह सरोज शरण का लिहाज करता. मगर, सरोज को उसकी विनम्रता की तब तक परवाह थी, जब तक कि उनका अहं पोषित होता रहे. वे अपनी सत्ता के नशे में चूर थे. उनकी वरिष्ठता अभिनव को अपने आगे हमेशा कमतर दिखलाने की कोशिश में होती.
कई बार अभिनव को अपने पद और प्रतिष्ठा का खयाल आता और अपने व्यवहार में उन्हें ढालने की वह कोशिश करता. अपने स्वभाव से इतर जाने का बाज-वक्त प्रयास करता. उस दिन भी उसने वही प्रयत्न किया. इस बार अंचल के कुछ अधीनस्थ कार्यालयों के निरीक्षण पर अभिनव को दुबारा जाना था. उसने अपने अंचल प्रमुख चंद्रशेखर राव से बात की और ऑफिस की गाड़ी को लेकर वह चला गया. उसे अपने ही ओहदे पर तैनात सरोज शरण को बताकर बाहर जाना जरूरी नहीं लगा. कुछ देर में गाड़ी ऑफिस से बाहर थी.
ऑफिस के बेसमेंट में कार के न होने की खबर जब सरोज शरण तक पहुंची तब वह चौंक पड़ा. इन कुछ महीनों में यह पहली बार हुआ था कि उसकी जानकारी के बगैर कार कहीं बाहर गई थी. ऑफिस के बाकी लोग भी कार का प्रयोग कर रहे थे, मगर वे सभी हरदम सरोज को बताकर जा रहे थे. सरोज ने शेखर तिवारी को और फिर तिवारी ने समीर को धड़ाधड़ कई फोन कर डाले.
कुछ लोग इस स्वभाव के होते हैं कि उनसे गलती हो कि न हो, वे तुरंत अपराध-बोध के शिकार हो उठते हैं. अभिनव का चरित्र कुछ ऐसा ही था. दूसरे लोग जहां पूरा का पूरा मुर्गा निगल कर डकार तक नहीं लेते, वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनका पहला निवाला ही लोगों को अखरने लगता है. अभिनव ने ऑफिस के बिग-बॉस से बात कर ली थी, अतः वह पूरी तरह निश्चिंत था. शहर से अभी बाहर भी नहीं निकला था कि कार ड्राइवर समीर श्रीवास के मोबाइल पर धड़ाधड़ फोन आने लगे. गाड़ी सड़क पर तेजी से दौड़ती चली जा रही थी. अभिनव वातानुकूलित कार में बैठा हुआ उसके बड़े पारदर्शी शीशे से झांकता हुआ अपने ही में मस्त था. इस समय बाहर की हरी-भरी प्रकृति को निहारना उसे अच्छा लग रहा था. किस कार्यालय में उसे क्या-क्या जांच करनी है, इसका एक खांचा उसके मस्तिष्क में बनता चला जा रहा था. एक-दो कॉल पर अभिनव का ध्यान नहीं गया, मगर कछ रुक-रुककर जब समीर के मोबाइल पर कई कॉल आने लगे तो उसका माथा ठनका. एक पल के लिए वह हड़बड़ा गया. समीर से अपने अंदर की घबराहट को छुपाते हुए उसने पूछा, "समीर, बार-बार किसका फोन आ रहा था?"
"ऑफिस से ही कोई सर हैं, सर." समीर ने जरा धीरे से कहा.
"क्या कह रहे थे?" अभिनव के भीतर की उत्सुकता, मूलतः उसका डर थी.
"पूछ रहे थे, कहां जा रहे हो? किनको लेकर?" समीर ने सामने सड़क पर अपनी निगाह गड़ाते हुए ही जवाब दिया.
"फिर?" अभिनव से रहा नहीं गया.
"फिर क्या सर! आप सुन तो रहे ही थे. मैंने आपका नाम बताया और जहां जा रहे हैं, वहां के ऑफिस का भी." अब तक समीर की आवाज में झल्लाहट साफ-साफ देखी जा सकती थी. उसकी कड़ी होती आवाज ने अभिनव को कुछ असहज भी किया.
समीर नौवीं फेल था और उसे ऑफिस के पदानुक्रम की कोई जानकारी नहीं थी. उसके मोबाइल पर किसी का नंबर भी सेव नहीं था. अभिनव को कुछ संदेह हुआ कि हो-न-हो इसके पीछे सरोज की ही कोई कारिस्तानी हो. तबतक समीर के पास उसके नियोक्ता शेखर तिवारी का फोन आ गया. समीर उससे कुछ देर बातें करता रहा. बीच में कार एक बार जोर की लहराई. अभिनव ने कुछ डांटते हुए कहा, "अरे यार, गाड़ी सड़क की एक तरफ करके पहले बात ही पूरी कर लो."
तबतक उनकी बातचीत समाप्त हो गई थी. समीर ने गाड़ी को और खुद को कुछ संयत किया. सामने सड़क पर निगाह बराबर जमाते हुए उसने कहा, "सर, अभी तिवारी जी का फोन आया था. वे कह रहे थे कि जोनल ऑफिस में किन्हीं बड़े अधिकारी को गाड़ी की जरूरत है. किसी भी हाल में साढ़े तीन बजे तक आ जाएं."
3. गरीबी की तीरगी बनाम ब्यूरोक्रेसी की पेचिदगी
समीर की अनावश्यक बोलने की आदत नहीं थी. मगर, वह अभिनव के भीतर चल रहे झंझावात की कंपन आगे ड्राइविंग-सीट पर बैठा हुआ महसूस कर रहा था. अपनी आदत से परे समीर ने अपनी चुप्पी तोड़ी. उसे कुल जमा नौ हजार का मासिक वेतन मिलता था, जबकि अभिनव जैसे अधिकारियों को नब्बे हजार से अधिक का मासिक वेतन था. समीर को लगा, सुकून के स्तर पर तो इन लोगों की तुलना में वही ज्यादा खुश है. इन लोगों के हृदय में तो हर समय किसी-न-किसी का डर घुसा हुआ रहता है. अभिनव की उम्र, समीर के ही आसपास की थी. समीर को अभिनव से कुछ समानुभूति हुई. उसे लगा, अभिनव एक सीधे अफसर हैं. खामख्वाह कुछ ज्यादा सोच रहे हैं. उसने प्रकटतः कहा, "सर, किसी बात को इतना दिल से मत लगाइए. लोग तो इस गाड़ी का बड़ा दुरुपयोग कर रहे हैं. मैं स्वयं साहब के बच्चों को उनके स्कूल-फंक्शन में ले गया हूं. घंटों वहीं बैठा हूं. किन्हीं के रिश्तेदार को एयरपोर्ट तक भी छोड़ा है. आप तो फिर भी ऑफिस के लिए ही इसका यूज कर रहे हैं, सर."
अभिनव इन बातों को जान रहा था. वह कुछ संकोची किस्म का था, मगर इस समय उसके लिए किसी से बात करके, अपने भीतर के उद्वेग को निकालना जरूरी था. उसे समीर की यह साफगोई पसंद आई. उसे अपने दिल के भीतर बनते और घनीभूत होते हुए धुएं को बाहर निकालने के लिए यह एक जरूरी निकास-द्वार लगा. उसने धीरे से अपनी बात शुरू की, "ऐसा ही है, समीर. जो निर्दोष है, उसे ही भुगतना पड़ता है. एक तो मैं जल्दी कार लेकर कहीं निकलता नहीं. कई सप्ताह बाद, जब आज आना हुआ तो इतनी फजीहत हो रही है. चलो, ठीक है न! ये जैसा कहते हैं, वैसा ही करते हैं. कोई अपना पर्सनल वर्क तो है नहीं. आज नहीं तो कल पूरा करेंगे काम."
अभिनव समीर से बात करके हल्का होना चाह रहा था और उससे अपने भीतर की झेंप को छुपाना भी.
समीर चुपचाप गाड़ी आगे बढ़ाता रहा. अभिनव की नजर अपनी कलाई-घड़ी पर गई. अभी सवा ग्यारह बज रहे थे. उसका लक्ष्य शाम तक कुल चार कार्यालयों के निरीक्षण का था. मगर इस अवरोध से वह बमुश्किल दो कार्यालयों का दौरा ही पूरा कर पाएगा. उसे यह खयाल भी आया कि ड्राइवर उसके बारे में क्या सोच रहा होगा! वह अपने ऑफिस में चीफ मैनेजर है और उसकी एक कार मात्र को लेकर भद्द पिट रही है. उसे अपनी इस सोच पर कुछ झेंप-सी हुई. अपनी ही नजरों में उसकी कोई औकात नहीं रही. उसे गहरी आत्मग्लानी हुई.
समीर की चुप्पी उसे इस समय कुछ अधिक खलने लगी. खुद को सहज करते और अपने भीतर के बड़प्पन को बाहर उभारते हुए उसने कहा, "चलो, ठीक है. जितना समय मिलता है, उतना तो काम कर लें. फिर आगे देखेंगे. संभव है, किसी और को सचमुच ही कोई इमरजेंसी आ गई होगी."
"जी, सर." समीर संक्षिप्त ही रहा.
"ठीक है, गाड़ी की स्पीड जरा तेज कर लो." अभिनव के भीतर का आत्मविश्वास पुनः मुखर होना चाह रहा था. हालांकि वह अब भी उलझा-उलझा हुआ था, जैसे उसके गांव के पुराने तालाब में जलकुंभियां आपस में उलझी-उलझी रहती हैं.
कुछ देर पहले, अभिनव, कार को तेज चलाने की बाबत समीर को डांट चुका था. अब वह वापस उसे तेज चलाने के लिए कह रहा था. समीर ने कार के 'बैक-रियर-व्यू' से अभिनव को देखा. अभिनव को अपनी गलती का एहसास हुआ. वह कुछ झेंप-सा गया. अभिनव अब तक दबाव में आ चुका था. वह जरूरी फील्ड-वर्क निपटाकर जल्दी-से-जल्दी कार्यालय में लौट जाना चाह रहा था. शायद अपने पिता की सीख का उसके अवचेतन पर गहरा प्रभाव कायम था. उसके पास अब तक ऑफिस से किसी का फोन नहीं आया था. मगर फिर भी वह भीतर से घबराया हुआ था. अचानक हुए इस प्रहार से वह एकदम डर-सा गया था. अंचल-प्रमुख से लिया गया अनुमोदन वह भूल चुका था. उसे हड़बड़ी में यह भी ध्यान नहीं रहा कि वह एक बार अपने बिग-बॉस चंद्रशेखर राव से बात कर ले. इस बीच एक कार्यालय का निरीक्षण जैसे-तैसे निपटाकर वह दूसरे कार्यालय की ओर बढ़ चला.
उसने चीजों को भांपने के लिए सरोज शरण को फोन किया. वह उनकी आक्रामकता से वाकिफ था, मगर स्थिरचित्त होकर और उसे सम्मान देते हुए ही उसने बात शुरू की, "हां...नमस्कार सर, अभिनव बघेल बोल रहा हूं. गाड़ी लेकर मैं ही आया हूं. कुछ कार्यालयों के परिसर का निरीक्षण लंबित था. उसी सिलसिले में इधर आना हुआ है."
"मैं कुछ नहीं जानता, अभिनव जी. आप किसी भी तरह चार बजे तक आइए. कार की अर्जेंसी है."
"सर, मेरे निरीक्षण का लक्ष्य रह जाएगा. चार ऑफिस करने में कम से कम शाम के सात तो बजेंगे. प्रिमाइसेज के कई जरूरी मदें इन कार्यालयों में पेंडिंग हैं. उन्हें समुचित निदेश देने होंगे. उनका शीघ्र अनुपालन आवश्यक है." अभिनव अपने कार्य की गंभीरता से सरोज शरण को अवगत कराना चाह रहा था.
"देखिए, इतना ही जरूरी था तो आप टैक्सी लेकर जाते." दूसरी तरफ से रुखा-सा जवाब आया.
"सर, ऑफिस की गाड़ी खाली थी, फिर टैक्सी क्यों करता! उसकी अनुमति कैसे मिलती?" अभिनव ने अपनी तर्क-शक्ति का परिचय देते हुए कहा.
"आपको कैसे मालूम कि गाड़ी खाली थी! क्या आप मुझसे पूछने आए थे?" सरोज की आवाज फटने लगी थी और शराफत का ढक्कन उसके मुंह से उतरने लगा था. नाले की दुर्गंध अभिनव को बेदम करने लगी.
"सर, मैं तो जोनल हेड से पूछकर निकला हूं. आज मैं कुछ जल्दी में भी था. आपको बता नहीं पाया." अभिनव, स्वभाववश विनीत ही रहा. वह पहली बार अपने भीतर के डर से बाहर आने का विजयघोष मनाता मगर अपने पहले ही प्रयास में चारों खाने चित्त हो गया था. उसने सच की दाल में झूठ के कुछ कंकड़ मिलाए.
"तो क्या मुझसे बात करनी जरूरी नहीं थी! कार की अवेलिबिलीटी जोनल हेड बताएंगे या गाड़ी का नोडल ऑफिसर बताएगा!" सरोज शरण अब लगभग चीखने लगा था.
"सर, मैं किसी निजी काम से तो नहीं आया हूं. इन चार कार्यालयों के निरीक्षण बेहद आवश्यक हैं. इन दफ्तरों की सुरक्षा का मामला भी सामने आ रहा है." अभिनव ईंट का जवाब पत्थर से देना चाह रहा था. मगर सामने की ओर ढंग की एक ईंट भी नहीं फेंक पा रहा था.
"मैं कुछ नहीं जानता. आप अपना निरीक्षण करते रहो. बस, हमारे पास हमारी गाड़ी भेज दो." सरोज ने अपना अंतिम फैसला सुना दिया.
"गाड़ी भेज दूं, फिर मैं कैसे लौटूंगा!" अब तक अभिनव हकलाने लगा था और उसके दोनों पांव कांपने लगे थे.
"इसका उत्तर मैं क्या दूं! आप कोई बस-वस में बैठकर आ जाना. और क्या!" सरोज शरण ने जिस बेरुखी से बात की, उससे कुछ ज्यादा बेरुखी से अपना मोबाइल बंद कर दिया."
ये सारी बातें समीर भी सुन रहा था. अभिनव को अपना पूरा अपमान स्पष्ट दिख रहा था. लेकिन, जिस हक और अधिकार से सरोज शरण ने उसे आदेश दिया, अभिनव को लगा कि क्या पता, सचमुच ही कोई जरूरी काम आ गया हो. उन्होंने ऑफिस की कार को जैसे अपनी बपौती समझ ली हो.
दूसरे कार्यालय का निरीक्षण करते हुए और जरूरी निर्देश देते हुए उसे कुछ अतिरिक्त समय लग गया. शुरू में सरोज अपने अधीनस्थ एक अधिकारी हेमंत गुप्ता से फोन करवाते रहे. वह सहायक प्रबंधक था और उसे अपनी सीमाओं में ही रहना था. ज्यादा कुछ तो नहीं बोल पाया मगर उसका रवैया भी अभिनव के प्रति रुखा-रुखा ही था.
"ठीक है, आता हूं." कहकर अभिनव ने फोन काट दिया.
वह भीतर-ही-भीतर अपने आप को कोस रहा था. उसे लग रहा था, कि वह बेकार ही आज निकला. इससे अच्छा किसी और दिन निकलता. वह कहीं से भाग्यवादी नहीं था, मगर न जाने कैसे उसे महसूस हो रहा था कि हो-न-हो, वह किसी गलत मुहूर्त में आज ऑफिस से बाहर निकला है.
कार्यालय-निरीक्षण के दौरान वह अपने काम में लगा रहा. यही कोई दस मिनट के बाद, अचानक से इस बार सरोज का फोन अभिनव के मोबाइल पर आया. वह अंदर से घबरा गया. आवाज में कुछ अतिरिक्त सख्ती के साथ सरोज ने कहा, "अभिनव जी, गाड़ी अभी तक नहीं पहुंची है. आपको चार बजे के लिए ही कहा था."
"निकल ही रहा हूं, सर. बीच में दो कार्यालयों के निरीक्षण को अधूरा छोड़ दिया है. और क्या करूं!" अभिनव के स्वर में गुस्से और बेचारगी की सम्मिश्रित झल्लाहट थी. वह चाह कर भी अपनी नाराजगी छुपा नहीं सका. मगर एक पुराने सीनियर से ज्यादा उलझना उसे उचित नहीं लगा. पिता की सीख, उसकी जिह्वा को आगे बढ़ने से रोक दे रही थी. उसे लगा, नौकरी में ब्यूरोक्रेसी का डंका अभी भी बज रहा है. समय बदल गया है और मालिक-मजदूर का संबंध भी. मगर जहां मौका मिले, एक-दूसरे को दबाने का चलन आज भी जारी है. नौकरी में आने के बाद, अभिनव इसे और अधिक विस्तारित रूप में देख रहा था. यह एक राष्ट्रीय और नामी-गिरामी कंपनी के भीतर का यथार्थ था. इसकी बजबजाहट ऐसी थी कि उसका दम घुट रहा था.
सरोज उसके ही पद पर थे मगर वे उससे पहले के मुख्य प्रबंधक थे. इस बार के प्रमोशन-एक्सरसाइज में उनके उप महाप्रबंधक बनने की संभावना पूरी थी. इस औद्योगिक संस्थान में एक पद ऊपर होने से भी काफी फर्क पड़ जाया करता है. कारोबार की दुनिया में मेधा से अधिक महत्त्व उस गुणा-भाग का होता है, जिससे किसी भी कीमत पर व्यवसायिक बजट को प्राप्त किया जा सके. शिक्षा से अधिक कद्र प्रबंधन की थी. अभिनव होनहार इंजीनियर था मगर संस्था के व्यावसायिक लक्ष्य से उसका कोई लेना-देना नहीं था. वह सपोर्टिंग स्टॉफ था. जो लोग इस कंपनी को मुनाफा दे रहे थे, वे सातवें आसमान पर थे. उन्हें अपने अलावा सभी बौने दिखाई पड़ते.
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अभिनव को अपने कॉलेज के दिन याद आए. शुरुआती युवावस्था के वे दिन.... उसका संयत मन कभी भी उस तरह उबाल नहीं मार पाया, जिस तरह वह कई आंदोलनों में युवाओं को चिखते-चिल्लाते हुआ देखा करता. उसके सहपाठी ऐसी हुड़दंगबाजियों में बड़े उत्साह से भाग लिया करते. कुछेक मौकों पर उसका उनसे जुड़ना हुआ. मगर उसने छात्र-नेताओं के भीतर मौजूद कथनी-करनी के भेद को शीघ्र ताड़ लिया. वह शांत और सर्जनात्मक रुचि का था. किसी तरह की तोड़-फोड़, गाली-गलौज का माहौल उसे पसंद नहीं था. कॉलेज से पास-आउट होते ही उसकी नौकरी लग गई और दो वर्षों के भीतर उसकी शादी हो गई थी. वह मिडिल-क्लास मानसिकता के बने-बनाए पैटर्न में ढलता चला जा रहा था.
'कहीं वह सुरक्षा और प्रगति के नाम पर इस कंफर्ट का कैदी तो नहीं बनता जा रहा', अभिनव ने स्वयं से पूछा. उसे कोई उत्तर नहीं मिला.
सुबह जब वह ऑफिस से बाहर निकला था, सड़क की दोनों तरफ की हरियाली, पेड़-पौधे, खेतों में और उनके ऊपर उड़ते पक्षी उसका मन मोह रहे थे. लौटते हुए भी वही दृश्य आंखों के सामने से गुजर रहे थे, मगर, जैसे वे उसे चिढ़ा रहे हों. बंद और वातानुकूलित कार में बाहर का शोर जितना कम था, उसके भीतर उतना ही अधिक हाहाकार चल रहा था. वह मन-ही-मन सोच रहा था, प्रकृति भी हमारा मन-बहलाव तभी करती है, जब हम उसके लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं. जब हमारा हृदय उसे स्वीकारने की अवस्था में होता है. अभिनव को इस समय कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. कार में एसी दो नंबर पर पहले से ही चल रही थी, मगर अपने भीतर उमड़ते-घुमड़ते विचारों की भट्ठी में जैसे वह तप रहा था. उसे कुछ घबराहट-सी हुई. उसके पूरे शरीर से पसीना बहने लगा. बेचैनी में उसने ड्राइवर समीर को कुछ झल्लाते हुए कहा, "समीर, एसी की स्पीड तेज क्यों नहीं करते!"
समीर ने जवाब दिया, "दो पर तो है ही सर."
"अरे, बहस क्यों करते हो! दो पर है तो इसे चार पर करो. देखते नहीं, मुझे कितना तेज पसीना आ रहा है!" अभिनव को स्वयं अपने ऊपर विश्वास नहीं हुआ. वह तो किसी से भी इस कर्कशता में बात नहीं करता है. तो क्या उसके भीतर का फ्रस्ट्रेशन किसी कमजोर पर निकल रहा है! उसने स्वयं को संयत करने की कोशिश की. वह किसी भी सूरत में दूसरा सरोज शरण बनना नहीं चाहता था. अभिनव ऑफिस आ चुका था. उसका आत्मविश्वास अब तक बुरी तरह चरमरा गया था. लोग अपने निजी कार्यों से गाड़ी को बाहर ले जाते हैं और देर रात तक उसे अपने साथ रखते हैं. इधर अभिनव अत्यधिक दबाव में अपना निरीक्षण-कार्य बीच में छोड़कर ऑफिस आ चुका था. हमेशा चारों ओर देखता और कुछ अतिरिक्त रूप से सीधा चलनेवाला अभिनव उस अपराह्न ऑफिस की दो फुट गुणा दो फीट की विट्रीफाइड टाइल्स की ओर गर्दन अधनत किए हुए और अपने झुके हुए कंधों को भारी मन से ढोते हुए चल रहा था. उसकी गर्दन जैसे अपनी जगह से उठना भूल गई थी. जैसे उसकी गर्दन के उठने मात्र से उसके भीतर का पराजित आत्मविश्वास, सभी के सामने जग-जाहिर हो जाएगा. उसके सिर के बाल बुरी तरह अस्त-व्यस्त दिख रहे थे, जैसे किसी ने उसके सिर पर से उसका प्रिय ताज तेजी से और जबरदस्ती उठा लिया हो. हमेशा प्रसन्न दिखनेवाला उसका चेहरा, डाली से गिरे पीले पत्ते की तरह मुरझाया हुआ दिख रहा था. जैसे वह अपने कार्यालय का सफल निरीक्षण करके नहीं बल्कि कोई जंग हार कर लौटा हो.
देर शाम साढ़े सात बज रहे थे. अभिनव को 'नेचर-कॉल' आया और वह बाथरूम में ट्वायलेट का दरवाजा बंद करके हल्का होने लगा. आज दिन-भर के तनाव ने उसके मन को बड़ा बोझिल बना दिया था. सुबह से लेकर शाम तक के सारे घटनाक्रम कैमरे के किसी रील की तरह उसके समक्ष चलने लगे. तभी बाथरूम में दो लोगों के खिलखिलाते हुए प्रवेश करने की उसे अनुभूति हुई. अंदर बैठे हुए अभिनव ने सरोज शरण की आवाज आसानी से पहचान ली थी. इस आवाज को वह कम-से-कम इस जन्म में तो नहीं ही भूल सकता था! अपने अधीनस्थ अधिकारी हेमंत गुप्ता के साथ सरोज शरण, बाथरूम में पेशाब करने के लिए आए थे. उन दोनों को कदाचित् कुछ भान नहीं हुआ कि ट्वायलेट का दरवाजा बंद है और उसमें इस वक्त कोई बैठा हुआ भी हो सकता है. वे दोनों यूरीनल के सामने खड़े थे. सरोज, हेमंत से कह रहे थे, "अरे हेमंत, आज तो अभिनव के बच्चे को मैंने बड़ा मजा चखाया. उसको गाड़ी सहित बीच में ही बुला लिया. उसे लगा कि उसने जोनल हेड की परमिशन ले ली है, तो वह मुझे सरपास कर सकता है. उसे नहीं मालूम, सरोज शरण आखिर चीज क्या है!"
वाश बेसिन के ऊपर लगे शीशे में कुछ देर तक सरोज शरण अपना चेहरा देखते रहे. चेहरा विजय दर्प से मुस्कुरा रहा था. हेमंत ने आगे पूछा, "सर, वैसे क्या गाड़ी को सचमुच कहीं भेजनी थी!"
"अरे, कुछ नहीं यार, लेडीज क्लब की एक मीटिंग थी. वैसे तो जोनल हेड की वाइफ उसकी प्रेसीडेंट है, मगर इनडायरेक्टली, मेरी वाइफ की ही उसमें चलती है. उसे कुछ सहेलियों के साथ वहां भेजना था. ऑफिस की गाड़ी में वर्दीधारी ड्राइवर के साथ गेस्ट हाउस उतरने में उसका इंप्रेशन बाकी महिलाओं के समक्ष कुछ ज्यादा पड़ता है न!" यह कहकर सरोज ने जोर का ठहाका लगाया.
सरोज वॉशरूम से निकलते हुए उसी हेमंत से कह रहे थे, "ये आज के लौंडे सीधे मैनेजर रख लिए जाते हैं. फास्ट ट्रैक में प्रमोशन पा जाते हैं. हमलोग इतने सालों में चीफ मैनेजर बने हैं. और ये चुटकी में यहां तक आ पहुंचे. बताओ यार... यह क्या बात हुई!"
सरोज की ये बातें सुनकर अभिनव सन्न-सा रह गया. उसे बहुत तेज गुस्सा आया. उसे लगा, वह अभी जिस हालत में है, उसी हालत में बाहर निकल ट्वायलेट की इसी सीट पर सरोज का सिर लाकर दे मारे. कम उम्र में उसके इस पोजीशन को लेकर उनके भीतर इतनी ग्रंथि क्यों है! उसने इतनी मेहनत से एक टेक्निकल डिग्री ली है. कुछ अच्छी प्राइवेट कंपनियों के आकर्षक ऑफर ठुकरा कर यहां आया है. इसलिए कि घर के आसपास रह सके. माता-पिता के लिए कुछ करने की गुंजाइश बची रहे. अभिनव ठंडे शौचालय में गुस्से से उबला जा रहा था. मगर तभी उसके पिता की बातें उसके जेहन में घूमने लगीं और वह निढाल 'वेस्टर्न कमोड' पर चुपचाप बैठा रहा. निस्पंद और थका-हारा वहीं कमोड पर पदस्थ वह अपने अपमान का घूंट पीता रहा. पल भर के लिए उसे लगा कि इस संस्था में उसकी कुर्सी यह वेस्टर्न कमोड ही तो नहीं है! उसके भीतर से एक दूसरा अभिनव बाहर निकल कर उसकी आँखों में आँख़ें डाले कह रहा था- अभिनव, तू साहसी नहीं है. पलटकर जवाब देने की तुममें हिम्मत नहीं है.
दुनिया के लिए अभिनव एक वरिष्ठ अधिकारी बन गया था, मगर उसके भीतर कोई असुरक्षा-बोध कहीं अपनी जड़ें गहरे जमाए हुए था. वह शायद पिता की सीख थी. वह शायद ऑफिस की पॉलिटिक्स के आगे उसकी अपनी बेबसी थी. शायद उसे अभी कमीनेपन से लड़ने के अचूक गुर और सीखने थे. शायद उसे कुछ और-और चिकना घड़ा होना था. उसने अपने पिता को व्हाट्स अप पर संदेश भेजा, 'ब्यूरोक्रेसी के दांव-पेंच मुझे नहीं आते. मैं कोशिश करता हूं, मगर रंगा सियार ही सिद्ध होता हूँ. पिताजी, पंचतंत्र की यह कथा मुझमें धड़कती है.जाने क्यों!'
उस शाम देर तक वह चुपचाप ट्वायलेट में बैठा रहा. अपना मुंह छुपाने के लिए उसे यह जगह अभी सर्वाधिक सुरक्षित लग रही थी. बाहर अंधेरा गहराने लगा था.
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